भगवान के नाम पर दंगे! शोभा यात्रा के दौरान ही हिंसा क्यों, इत्तेफाक या साजिश?

धार्मिक जुलूसों का संदिग्ध इतिहास रहा है और इनके पदचिह्न इनके मौजूदा हिंसक दौर से कहीं पीछे तक जाते हैं। लेकिन राज्य प्रशासन और पुलिस बल की मिलीभगत और न्यायपालिका की उदासीनता नि:संदेह चिंता के विषय हैं।

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चंदर उदय सिंह

अप्रैल, 2022 में भारत के कम-से-कम नौ राज्यों में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं हुईं। इसके अलावा तीन अन्य राज्यों में उकसावे और छिटपुट हिंसा की घटनाएं हुईं। उन सभी मामलों में हिंसा की वजह एक ही थी: रामनवमी और हनुमान जयंती के हिंदू त्योहारों पर निकाली गई धार्मिक यात्राएं। मार्च-अप्रैल, 2023 में भी सात राज्यों में रामनवमी और रमजान के महीने में हिंसा भड़क उठी।

क्या यह महज इत्तेफाक है कि रामनवमी के जुलूस के दौरान ही दंगे हो रहे हैं? कौन मुस्लिम मोहल्लों से ऐसे जुलूस निकालने की इजाजत दे रहा है जिसमें आपत्तिजनक गाने, गाली-गलौज वाले नारे और हथियार लहराए जाते हैं? क्या यह भी इत्तेफाक है कि इस साल महाराष्ट्र, कर्नाटक, बिहार और बंगाल में हिंसा हुई जहां बीजेपी के लिए 2019 में जीती गई लोकसभा सीटों की संख्या को बनाए रखना एक मुश्किल काम हो गया है?

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राजनीतिक विचार के केन्द्र में राम हैं और यही वजह है कि धीरे-धीरे उग्रवादी हिन्दुत्ववादी संगठनों ने रामनवमी के मौके पर निकाली जाने वाली यात्राओं पर कब्जा कर लिया। ‘शोभा यात्रा’ और मंदिरों की ओर से पांरपिरक रूप से निकाली जानी वाली ‘रथ-यात्रा’ में काफी फर्क होता है। रथ-यात्रा आसपास के क्षेत्रों तक सीमित रहती है जबकि शोभा यात्रा को संघ के सहयोगी संगठन पूरे धूमधाम के साथ पूरे शहर में घुमाते हैं। इसमें वाहनों का काफिला होता है और हर वाहन में नारे लगाते और हथियार चमकाते लोग होते हैं।

हाल के वर्षों में इस तरह की यात्राओं की प्रकृति हिंसक होती गई और 2014, 2016, 2018 और 2019 में निकाली गई रामनवमी शोभा यात्रा के दौरान भी सांप्रदायिक हिंसा की छिटपुट घटनाएं हुईं। इन यात्राओं को हिन्दू दक्षिणपंथी और मुख्यधारा का मीडिया धार्मिकता के सहज प्रदर्शन के रूप में चित्रित करता है और आम तौर पर उन्हें कठघरे में खड़ा किया जाता है जो इस तरह के आयोजनों को चुनौती देते हैं।

1989 के भागलपुर दंगों के बाद के सालों में 900 से ज्यादा मुसलमानों की जान जा चुकी है। हाल यह है कि एक के बाद एक तमाम राज्य इस तरह की धार्मिक यात्राओं को भीड़भाड़ वाले और संवेदनशील क्षेत्रों से गुजरने देने लगे हैं। जब भी हिन्दू और मुसलमानों के त्योहार साथ-साथ पड़ते हैं तो ऐसी यात्राओं के दौरान टकराव की आशंका काफी बढ़ जाती है।

आजादी के बाद पहले सात दशकों के दौरान जब भी दंगे हुए तो सरकारों और नागरिक प्रशासकों का भाव पश्चाताप वाला होता था और दंगों की वजहों का पता लगाने के लिए जांच आयोग बैठाए जाते, पीड़ितों के लिए मुआवजे का ऐलान किया जाता। लेकिन हाल के सालों के दौरान राज्य सरकारों को हर तरह के संकोच को छोड़कर दंगा भड़काने वालों को गले लगाते देखा गया है। जांच आयोग के बजाय अब हमारे पास बुलडोजरों की फौज है जो उन लोगों के घर-व्यवसाय को जमींदोज करने को बेचैन रहती है जो इन यात्राओं को ‘बाधित’ करते हैं।

