शिक्षा का अधिकार कानूनः गरीब बच्चों की मुफ्त शिक्षा का सच, यूपी में निजी स्कूलों का खुला उल्लंघन

शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत गरीब और कमजोर वर्ग के बच्चों को दाखिला नहीं देने वाले स्कूलों का दुस्साहस इतना बढ़ गया है कि उन्होंने अपना संगठन बना कर सुप्रीम कोर्ट में इस कानून को चुनौती दे दी है।

फोटोः सोशल मीडिया
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संदीप पाण्डेय

उत्तर प्रदेश में शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 को लागू हुए ये चौथा साल है। इस अधिनियम के तहत गैर वित्त पोषित या निजी विद्यालयों में कक्षा 1 से 8 तक में गरीब और कमजोर वर्ग के कम से कम 25 प्रतिशत बच्चों को मुफ्त दाखिले का प्रावधान है। इस प्रावधान के तहत पूरे उत्तर प्रदेश में साल 2015-16 में 3,135, साल 2016-17 में 17,136 और साल 2017-18 में 27,662 दाखिले हुए। लेकिन बेसिक शिक्षा अधिकारी या जिलाधिकारी के आदेशों के बावजूद लखनऊ के सिटी मांटेसरी स्कूल, नवयुग रेडिएंस, सिटी इंटरनेशनल, सेंट मेरी इंटरमीडिएट कॉलेज, लखनऊ माॅडल पब्लिक स्कूल, कानपुर के विरेंद्र स्वरूप और चिंटल पब्लिक स्कूल और अलीगढ़ के ब्लू बर्ड स्कूल तथा नेहरू चिल्ड्रेंस जूनियर हाई स्कूल जैसे प्रदेश के कई बड़े विद्यालय कमजोर वर्ग के एक भी बच्चे का दाखिला नहीं ले रहे हैं।

शिक्षा अधिकार अधिनियम का उल्लंघन करने वाले ऐसे विद्यालयों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होने के कारण उनका दुस्साहस इतना बढ़ गया है कि उन्होंने अपना संगठन बना कर सर्वोच्च न्यायालय में इस कानून को ही चुनौती दे दी है। संगठन ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एक रैली आयोजित कर कानून को खारिज करने की मांग की है। उनका तर्क है कि सरकार द्वारा उत्तर प्रदेश में दी जाने वाली 450 रु प्रति माह की शुल्क प्रतिपूर्ति राशि बहुत कम है और इसे तय करने का कोई तार्किक आधार नहीं है। लेकिन कुल मिलाकर सच्चाई ये है कि निजी स्कूलों को ये बात बिल्कुल बर्दाश्त नहीं है कि उनके द्वारा निरंकुश तरीके से चलाए जा रहे विद्यालयों में शिक्षा के अधिकार कानून के माध्यम से किसी किस्म का सरकारी हस्तक्षेप हो।

निजी विद्यालय नैतिक रूप से बेहद कमजोर आधार भूमि पर खड़े हैं। उनके द्वारा लिए जाने वाले शुल्क का कोई भी तार्किक आधार नहीं है। मनमाने शुल्क के अलावा वे विभिन्न तरीकों से और भी कमाई करते हैं, जैसे कॉपी-किताब और ड्रेस की खरीद के लिए अपनी दूकानें तय करना।

शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत आॅनलाइन आवेदन की व्यवस्था का यह दूसरा साल है। लेकिन अब तक 82,388 में से केवल 20,427 विद्यालयों को ही वेबसाइट पर दर्शाया गया है, क्योंकि उनके निर्दारण की प्रक्रिया अब तक पूरी नहीं हुई है। ऐसे में जो अभिभावक अपने बच्चों का इस कानून के तहत दाखिला कराना चाहते हैं, उन्हें 75 प्रतिशत विद्यालय तो उपलब्ध ही नहीं हैं।

