इस साल सिनेमा से सड़क तक सुनाई दी विरोध की गूंज, कई मुद्दों पर सत्ता से दो-दो हाथ करने के लिए बॉलीवुड था मुखर!

साल 2020 के दौरान दुनियाभर में अधिनायकवाद और अन्याय के खिलाफ हुए संघर्षों में गीत, संगीत और सिनेमा एक साथ आए। यह वर्ष प्रतिरोध की थीम पर आधारित फिल्मों की दौलत से लबरेज रहा है जिसमें अधिकांश विदेशी फिल्में हैं।

फोटो: Getty Images
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नम्रता जोशी

मेरे लिए वर्ष 2020 की जो अंतिम बेहतरीन फिल्में थीं, उनमें से एक थी ईरानी फिल्मकार मोहम्मद रसूलोफ की फिल्म शैयतान वोजद नदरद (देर इज नो इविल)। हालांकि मैं जब यह लिख रही हूं, साल खत्म होने में दो दिन बचे हैं और इस दौरान मुझे और भी बहुत सारी फिल्में देखने को मिलेंगी। मोहम्मद रसूलोफ की इस फिल्म को इस वर्ष का सर्वश्रेष्ठ फिल्म का गोल्डन बियर पुरस्कार मिला है। फिल्म की थीम मृत्युदंड पर आधारित है। इसके केंद्र में चार कहानियां हैं। फिल्म एक अधिनायकवादी राज्य, अमानवीय कानूनों और इनमें फंसे हुए निर्दोष व्यक्तियों के सभी दर्दनाक विवरणों के साथ एक बहुत ही चिंताजनक स्थिति को सुस्पष्ट रूप से प्रस्तुत करती है। कुछ लोग कठोर आदेशों के पालन के लिए शांति से सब कुछ सह लेते हैं।

राज्य के आदेश पर निर्विवाद जल्लाद होने की पीड़ा उनके भाव शून्य चेहरों पर साफ नजर आती है। ऐसे लोग भी हैं जिनके पास नैतिक बल और साहस है जो उन अजनबियों के नीचे से ‘पटरा खींचने से’ मना कर देते हैं जिनके ‘अपराधों’ के बारे में उन्हें बताया तक नहीं गया है। वे एक दुर्लभ सत्य निष्ठा और गरिमा का प्रदर्शन करते हैं और असहमति के दुर्भाग्यपूर्ण परिणामों के साथ जीने में उन्हें कोई अफसोस या पछतावा नहीं है। कटु अनुभव की इन कहानियों की तीव्र वेदना में, फिल्म के बीच में जोश के साथ, हर्ष से भरा हुआ गीत ‘बेला चाओ’ बजता है। इस फिल्म के संदर्भ में यह गीत मुद्दों पर मजबूत स्टैंड लेने के विश्वास को रेखांकित करता है और आशावाद के मत के साथ एक ऐसे भविष्य की ओर देखता है जब लोग प्रतिबंधों की बजाय आजादी के साथ काम सकेंगे। किस्मत की बात है कि बस एक हफ्ता पहले पूजन साहिल ने भी इसी गाने का पंजाबी प्रस्तुती करण कारवां- ए-मोहब्बत के वीडियो के साथ यूट्यूब पर डाला है।

इस गाने में उन्होंने भारतीय किसानों द्वारा अगस्त से किए जा रहे विरोध-प्रदर्शनों में नए किसानी कानूनों के खिलाफ आवाज उठाने की अपील की है। साहिल ने इसी गाने का एक हिंदी संस्करण तैयार किया था जिसने 2019 के मध्य में और 2020 की शुरुआत में सीएए/ एनआरसी विरोधी प्रदर्शनों में काफी जोश पैदा किया था। ऐसे लगता है कि जैसे 2021 में घूमकर चक्र फिर वहीं आ गया हो। अधिकांश तो साल के अंत में अखबारी स्तंभों में बीते 12 महीनों के सबसे व्यापक विषयों पर ही खोज-खबर होती है। सन 2020 में कोविड-19 और लॉकडाउन के साथ वैश्विक स्तर पर अनुभव मानवता से जुड़े रहे। फिर भी, अगर पीछे मुड़कर देखें तो मुझे लगता है कि स्वास्थ्य, मृत्युदर, नौकरियों का जाना और गरीबी-जैसे स्पष्ट मुद्दों के अलावा जो मैं देखती हूं, वह है जीवन, तड़प और अकेलापन।

2020 ने विरोध प्रदर्शनों में भी एक महत्वपूर्ण उभार देखा है। अगर लंबे लॉकडाउन और वायरस को लेकर सभी जायज चिंताओं को एक तरफ रख दिया जाए तो यह वर्ष ऐसे प्रदर्शनों से भरा रहा है जहां लोग स्वेच्छा से एक-दूसरे को न्याय की मांग के लिए सड़कों पर उतर आने के लिए ऊर्जावान और प्रेरित करते रहे। मैं व्यक्तिगत राय रखूं तो यह वर्ष प्रतिरोध की थीम पर आधारित फिल्मों की दौलत से लबरेज रहा है जिसमें अधिकांश विदेशी फिल्में हैं जो मुझे बिना किसी मेहनत के देखने को मिल गईं। इस वर्ष प्रदर्शित अधिकांश फिल्मों की तरह ये सभी भी ऑनलाइन थीं। और इन्होंने मुझे एक नया नजरिया दिया।