नागरिक प्रशासन जज की भी भूमिका निभाने लगा है। यात्रा के रास्ते में आने वाले असहाय लोगों को वह पत्थर फेंकने का दोषी करार देता है, फिर बुलडोजर से लैस पुलिस जल्लाद की भूमिका निभाती है और उसके बाद नगरपालिका अधिकारी यह कहते हुए ‘गंदगी’ साफ करने आ जाते हैं कि उस व्यक्ति ने अतिक्रमण कर रखा था। अतिक्रमण और अनधिकृत निर्माण की आड़ में विध्वंस को रफा-दफा कर दिया जाता है। अंतर्धार्मिक दंगों की सबसे बड़ी वजह धार्मिक जुलूस रहे हैं। अगर इसकी भी जड़ में जाकर तहकीकात करें कि धार्मिक जुलूसों की वजह से सांप्रदायिक दंगे भड़कने के पीछे का सबसे बड़ा फैक्टर क्या है, तो यह खोज-बीन आयोजकों द्वारा तय यात्रा मार्ग पर आकर ठहर जाएगी। वैसे, अगर इन दंगों को होने से रोकने के नजरिये से भी देखें तो भी सबसे बड़ा कारक यात्रा का मार्ग ही होगा। दंगों से जुड़े कुछ उदाहरणों पर नजर डालने से बात और साफ हो जाएगी।

शोलापुर (1967)

‘शोलापुर सांप्रदायिक उपद्रव जांच आयोग’ की अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति रघुबर दयाल ने की। आयोग ने पाया कि 1925 और 1927 में ‘रथ यात्रा’; 1927 और 1966 में ‘गणपति विसर्जन यात्रा’ तो 1939 में आर्य समाज की ओर से निकाली गई यात्रा के दौरान आपत्तिजनक नारे लगाए जाने के कारण सांप्रदायिक दंगे भड़के। अगस्त, 1947 में भी बड़े पैमाने पर छुरा घोंपने की घटनाएं हुई थीं लेकिन वे विभाजन की हिंसा और शरणार्थी संकट से उपजी थीं।

भिवंडी, जलगांव और महाड (1970)

मुंबई से बमुश्किल 37 किलोमीटर दूर स्थित पावरलूम केन्द्र भिवंडी में 7 मई, 1970 को एक बड़ा दंगा भड़क उठा था। बॉम्बे हाईकोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.पी. मदन ने जांच में पाया कि सीधे तौर पर ये दंगे शिव जयंती यात्रा की वजह से भड़के और तब यह यात्रा निजामपुरा जुम्मा मस्जिद से होकर गुजरी थी। भिवंडी में भड़के दंगे की आग अगले दिन, यानी 8 मई, 1970 को जलगांव और महाड भी पहुंच गई जहां भिवंडी जैसा कुछ भी नहीं हुआ था।

न्यायमूर्ति मदन ने पाया कि 1963 से हिन्दुओं ने यात्रा निकालनी शुरू की जिनमें मस्जिद से गुजरते समय भी गाने बजाना बंद नहीं किया जाता था। उन्होंने पाया कि 1964 वह वर्ष था जब शिव जयंती यात्रा ने मस्जिदों के सामने रुकने, भड़काऊ और मुस्लिम विरोधी नारे लगाने और अत्यधिक ‘गुलाल’ फेंकने की प्रथा शुरू की थी। संयोग से, यह वह वर्ष भी था जब भाजपा के पूर्ववर्ती भारतीय जनसंघ ने अपनी भिवंडी शाखा की स्थापना की थी।

जमशेदपुर (1979)

1978 में आरएसएस/विहिप इस पर अड़ गए कि पारंपरिक रामनवमी यात्रा सबीरनगर के भीड़भाड़ वाले मुस्लिम क्षेत्र से होकर गुजरे। जब प्रशासन ने इजाजत नहीं दी तो आरएसएस/विहिप ने आंदोलन शुरू कर दिया और दबाव बनाने के लिए पूरे एक साल तक यात्रा नहीं निकाली।

