विरोध का अधिकार तो बुनियादी है, लेकिन इसके लिए भी पुलिस और सरकार से अनुमति लेना क्यों जरूरी है !

कभी जंतर-मंतर जाकर देखो, दिल्ली के एकदम केंद्र में है, वहां दर्जनों विरोध प्रदर्शन के बैनर आदि दिख जाएंगे, इनमें से कुछ तो बरसों से जारी हैं। ये लोग किस बात के लिए विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, इसकी परवाह तक कोई नहीं कर रहा। सरकार तो बिल्कुल भी नहीं।

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आकार पटेल

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने उदारतापूर्वक नागरिकों को "निर्दिष्ट क्षेत्र में" यानी सिर्फ तय जगहों पर ही विरोध करने का अधिकार दिया है। कोर्ट ने अपना फैसला देते हुए नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के खिलाफ शाहीन बाग में हुए धरने की आलोचना करते हुए यह बात कही थी। कोर्ट की टिप्पणी थी कि "असहमति और लोकतंत्र साथ-साथ चलते हैं, लेकिन विरोध निर्दिष्ट क्षेत्र में ही किया जाना चाहिए। विरोध के तौर पर जो धरना प्रदर्शन आदि शुरू हुआ, उससे लोगों को असुविधा का सामना करना पड़ा। शाहीन बाग में ऐसा ही देखा गया।"

बहुत से पाठकों को नहीं पता होगा कि निर्दिष्ट क्षेत्र क्या होता है। सिविल सोसायटी संगठनों के साथ काम शुरु करने से पहले मुझे भी नहीं पता था कि यह क्षेत्र क्या होता है। इसका अर्थ होता है कि शहर के कुछ हिस्सों को प्रदर्शन आदि के लिए तय कर दिया जाता है, जैसे कि दिल्ली में जंतर-मंतर और बेंग्लुरु में फ्रीडम पार्क आदि। इन जगहों पर लोगों को एक निश्चित समय के लिए जमा होने की अनुमति होती है और फिर वहां से चले जाना होता है। इन जगहों पर भी प्रदर्शन आदि के लिए नागरिकों को पहले से पुलिस और सरकार आदि से अनुमति लेनी होती है।

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पाठकों ने यूरोप और अमेरिका में देखा होगा कि लोगों के छोटे समूह अचानक ही काम की जगहों या कॉर्पोरेट दफ्तरों आदि के पास हाथों में प्लेकार्ड लिए जमा होते हैं और नारेबाजी आदि करते हैं। भारत में यह करना गैरकानूनी है।

संविधान का अनुच्छेद 19 कहता है, “सभी नागरिकों को शांतिपूर्ण तरीके से बिना हथियारों के कभी एकत्रित होने का अधिकार है।” संविधान कहता है कि लोगों का शांतिपूर्ण तरीके से जमा होना बुनियादी अधिकार है। बुनियादी अधिकार वह होता है जिस पर सरकारी अंकुश नहीं लगाया जा सकता यानी सरकारी जोर जबरदस्ती नहीं थोपी जा सकती।

लेकिन हमें ऐसा कोई अधिकार नहीं है। हमारे पास बुनियादी अधिकार है कि हम किसी निश्चित जगह पर जमा होने के लिए भी पुलिस की अनुमति के लिए आवेदन करें। पुलिस के पास यह अधिकार है कि वह इस आवेदन को मंजूर करे या खारिज कर दे, या इसका कोई संज्ञान ही न ले। आमतौर पर आखिरी विकल्प ही पुलिस अपनाती है, ऐसा में निजी अनुभव के आधार पर कह रहा हूं। हो सकता है कि माननीय सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को ये सब पता न हो। लेकिन ऐसा होना शायद संभव नहीं है कि उन्होंने कभी किसी विरोध प्रदर्शन में हिस्सा न लिया हो या उनके पास इसमें हिस्सा लेने का कारण न हो।


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पाठकों को यह जानना भी रुचिकर होगा कि न्यायपालिका ने अनुच्छेद 21 को भी संपादित कर दिया है। इस अनुच्छेद के तहत नागरिकों को जीवन जीने और हर किस्म की स्वतंत्रता का अधिकार मिलता है। इसकी पुष्टि तो कश्मीरियों की याचिकारों की लगातार अनदेशी से होती है। अभी कुछ दिन पहले बीबीसी ने इस बात का खुलासा किया था कि किस तरह कश्मीर के उप राज्यपाल ने कहा था कि मीरवाइज़ उमर फारुक को हिरासत में नहीं लिया गया है, जबकि यह साबित हो गया था कि उन्हें हिरासत में लिया गया था। निश्चित ही कश्मीरियों को विरोध का अधिकार नहीं है।

देश के बाकी हिस्सों में विरोध के लिए निर्दिष्ट स्थानों को सरकार ने ऐसी जगहों को बनाया है जिन्हें आसानी से अनदेखा किया जा सके। कभी जंतर-मंतर का चक्कर लगाकर आओ, दिल्ली के एकदम केंद्र में है, वहां दर्जनों विरोध प्रदर्शन के बैनर आदि दिख जाएंगे, इनमें से कुछ तो बरसों से जारी हैं। ये लोग किस बात के लिए विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, इसकी परवाह तक कोई नहीं कर रहा। सरकार तो बिल्कुल भी नहीं।

