मोदी सरकार में अमीर और अमीर हो रहे और गरीबों की संख्या बढ़ रही है, जनता लोकतंत्र के भ्रम में है

पूंजीवादी व्यवस्था जनता को कुचलकर आगे बढ़ती है, जनता के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करती है। ऐसी व्यवस्था चरमपंथी और दक्षिणपंथियों की विचारधारा से मेल खाती है। इसीलिए अरबपतियों को कठपुतली सरकार की जरूरत पड़ती है। विडंबना यह है कि लोकतंत्र अभी तक भ्रम में है।

फोटोः सोशल मीडिया
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महेन्द्र पांडे

हमारे प्रधानमंत्री समय और परिस्थिति के हिसाब से आंकड़े और वक्तव्य इस हद तक बदलते हैं कि एक जगह कहे गए तथ्य के ठीक विपरीत दूसरी जगह कह जाते हैं। 'इज ऑफ़ डूइंग बिज़नस' यानि पूंजीपतियों का विकास तो बार-बार सुनने को मिलता है, और यह प्रधानमंत्री के साथ ही पूरी सत्ता का बुनियादी उद्देश्य भी है। आखिर पार्टी चलाने के लिए चंदा भी तो चाहिए।

पर, ग्लासगो में आयोजित जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि को रोकने से संबंधित वैश्विक अधिवेशन में भाषण देते समय प्रधानमंत्री ने 'इज ऑफ़ लिविंग' की चर्चा की थी। इसका मतलब, जीवन को सुगम करना, यानि जनता का विकास समझा जा सकता है। इसकी दुनिया में चर्चा भी की गयी, पर लगभग ढाई महीने बाद ही वर्ल्ड इकोनॉमिक्स फोरम के दावोस एजेंडा 2022 को संबोधित करते हुए हमारे प्रधानमंत्री फिर से पूंजीपतियों के विकास, यानि “इज ऑफ़ डूइंग बिज़नस” पर वापस लौट आए।

दरअसल “इज ऑफ़ डूइंग बिज़नस” और “इज ऑफ़ लिविंग” का मतलब बिलकुल विपरीत है। एक में उद्योगपतियों का साथ और विकास है, जबकि दूसरे में पूरी आबादी के जीवन स्तर को सुधारने का आश्वासन है। पिछले अनेक दशकों से सरकारें उन्मुक्त अर्थव्यवस्था के नाम पर केवल पूंजीपतियों को बढ़ावा देने में जुटी हैं, हालांकि हमारे देश में वर्ष 2014 के बाद से इसका पैमाना बहुत बढ़ गया है।

इसका नतीजा भी स्पष्ट है, अमीर लगातार पहले से अधिक अमीर होते जा रहे हैं, और देश की आबादी भूख और बेरोजगारी की तरफ बढ़ती जा रही है। इस सरकार के बाद से देश के प्राकृतिक संसाधनों से जनता को बेदखल कर इसे पूंजीपतियों के हाथ में दिया जा रहा है। अब तो हालत यहां तक पहुंच गए हैं कि हरेक आपदा पूंजीपतियों की दौलत बेइन्तहां बढाने लगी है और जनता को पहले से अधिक गरीब कर जाती है। सरकारें सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम पूंजीपतियों को तोहफे के तौर पर देती है, जबकि जनता के हिस्से 5 किलो अनाज आता है।


चर्चित गैर-सरकारी संस्था, ऑक्सफैम (Oxfam) ने दावोस एजेंडा से ठीक पहले 'इनइक्वलिटी किल्स- इंडिया सप्लीमेंट 2022' के नाम से एक पुस्तिका प्रकाशित की है। इसके अनुसार कोविड 19 के कारण देश के 84 प्रतिशत परिवारों की सम्मिलित आय में कमी आई, पर इसी दौरान देश में अरबपतियों की संख्या 102 से बढ़कर 142 पहुंच गई। यदि देश के महज 96 सबसे अमीर लोगों पर 1 प्रतिशत का अतिरिक्त टैक्स लगा दिया जाए तो इससे पूरे आयुष्मान भारत पर होने वाले खर्च की भरपाई की जा सकती है।

वर्ष 2021 में देश के सबसे अमीर 100 लोगों की कुल संपत्ति 57.3 लाख करोड़ रुपये थी। कोविड के दौर में मार्च 2020 से नवम्बर 2021 के बीच इन पूंजीपतियों की कुल संपत्ति 23.14 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 53.16 लाख करोड़ तक पहुंच गयी। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार इसी दौरान देश के 4.6 करोड़ परिवार अत्यधिक गरीबी में पहुंच गए और यह संख्या दुनिया के कुल सबसे गरीब आबादी की संख्या की लगभग आधी है। इसी रिपोर्ट के अनुसार देश की 10 प्रतिशत सर्वाधिक अमीर आबादी पर 1 प्रतिशत का अतिरिक्त टैक्स लगाकर देश के शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की समस्या को मिटाया जा सकता है।