आखिरकार कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व वाली जनता पार्टी सरकार (तब केन्द्र और बिहार की गठबंधन सरकारों में भाजपा भी थी) को झुकना पड़ा और 1979 में स्थानीय प्रशासन को रामनवमी की यात्रा सबीरनगर से होते हुए निकालने की इजाजत देने के लिए राजी किया गया। इस बात पर रजामंदी हुई कि मुख्य यात्रा मुख्य मार्ग पर ही रहेगी जबकि एक छोटी ‘प्रतीकात्मक यात्रा’ सबीरनगर से होकर गुजरेगी जिसमें स्थानीय मुस्लिम बुजुर्ग और पुलिसवाले होंगे और फिर वह हाईवे पर मुख्य यात्रा में जा मिलेगी।

लेकिन हुआ यह कि मुस्लिम बुजुर्गों और एक छोटे पुलिस दल की निगरानी में उस ‘प्रतीकात्मक यात्रा’ के सबीरनगर पहुंचने के बाद मुख्य यात्रा से अलग होकर करीब 15,000 लोग तय मार्ग को छोड़कर सबीरनगर पहुंच गए। इन लोगों के मस्जिद पहुंचने पर भाजपा विधायक दीनानाथ पांडे ने उन्हें वहीं पर रोक लिया और इस आधार पर आगे बढ़ने से इनकार कर दिया कि उन्हें जब तक चाहें, वहां रुकने का अधिकार है। फिर भीड़ वहीं रुकी रही और इस बीच दीनानाथ पांडे ने वहां भड़काऊ और मुस्लिम विरोधी भाषण दिए।

पटना हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज न्यायमूर्ति जितेंद्र नारायण की अध्यक्षता में जांच आयोग ने इसके लिए आरएसएस और दीनानाथ पांडे को मुख्य रूप से जिम्मेदार पाया।

कोटा (1989)

कोटा ऐसा शहर है जहां न तो 1947 में कोई दंगा हुआ और न ही उसके बाद के पांच दशकों के दौरान। राजस्थान के ऐसे शांत ‘नखलिस्तान’ में भी 1989 में दंगे भड़का और इसकी वजह बनी भगवान गणेश के विसर्जन के लिए निकाली गई अनंत चतुर्दशी यात्रा। 14 सितंबर, 1989 को इस यात्रा को जानबूझकर एक भीड़भाड़ वाले मुस्लिम मोहल्ले के रास्ते ले जाया गया और सबसे बड़ी मस्जिद पर यह यात्रा रुकी। एक सदस्यीय जांच आयोग का मानना था कि जुलूस निकालने वालों ने ही वहां आपत्तिजनक और भड़काऊ नारे लगाने शुरू कर दिए और इन आपत्तिजनक नारों के उकसावे के कारण मुस्लिम समुदाय ने इसका प्रतिकार किया।

कोटा के भाईचारे को तहस-नहस किए जाने को स्कूल में पढ़ाए जाने वाले एक दोहे से बखूबी व्यक्त किया जा सकता है:

अतिशाह रगड़ करे जो कोय,

अनल प्रकट चंदन ते होए।

(जोर से रगड़ने पर चंदन जैसी शीतल लकड़ी भी आग पकड़ लेती है)

भागलपुर (1989)

इस बार वजह थी राम शिला यात्रा। 24 अक्तूबर, 1989 को रामशिला यात्रा को तयशुदा रास्ते से हटाकर भीड़भाड़ वाले मुस्लिम इलाके ततारपुर से ले जाया गया। रामशिला यात्राएं स्वभाव से ही उत्तेजक होती थीं क्योंकि इनमें उन ईंटों (शिलाओं) को ले जाया जाता था जिनका उपयोग अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण में होना था। गौरतलब है कि बाबरी मस्जिद को इसके तीन साल बाद ही 1992 में ढहा दिया गया। न्यायमूर्ति राम नंदन प्रसाद की अध्यक्षता वाले जांच आयोग ने पाया कि ततारपुर होकर यात्रा को ले जाने का कोई आवेदन नहीं दिया गया था और यात्रा के आयोजकों को जो अनुमति पत्र जारी किया गया था, उसमें यात्रा मार्ग का उल्लेख था लेकिन उसमें ततारपुर नहीं था। फिर भी ‘हजारों उपद्रवियों की भीड़’ को पुलिस ने तयशुदा रास्ते से अलग होकर ततारपुर में घुसने और वहां उपद्रव मचाने दिया।

विभिन्न राज्यों में इस तरह का एकदम स्पष्ट और डराने वाला पैटर्न है। इन यात्राओं में भगवाधारी लोगों की संख्या बहुत अधिक होती है जिनके हाथों में तलवारें, त्रिशूल और यहां तक कि कभी-कभार पिस्तौल-बंदूक भी होती है। यात्रा को जान-बूझकर प्रमुख मस्जिदों और मुस्लिम-बहुल इलाकों से होकर ले जाया जाता है, उत्तेजक नारे लगाए जाते हैं और ‘हिन्दू राष्ट्र’ से जुड़े नारे लगाए जाते हैं।