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विरोध प्रदर्शनों को सरकार, और खासतौर से बुनियादी अधिकारों की मांग के लिए किए जाने वाले प्रदर्शनों को तो सरकार एक गड़बड़ या उपद्रव के रूप में देखती है, जो कागजों पर तो हो जाए लेकिन सरकार के खिलाफ कुछ न हो। बेहद शांतिपूर्ण और गांधीवादी तरीके से किए गए विरोध प्रदर्शन को भी आज का भारत सहन नहीं करता है। इससे ज्यादा आदर्शवादी बात और क्या हो सकती है कि नागरिक गांधीवादी तरीके से विरोध करते हैं, जैसा कि गांधी जी आमरण अनशन करते थे।

मणिपुर में एक महिला ने न्याय के लिए यही रास्ता अपनाया था, लेकिन सरकार ने उसे जंजीरों में बांध दिया और उसे जबरदस्ती 10 साल तक नाक में पाइप डालकर खाना देने की कोशिश की गई। जबकि अंग्रेजों तक ने गांधी जी को अनशन करने की इजाजत दी थी। लेकिन इरोम शर्मिला आज देश में कोई हीरो नहीं हैं और न ही उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया है, जबकि अधिकांश देश ऐसा ही करते। सरकार के लिए तो वह एक दुश्मन हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने शाहीन बाग के मामले में क्या माना और क्या आदेश दिया (यह साफ तो नहीं है कि इनमें से क्या है) वह राजनीतिक दलों और किसान आंदोलन जैसे ज्यादा संगठित आंदोलनों या जातीय समूहों पर लागू नहीं होता। वे विरोध प्रदर्शन कर सकते हैं और निर्दिष्ट स्थानों से बाहर भी प्रदर्शन करते हैं, जिसमें बंद और हड़ताल का आह्वान और उसे लागू करवाना, रेल रोको, चक्का जाम आदि शामिल हैं। इन सबको रोकने की क्षमता सरकार के पास है नहीं, इसलिए वह इसे नजरंदाज़ कर देती है। सुप्रीम कोर्ट भी इसे अनदेखा ही कर देता है।


माननीय न्यायाधीश दरअसल चाहते हैं कि महिलाओं के छोटे समूह अपनी विरोध न दिखाएं क्योंकि इससे उनकी संवेदनाएं और कानून के राज की चिंता को ठेस पहुंचती है।

लेकिन अवज्ञा ही तो किसी भी विरोध का असली केंद्र बिंदु होता है। विरोध तभी होता है जब सरकार अपने ही बनाए कानून का पालन नहीं करती है। विरोध तो दरअसल आपत्ति और शिकायत दर्ज कराने का तरीका है। ये तभी होता है जब शिकायतें अनसुनी कर दी जाती हैं। निर्दिष्ट स्थानों पर प्रदर्शन के बाद भी अनसुनी ही रह जाती हैं। अगर सुप्रीम कोर्ट बंदी प्रत्यक्षीकरण के रास्ते को बंद कर देता है, अगर गृह मंत्री लाखों लोगों को घरों में कैद करने और उन्हें नागरिकता के अधिकार से वंचित करने की अपनी मंशा का ऐलान करता है, अगर सरकार इस मामले में सबूत पेश करने की जिम्मेदारी को उलट देती है और चाहती है कि उसकी संतुष्टि के लिए हम ही सबूत पेश करें, तो यह मान लेना तो भूल ही होगी कि कोई विरोध नहीं होगा। और अगर विरोध प्रदर्शन होंगे, तो वे एक निर्दिष्ट क्षेत्र में ही होंगे।

हमारे यहां कोई भी विरोध प्रदर्शन तब तक प्रभावी नहीं माना जाता जब तक उसका असर न दिखे, यानी लोगों को असुविधा न हो आदि। इसके अलावा सरकार को भी इससे झुंझलाहट होनी चाहिए। वैसे तो सरकार इस बात के लिए बाध्य नहीं है कि वह उन मांगों को मान ले जिनके लिए प्रदर्शन किया जा रहा है। और, नागरिकों के पक्ष में खड़े होने और नागरिक अधिकारों में सरकारी अतिक्रमण को रोकने के मामले में तो कोर्ट का रिकॉर्ड भी कोई अच्छा नहीं है।

शाहीन बाग का प्रदर्शन पूरी दुनिया में इस नाते अलग दृष्टि से देखा गया क्योंकि इसने लोगों को प्रेरित किया कि किस तरह कुछ महिलाओं ने अपने अधिकारों के लिए सरकार की अवज्ञा करते हुए अपनी बात सामने रखी। इसके लिए उन महिलाओं का सम्मान होता है कि किस तरह उन्होंने अपने आंदोलन को प्रभावी बनाया, और महिलाएं यह बात जानती हैं। शाहीन बाग की महिलाएं प्रभावी तरीके से अपनी बात रख पाईं, इसीलिए कोर्ट इस विशेष प्रदर्शन को आधार बनाकर अपना फैसला लिखना चाहता था।

और इस तरह की अवज्ञा सिर्फ इसलिए नहीं खत्म हो जाएंगी कि इससे कोर्ट को खीझ आती है। याद करिए किस तरह 2004 में मणिपुर की महिलाओं के समूह ने सशस्त्र बलों द्वारा बलात्कार और हत्या की घटनाओं के विरोध में सेना मुख्यालय के सामने कपड़े उतारकर प्रदर्शन किया था। ऐसे में कोर्ट द्वारा निर्धारित केवल "निर्दिष्ट क्षेत्र में" विरोध प्रदर्शन के आदेश का क्या पालन होगा, आप सोचते रहिए।

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