ऑक्सफैम की एक दूसरी रिपोर्ट के अनुसार केवल कोविड के दौर में एशिया में 20 बिलकुल नए अरबपति सामने आए। रिपोर्ट में इन्हें महामारी पूंजीपति कहा गया है क्योंकि महामारी के दौर में इनके अमीर बनने का कारण सुरक्षा उपकरण बनाने, औषधि या जांच किट तैयार करने या फिर सर्विस सेक्टर का मजबूत होना है। इसी दौरान एशिया में 14 करोड़ से अधिक आबादी बेरोजगारी के कारण गरीबों की श्रेणी में पहुंच गई। इन नए अरबपतियों का उदय चीन, भारत, हांगकांग और जापान में हुआ है।

मार्च 2020 से नवम्बर 2021 के बीच एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अरबपतियों की संख्या 803 से बढ़कर 1087 तक पहुंच गई और इनकी सम्मिलित संपत्ति में 74 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज की गयी। इस पूरे क्षेत्र की सर्वाधिक अमीर 1 प्रतिशत आबादी के पास जितनी संपत्ति है, उतनी सर्वाधिक गरीब 90 प्रतिशत आबादी के पास भी नहीं है। ऑक्सफैम एशिया के मुस्तफा तालपुर के अनुसार आंकड़ों से स्पष्ट है कि कोविड काल में पूरे एशिया-प्रशांत क्षेत्र में असमानता बढ़ी है और महामारी के दौरान सरकारी नीतियों का फायदा गरीबों तक नहीं पहुंचा और गरीबों का हक़ अमीरों के हिस्से में पहुंच गया।


अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार वर्ष 2020 के दौरान दुनिया भर में 8 करोड़ से अधिक रोजगार छीन गए और कार्य अवधि में कटौती के कारण इसके अतिरिक्त 2.5 करोड़ रोजगार में वेतन में कटौती कर दी गयी। इसी वर्ष एशिया-प्रशांत क्षेत्र के अरबपतियों की संपत्ति में 1.4 ख़रब डॉलर की वृद्धि दर्ज की गयी- इस वृद्धि से क्षेत्र के सभी बेरोजगारों को 10000 डॉलर का वेतन दिया जा सकता है।

कोविड 19 का असर एशिया के देशों पर भयावह था और इस क्षेत्र में 10 लाख से अधिक व्यक्तियों की मृत्यु हुई। तालाबंदी के कारण बहुत से लोग रोजगार से बाहर कर दिए गए, असंगठित क्षेत्र का सारा कामकाज लम्बे समय के लिए ठप्प रहा। इन सब कारणों से गरीबी बढ़ी और संभव है कि कोविड की तुलना में भूखमरी से अधिक मौतें होने लगी हों।

सबसे अधिक प्रभावित महिलाएं रहीं- इनसे रोजगार के अवसर छीने, घरों पर काम का बोझ पड़ा, हिंसा का शिकार होती रहीं, शिक्षा प्रभावित हो गयी। दूसरी तरफ इस पूरे क्षेत्र में 70 प्रतिशत स्वास्थ्य कर्मी और 80 प्रतिशत से अधिक नर्सें महिलाएं हैं- जिन्होंने कोविड19 का सबसे आगे रहकर मुकाबला किया और भारी संख्या में संक्रमित भी हुईं और इनकी मौत भी होती रही।

पूंजीवाद के शुरुआती दौर में कहा जाता था कि इससे उद्योगपतियों को फायदा होगा, फिर यह फायदा श्रमिकों तक पहुंचेगा और फिर समाज तक- यानि पूंजीवाद का फायदा समाज के हर वर्ग तक पहुंचेगा और फिर धीरे-धीरे पूरा समाज समृद्ध होता जाएगा। पर, अब यह भ्रम लगातार टूटता जा रहा है और स्पष्ट हो रहा है कि पूंजीवाद से केवल चन्द लोगों को फायदा होता है और शेष आबादी लगातार गरीब होती जाती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण किसी भी वैश्विक आपदा के दौरान दुनिया के चुनिन्दा अरबपतियों की संपत्ति में अप्रत्याशित वृद्धि और शेष आबादी में भयानक गरीबी का पनपना है।


विश्व बैंक की वैश्विक गरीबी से संबंधित 2020 के अंत में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इस वर्ष युद्ध, गृहयुद्ध, जलवायु परिवर्तन और कोविड-19 के सम्मिलित प्रभाव के कारण गरीबी उन्मूलन के लिए पिछले दो दशकों के कार्यों का प्रभाव समाप्त हो चुका है, यानि गरीबी उन्मूलन के सन्दर्भ में दुनिया दो दशक पीछे पहुंच गई है। इस वर्ष के आरम्भ में दुनिया की 9.1 प्रतिशत आबादी बेहद गरीब थी, यह संख्या अगले वर्ष तक बढ़कर 9.4 प्रतिशत तक पहुंच जाएगी।