वर्ष का गीत

तो चलो, पहले महत्वपूर्ण विषय पर बात करते हैं। हालांकि इस गीत की हौली-हौली-सी गूंज हम तक 2019 के अंतमें पहुंची लेकिन 2020 में यह पूर्णरूप से गुंजायमान हो गया और हर विरोध-प्रदर्शन में शीर्ष पर बना रहा। मैं तो ‘बेला चाओ’ को बड़े आराम से ‘भारत’ का वार्षिक गीत का वोट दे दूंगी। इस इतालवी लोकगीत का जन्म 19वीं सदी के अंतिम दौर में पूर्वी इटली में धान के खेत मजदूरों के आंदोलन से हुआ। वह आंदोलन काम की कठोर स्थितियों के खिलाफ था और फिर यह लोकगीत फासीवाद विरोधियों का नारा बन गया। बाद में इतालवी प्रतिरोध के पक्षधरों ने भी इसे खूब इस्तेमाल किया। तब से आज तक इसके बहुत सारे संस्करण स्क्रीन में और स्क्रीन से इतर उभर कर सामने आए हैं।

यही गीत है जो भारत में विभिन्न विरोध प्रदर्शनों में गाया गया। इनमें सन 2019 के अंतिम दौर में जादवपुर विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के विरोध प्रदर्शन भी शामिल हैं। और स्पेनिश नेटफ्लिक्स धारावाहिक ‘मनी हीस्ट’ से प्रेरित होकर जनवरी, 2020 में गुरुग्राम और मुंबई में ऑक्यूपाई गेटवे के विरोध प्रदर्शन में यह गीत शामिल रहा। अन्य संस्करणों की तरह हमारे ‘बेला चाओ’ ने साहस और शक्ति की बात कही और अधिनायकवाद को आड़े हाथों लिया तथा क्रांति की ज्वाला- इंकलाब की मशाल जलाओ- को बनाए रखा। लेकिन इस संदर्भ में रचनात्मकता और कल्पना में मौलिक अभिव्यक्ति तथा उसकी अपनी शैली का अनोखा मोड़ अभी तक अबाधित है।

प्रतिरोध का काव्य

वास्तव में, संगीत और गीत हमेशा से ही प्रतिरोध की एक मजबूत आवाज रहे हैं। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि जब दिसंबर, 2019 में गीतकार, लेखक, कॉमिक वरुण ग्रोवर ने लिखा था- “हम कागज नहीं दिखाएंगे” (हम एनआरसी के कागजात नहीं दिखाएंगे), और यह इस पूरे वर्ष के दौरान प्रदर्शनों का गीत बन गया। ‘अच्छे दिन ब्लूज’, ‘मैं जुल्म से इनकार करता हूं’ और ‘पहलू खान’ की गाथा कहने वाले आमिर अजीज की जोश से भरी पंक्तियां ‘सब याद रखा जाएगा’ के प्रशंसक केवल भारत के प्रदर्शन स्थलों में ही नहीं थे बल्कि विदेशों में भी थे जिनमें सुपरस्टार रॉजर वॉटर्स भी शामिल हैं। रॉक आइकन और पिंक फ्लॉयड के सह-संस्थापक ने फरवरी में लंदन के विरोध प्रदर्शन में इसी में से चंद लाइनें पढ़ीं। देशभर की बहुत सारी रैलियों में नए कवियों की धूम थी, जैसे- राहुल राजखोवा, सुमित सपरा, इकरा खिलजी, अभिनव नागर और बॉलीवुड के गीतकार तथा लेखक पुनित शर्मा एवं हुसैन हैदरी। इसके अलावा हमारे पुराने आइकन राहत इंदौरी, दुष्यंत, फैज अहमद फैज को और उनके काम को युवाओं के बढ़ते मार्चके साथ नई प्रासंगिकता और नया अर्थ मिला।

बॉलीवुड की भागीदारी

अगर युवाओं ने मोर्चा लिया था तो क्या उनके आदर्श पीछे रह सकते थे? बेशक ‘बॉलीवुड रॉयल्टी’ वहां नजर नहीं आई लेकिन अन्य बहुत सारी फिल्मी हस्तियों ने काफी जगह मोर्चा संभाला। मुंबई में अगस्त क्रांति मैदान और कार्टर रोड बांद्रा में सीएए/एनआरसी के खिलाफ हुए विरोध प्रदर्शनों में सिने कलाकार सयानी गुप्ता, सुशांतसिंह, मुहम्मद जीशान अयूब, ऋचा चड्ढा, हुमा कुरैशी, स्वरा भास्कर, दिया मिर्जा, कोंकणा सेन शर्मा, तापसी पन्नू और फिल्मकार अनुराग कश्यप, सुधीर मिश्र, अनुभव सिन्हा, हंसल मेहता, विक्रमादित्य मोटवानी, रीमा कागती, जोया एवं फरहान अख्तर शामिलहुए। आमतौर पर सत्ता प्रतिष्ठान से दो-दो हाथ करने से बचने वाला बॉलीवुड इस बार बहुतमुखर था, खासतौर से युवा कलाकार और इनमें भी महिलाएं बहुत आगे थीं।