लखनऊ में आरडी मेमोरियल इंटरमीडिएट काॅलेज और सिद्धार्थ ग्लोबल स्कूल जैसे विद्यालय, जिनके यहां पिछलेे साल मुफ्त शिक्षा के प्रावधान के तहत दाखिले हुए थे, इस बार उनके नाम वेबसाइट से गायब हैं। वाराणसी के सबसे बड़े विद्यालय सनबीम का नाम भी गायब है। वाराणसी के कुछ वार्डों के नाम ही वेबसाइट पर नहीं हैं। यानी इन वार्डों में रहने वाले अभिभावकों के बच्चे शिक्षा का अधिकार अधिनियम की धारा 12 (1) (ग) का लाभ उठाने से वंचित हो गए हैं, क्योंकि बच्चे का दाखिला पड़ोस के ही किसी विद्यालय में कराया जा सकता है और इस वर्ष उत्तर प्रदेश सरकार ने पड़ोस को वार्ड के रूप में ही परिभाषित किया है। पहले चरण की लाॅटरी में प्रदेश के 75 में से मात्र 48 जिलों ने ही उन बच्चों की सूची निकाली जो इस कानून के तहत दाखिले के लिए चुने गए थे। वाराणसी में पहले चरण में 2597 आवेदनों को जांच नहीं होने के कारण छोड़ दिया गया। यह साफ बताता है कि सरकार बिना पूरी तैयारी के आॅनलाइन दाखिले के लिए फार्म भरवा रही है। ऐसे में सरकार द्वारा इच्छाशक्ति के अभाव में सिर्फ औपचारिकता पूरी करने का क्या औचित्य है?

जिन विद्यालयों का चिन्हीकरण हुआ है, वह भी ठीक से नहीं किया गया है। लखनऊ के राजा बाजार चौक की निवासी रूबी बानो ने जब अपने बेटे सैय्यद अल्तमश अली का आॅनलाइन फाॅर्म भरा तो उन्हें फातिमा गर्ल्स जूनियर हाई स्कूल आवंटित हुआ जो वेबसाइट पर तो उनके वार्ड में दिखाया जा रहा है, लेकिन असल में महानगर वार्ड में है, जो उनके ’पड़ोस’ में नहीं है, जो अधिनियम के अनुसार जरूरी है। उनके लिए यह संभव नहीं कि एक दूसरा बच्चा गोद में होते हुए वह पहले बच्चे को इतना दूर पढ़ने भेजें।

दाखिले के लिए बेसिक शिक्षा अधिकारी के कार्यालय द्वारा जो लाॅटरी निकाली जा रही है उस पर भी सवाल खड़े होते हैं। जब अधिनियम के अनुसार कम से कम 25 प्रतिशत बच्चों के दाखिले की बात है और सरकार जब शुल्क की प्रतिपूर्ति कर रही है तो विद्यालयों को 25 प्रतिशत से ज्यादा बच्चों का भी दाखिला लेना चाहिए। यदि कक्षा में कुल बच्चों की निर्धारित संख्या से ज्यादा आवेदन आ जाते हैं तो पड़ोस के सबसे नजदीक विद्यालय में दाखिला होना चाहिए। लेकिन इतने ज्यादा दाखिला अभी तक किसी विद्यालय में नहीं हुए हैं।

पिछले वर्षों में जिन बच्चों का दाखिला शिक्षा का अधिकार अधिनियम की धारा 12(1)(ग) के तहत हो गया था, उनके लिए भी राह आसान नहीं है। अंश कुमार का दाखिला लखनऊ के यूनिवर्सल मांटेसरी स्कूल और गर्ल्स इंटर काॅलेज में दो वर्ष पहले हुआ था। पिछले साल नर्सरी कक्षा में उसके 31.93 प्रतिशत अंक आए, लेकिन उसे प्रोन्नत कर दिया गया। इस साल किंडरगार्टन में उसके 17.77 प्रतिशत अंक आए और उसे असफल घोषित कर वि़द्यालय से निष्कासित कर दिया गया है। जबकि अधिनियम की धारा 16 के तहत बच्चे को किसी कक्षा में रोका नहीं जा सकता और न ही निष्कासित किया जा सकता है। 2017-18 में तीन बार उसके माता-पिता से 250-350 रुपये परीक्षा शुल्क के नाम पर ले लिए गए, जबकि अधिनियम का पूरा नाम मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम है।