विश्व बैंक के अनुसार बेहद गरीब आबादी वह है, जहां प्रति व्यक्ति दैनिक आय 1.9 डॉलर से भी कम है। पिछले पांच वर्षों से वैसे भी दुनिया में बेहद गरीबी उन्मूलन की दर पहले से कम हो चुकी थी। वर्ष 1990 से 2015 तक हरेक वर्ष दुनिया में बेहद गरीब आबादी 1 प्रतिशत घटती रही, पर इसके बाद के वर्षों में यह दर प्रतिवर्ष 0.7 प्रतिशत से आगे नहीं बढ़ पाई।

हाई पे सेंटर नामक संस्था के निदेशक ल्युक हिल्यार्ड के अनुसार दुनिया की पूरी पूंजी का चन्द लोगों में सिमट जाना नैतिक तौर पर तो सही नहीं ही है, बल्कि यह अर्थव्यवस्था और समाज के लिए भी घातक है। यह पूंजीवाद की असफलता भी दर्शाता है। ल्युक हिल्यार्ड पिछले कुछ वर्षों से लगातार बताते रहे हैं कि पूंजीवाद ने समाज में इस कदर आर्थिक और सामाजिक असमानता पैदा कर दी है कि अब कभी भी पूंजीपतियों के विरुद्ध आन्दोलन हो सकते हैं, हिंसा हो सकती है या फिर समाज से उनका बहिष्कार भी किया जा सकता है।

अरबपतियों की पूंजी हरेक देश में बढ़ रही है। राहुल गांधी ने बार-बार कहा है कि मोदी सरकार अडानी-अंबानी के हाथों की कठपुतली है। भले ही, इस वक्तव्य पर मीडिया और सोशल मीडिया ने ध्यान नहीं दिया हो, पर राहुल गांधी का यह बयान देश और दुनिया की स्थिति का सटीक आकलन है और हरेक समय आंकड़े और सरकारों की गतिविधियां इसकी पुष्टि करते रहते हैं।


विश्व बैंक के अनुसार वर्ष 2015 के बाद से दुनिया में गरीबी उन्मूलन की रफ्तार कम हो गई है। दुनिया की राजनीति पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि वर्ष 2014 के बाद से भारत समेत दुनिया के अधिकतर देशों में चरमपंथी दक्षिणपंथियों की सरकारें सत्ता में पहुंच गईं। यह सब अनायास नहीं हुआ है, बल्कि मीडिया, सोशल मीडिया, चरमपंथी और दक्षिणपंथी विचारों वाले लोगों की सोची-समझी रणनीति है। ये सभी एक दूसरे से जुड़े हैं क्योंकि जनता की लूट इनका पहला और आख़िरी एजेंडा होता है।

मोदी जी नमस्ते ट्रम्प का आयोजन या फिर अबकी बार ट्रम्प सरकार का नारा दरअसल ट्रम्प के लिए नहीं लगाते बल्कि दक्षिणपंथी विचारधारा के समर्थन में लगाते हैं। ब्राज़ील के राष्ट्रपति बोल्सेनारो हमारे गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि इसलिए नहीं बनते कि वे महान हैं, बल्कि इसलिए बनते हैं कि वे जनता के शोषण में माहिर हैं। चीन के नेताओं से बात करने भारतीय नेता बार-बार रूस में पुतिन की शरण में इसलिए नहीं पहुंचते कि वे अच्छे मध्यस्थ हैं, बल्कि पुतिन जनता को कुचलते हैं और विरोधियों को जहर देकर मारते हैं।

पूंजीवादी व्यवस्था भी जनता को कुचलकर आगे बढ़ती है, जनता के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करती है- जाहिर है ऐसी व्यवस्था चरमपंथी और दक्षिणपंथियों की विचारधारा से मेल खाती है। इसीलिए अरबपतियों को कठपुतली सरकार की जरूरत पड़ती है। विडम्बना यह है कि लोकतंत्र अभी तक भ्रम में है- जहां जनता समझती है कि सरकार उसने चुनी है और सरकार समझती है कि वह स्वतंत्र है।

आर्थिक वृद्धि का आकलन करने वाली संस्था क्रेडिट सुइस के अनुसार वर्ष 2025 तक एशिया-प्रशांत क्षेत्र में 1.53 करोड़ व्यक्तियों की संपत्ति दस लाख डॉलर से अधिक होगी, 42000 नए अमीरों की संपत्ति 5 करोड़ डॉलर से अधिक होगी, जबकि 99000 अरबपति होंगे। इन सारे आंकड़ों से इतना तो स्पष्ट है कि जिस खुली अर्थव्यवस्था की हम बात करते हैं और सरकारें जिस पर भरोसा करती हैं उससे लाभ किसे होता है। प्रधानमंत्री मोदी के 'इज ऑफ डूइंग बिज़नस' से गरीबों की दौलत डकार कर अमीर और अमीर होते जा रहे हैं।

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