इस वर्ष जनवरी में जेएनयू परिसर में छात्र-छात्राओं तथा फैकल्टी के खिलाफ हुई हिंसा के विरोध में अभिनेत्री दीपिका पादुकोण ने उनके साथ अपनी एकजुटता दिखाई। वह जेएनयू छात्र संघ की घायल अध्यक्ष आयशी घोष से भी मिलीं। बॉलीवुड को आगे बहुत सारे मोर्चों पर लड़ाई लड़नी थी। फिल्म इंडस्ट्री लॉकडाउन के कारण पूरी तरह बंद थी और बहुत विशाल आर्थिक नुकसान मंडरा रहे थे। और सबसे ज्यादा भद्दा काम प्राइम टाइम अभियान के तहत चल रहा था जहां सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या से हुई मौत के मामले को लेकर कीचड़ उछाला जा रहा था। यह बहुत ही दुर्लभ वाकया था जब बॉलीवुड एक कानूनी पहल कदमी के लिए एकजुट हुआ और उसने पलटवार करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय में ‘रिपब्लिक टीवी’ और ‘टाइम्सनाउ’ पर बॉलीवुड के खिलाफ गैर जिम्मेदाराना तथा अपमानजनक टिप्पणियां करने के लिए सीविल डिफेमेशन का मामला दायर किया। हाल के समय में देखा गया यह अपने आप में प्रतिरोध का एक अहम वाकया था।

ऐसे घोर मुश्किल समय में भी कुछ बहादुर और असरदार फिल्में अपनी पूरी ताकीद के साथ हम तक पहुंच पाई हैं। लॉकडाउन से पहले हमने थियेटर में लेड्जली की फिल्म‘ले मिजरेबल्स’ देखी थी जो फ्रांस में वर्ग संघर्ष का एक जीवंत ब्यौरा है। सामाजिक असमानता पर जितनी मनहूसियत बोंग जू हो की बहुत सारे ऑस्कर जीतने वाली ‘पैरासाइट’ में नजर आई, उससे भी ज्यादा स्याह पक्ष मिशेल फ्रैंको की मैक्सिन फिल्म ‘न्यूऑर्डर’ में देखने को मिली जिसने इस वर्ष वेनिस फिल्म समारोह में ग्रैंडज्यूरी पुरस्कार जीता। इस वर्ष लेसोथो की ऑस्कर के लिए नामित फिल्म ‘दिस इज नॉटअ बरिअल, इटइज अ रेजरेक्शन’ में एक 80 वर्ष की महिला अपने अंतिम संस्कार की तैयारियों से समय निकालकर अपनी मातृ भूमि में बनने वाले बांध के विरोध में शामिल होने पहुंच जाती है। इस बांध के कारण स्थानीय लोगों का जबरन पुनर्वास किया जा रहा था।

काबिले तारीफ फिल्में

इस वर्ष पाकिस्तान से ऑस्कर के लिए भेजी गई सरमद की फिल्म ‘जिंदगी तमाशा’ भी प्रतिरोध करते एक बुजुर्ग नागरिक पर आधारित है, बस विरोध का तरीका अलग है। बोलिवियाई फिल्म‘द नेम्स ऑफ द फ्लावर्स’ एक काव्यात्मक और रूपक अलंकारों से भरी हुई प्रतिरोध की एक आत्मा है। सीरियाई थ्रिलर फिल्म‘द ट्रांसलेटर’ जिसे तेलिन ब्लैक नाइट्स फेस्टिवल में भी दिखाया गया था। इसमें एक राजनीतिक शरणार्थी अपने खोए हुए भाई की खोज में अपने घर लौटता है। दिग्गज फिल्मकार आंद्रेई कोन चलोवस्की की रूसी फिल्म ‘डियर कॉमरेड्स’ सबसे शक्तिशाली और प्रासंगिक है। इसने वेनिस फिल्म फेस्टिवल में स्पेशल ज्यूरी का पुरस्कार जीता और इस वर्ष यह विदेशी भाषा के वर्ग में रूस की तरफ से नामित फिल्म है। यह एक ऐसे शहर की पृष्ठ भूमि में गढ़ी गई है जहां कामगार मौलिक अधिकारों के इनकार पर हड़ताल पर बैठे हैं। राज्य हड़ताल का दमन करता है जिसके कारण हिंसा, कर्फ्यू और गिरफ्तारियों की स्थितियां पैदा हो जाती हैं।

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