ऐसी तमाम यात्राओं में ट्रकों पर कॉन्सर्ट में इस्तेमाल होने वाले बड़े आकार के उच्च-डेसिबल वाले एम्पलीफायर और स्पीकर के जरिये तेज आवाज में मुस्लिम विरोधी गाने बजाए जाते। गोवा या महाराष्ट्र जैसे कुछ राज्यों में ऐसी यात्राओं के आयोजक अल्पसंख्यक समुदाय को डरा-धमकाकर ही संतुष्ट हो जाते हैं जबकि अन्य राज्यों - खास तौर पर दिल्ली, मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान और झारखंड - में वे इन धार्मिक उत्सवों का इस्तेमाल मुस्लिमों की दुकानों, ठेले, व्यवसायों, आजीविका और यहां तक कि घरों को तबाह करने में करते हैं।

जिन राज्यों में सबसे अधिक हिंसा देखी गई, वे वैसे राज्य हैं जहां हिन्दुत्ववादी समूहों और चरमपंथियों को शीर्ष स्तर का राजनीतिक संरक्षण हासिल है। भारतीय जनता पार्टी और उससे जुड़ी विश्व हिंदू परिषद (विहिप), बजरंग दल, हिंदू जागरण मंच जैसी इकाइयों ने ऐसे राज्यों में सांप्रदायिक अशांति फैलाने में सीधी भूमिका निभाई है।

मुख्यधारा के मीडिया, हिन्दू दक्षिणपंथी राजनेता और टिप्पणीकार इस तरह का दुष्प्रचार करते रहे कि अप्रैल, 2022 में पूरे देश में जो दंगे भड़के, उनमें मुसलमानों का हाथ था जिन्होंने बिना किसी उकसावे के इन यात्राओं पर पत्थर फेंके। यह स्पष्ट है कि समाचार मीडिया और विशेष रूप से मुख्यधारा के टेलीविजन चैनलों ने अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ जनमत बनाने में मदद करते हुए हिन्दू बहुसंख्यकों के बीच खौफ पैदा करने में बड़ी भूमिका निभाई।

उकसाने की प्रकृति

वर्ष 2022 और 2023 में ‘रामनवमी’ और ‘हनुमान जयंती’ रमजान के दौरान पड़ीं। इन मौकों पर निकाली गई यात्राओं को खास तौर पर नमाज पढ़ने के समय या फिर शाम में रोजा तोड़ते वक्त मस्जिदों के सामने रोककर मुस्लिम विरोधी नारे लगाए गए। यात्राओं में आपत्तिजनक नारों और गानों का इस्तेमाल किया गया जो खुले तौर पर गैर-हिन्दुओं और विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय के खिलाफ हिंसा का आह्वान करते थे। ऐसी हर यात्रा में भड़काऊ और मुस्लिम विरोधी गीत बजाने की सूचना मिली है।

कारवां पत्रिका ने अपनी जांच पाया कि मुस्लिम समुदाय के खिलाफ हिन्दू युवाओं को प्रेरित करने में इस ‘हिन्दुत्व पॉप’ संस्कृति का बड़ा हाथ है और रुड़की और करौली- दोनों में रामनवमी की रैलियों में भाग लेने वाले ज्यादातर लोगों को ये उत्तेजक गीत कंठस्थ थे। छोटे बच्चों से लेकर मध्य आयु वर्ग के लोगों की जुबान पर उनके पसंदीदा गीतों और कलाकारों के नाम थे जिनमें संदीप आचार्य, लक्ष्मी दुबे, प्रेम कृष्णवंशी और कन्हैया मित्तल शामिल थे। इन कलाकारों के गीत न केवल ऑनलाइन लोकप्रिय हैं और यूट्यूब पर लाखों-लाख बार देखे जा चुके हैं बल्कि अक्सर मंदिरों, राजनीतिक रैलियों और सांस्कृतिक समारोहों में भी बजाए जाते हैं। इन गानों के बोल गोहत्या, राम मंदिर निर्माण, कृष्ण जन्मभूमि, हिन्दुओं में एकता की कमी जैसे स्पष्ट राजनीतिक संदेश वाले हैं।