यही नहीं एक दिन अंश को उसके एक अध्यापक ने कक्षा में थप्पड़ मारा, जबकि अधिनियम की धारा 17 के तहत बच्चे को किसी भी किस्म का शारीरिक दंड नहीं दिया जा सकता। हद तो उस दिन हो गई जब अंश को कक्षा में शौच हो गया और उसकी मां जमना देवी निषाद को घर से बुलाकर उसका शौच साफ कराया गया। सवाल यह उठता है कि अगर शुल्क देकर पढ़ने वाले किसी बच्चे ने शौच किया होता तो क्या उसके घर से भी उसकी मां को सफाई करने के लिए बुलाया जाता? जाहिर है कि निषाद परिवार की गरीबी के कारण उसके साथ भेदभाव किया गया और उसे सार्वजनिक अपमान झेलना पड़ा, जबकि अधिनियम की धारा 17 के तहत बच्चे को मानसिक रूप से प्रताड़ित नहीं किया जा सकता।

लखनऊ का एक स्कूल, ब्लूमिंग फ्लावर जूनियर हाई स्कूल भी पिछले शैक्षणिक सत्र का अंक पत्र देेने के लिए प्रति छात्र 200 रुपये मांग रहा है। पिछले साल शिक्षा के अधिकार अधिनियम की धारा 12(1)(ग) के तहत इस विद्यालय में मोहम्मद आशिक की लड़की मुस्कान और लड़के रेहान का दाखिला कक्षा केजी और 1 में हुआ था। विद्यालय के बाहर अभिभावकों का एक दिन प्रदर्शन हो जाने के बाद अब विद्यालय पैसे तो नहीं मांग रहा, लेकिन अंक पत्र भी नहीं दे रहा है।

हालांकि, वाल्मीकि बिरादरी के तीन छात्र संजय, मनीष और कमल का दाखिला धारा 12(1)(ग) के तहत सेठ एमआर जयपुरिया स्कूल में तो नहीं हुआ। लेकिन इसी समूह के स्कूल ’नवसृजन’ में सात वर्ष की पढ़ाई के बाद उनको कम उपस्थिति और कम अंक प्राप्त करने के कारण निकालने की कोशिश हुई और यह सलाह दी गई कि वे किसी हिंदी माध्यम विद्यालय में नाम लिखा लें, जो छात्रों को अधिनियम की घारा 16 के तहत प्राप्त अधिकार का उल्लंघन था। बातचीत के बाद विद्यालय ने फिलहाल तीनों छात्रों को वापस ले लिया है। कई अभिभावक अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से ही पढ़ाना चाहते हैं। उत्तर प्रदेश की बीजेपी सरकार जो सार्वजनिक रूप से तो संस्कृत प्रेमी है, ने अभी 5,000 अंग्रेजी माध्यम विद्यालय संचालित करने का निर्णय लिया है।

लखनऊ के ही लॉर्ड मेहर स्कूल में पिछले साल शिवांशु और शुभम शर्मा का दाखिला अधिनियम की धारा 12(1)(ग) के तहत लिया गया था, लेकिन इस साल उन्हें विद्यालय से निष्कासित कर दिया गया, जो अधिनियम की धारा 16 का उल्लंघन है। हालांकि अखबारों में इस खबर के छपने के बाद फिलहाल उसने बच्चों को वापस ले लिया है।

शिक्षा का अधिकार अधिनियम की धारा 12(1)(ग) के तहत दाखिले के आदेश के बावजूद दाखिले नहीं हो पा रहे हैं और कार्यपालिका व न्यायपालिका कुछ नहीं कर पा रही हैं। अधिकारी कहते हैं कि अधिनियम में दंड का प्रावधान नहीं है इसलिए वे लाचार हैं। विद्यालयों के मनमाने निरंकुश व्यवहार और व्यवस्था की निष्क्रियता के कारण अधिनियम लावारिस हो गया है जिसे कोई अपनाने को तैयार नहीं है।

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