लक्ष्मी दुबे के एक गीत के बोल हैं, ‘हम सच्चे हिन्दू हैं, हम नया इतिहास रचेंगे/दुश्मनों के घरों में घुसेंगे और उनके सिर काटेंगे /हर घर भगवा लहराएगा, लौटेगा राम का राज। राजस्थान के करौली में जहां 2 अप्रैल को सांप्रदायिक हिंसा शुरू हुई थी, नव संवत्सर शोभा यात्रा के आयोजकों ने संदीप चतुर्वेदी द्वारा 'टोपी वाला' जैसे गाने बजाए। इसके बोल इस प्रकार है ‘जिस दिन जाग उठा हिन्दुत्व तो ये अंजाम होगा कि टोपी वाला भी सर झुकाकर जय श्री राम बोलेगा/ जिस दिन मेरा खून खौलेगा, दिखा देंगे औकात तेरी/ फिर मैं नहीं बोलूंगा, बोलेगी तलवार मेरी’।

बहुसंख्यकों को एकजुट करना

रामनवमी के दंगे एक जातीय-राज्य के निर्माण में विभिन्न तरह के ‘रक्षा दलों’ और हिन्दू राष्ट्रवादी समूहों की स्थानीय शाखाओं द्वारा निभाई गई महत्वपूर्ण भूमिका को दर्शाते हैं। धार्मिक उपदेशकों या स्थानीय नेताओं की छत्र-छाया में फलने-फूलने वाले ये संगठन और सड़क छाप गिरोह आम तौर पर खौफ का माहौल बनाए रखते हैं और बीच-बीच में छोटी-मोटी हिंसक गतिविधियों में लगे रहते हैं जबकि कभी-कभार ये बड़े हमलों को भी अंजाम देते हैं।

कुछ इलाकों में इस तरह के संगठनों के जरिये जाति-आधारित ध्रुवीकरण को धर्म आधारित ध्रुवीकरण से बदला जा रहा है और इस क्रम में सभी जाति समूहों से अपील की जाती है कि वे गैर-हिन्दुओं, खास तौर पर मुसलमानों से बेहतर हैं और वे इस बात का महसूस करें।

रामनवमी हिंसा के बारे में झारखंड से एक जमीनी रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘दलितों का एक वर्ग संविधान में देश के हर नागरिक को दिए गए बराबरी के अधिकार को परे खिसकाते हुए खुद को मुसलमानों से श्रेष्ठ समझने लगा है जबकि वह पारंपरिक हिन्दू जाति पदानुक्रम में अपने से ऊपर के लोगों के अधीन है।’ यह और बात है कि खुद को मुसलमानों से श्रेष्ठ होने के अधिकार भाव के अलावा उनका जोर किसी भी और संसाधन पर नहीं। दिल्ली के जहांगीरपुरी में रहने वाले निचली जाति के बंगाली हिन्दू नौजवानों को मुसलमानों के खिलाफ एक कथित अखिल भारतीय पहचान का हिस्सा बनाने में हिंदुत्व की अहम भूमिका रही है।

मध्य प्रदेश के खरगोन की रिपोर्ट इसी तरह के पैटर्न को दिखाती है। वहां हिन्दुओं के विभिन्न जातीय समूहों को एकजुट करने के लिए 2021 में ‘सकल हिन्दू समाज’ का गठन किया गया। हिन्दुओं से जुड़े मसलों को हल करने के लिए गठित इस समूह ने खरगोन के गांवों में मुस्लिमों के आर्थिक बहिष्कार के तरीके निकालने की कोशिश की।

2022 में रामनवमी के कुछ हफ्ते बाद की खरगोन से ‘द वायर’ की ग्राउंड रिपोर्ट शहर के उन बदलावों का जिक्र करती है जिनसे वहां चरमपंथ ने अपनी जड़ें जमाईं। एक स्थानीय व्यक्ति ने कहा, देखते-देखते यहां हिन्दू दक्षिणपंथी संगठनों की तादाद में खासा इजाफा हुआ है। ‘पांच साल पहले यहां केवल शिवसेना सक्रिय थी। आज बजरंग दल, शिवसेना, गौ रक्षा दल, करणी सेना, विहिप, सकल हिन्दू समाज... आठ-नौ ऐसे संगठन हो गए हैं।’

2018 के बाद से एक और अहम बदलाव आया है। इससे पहले सांप्रदायिक हिंसा भड़कने की वजह से आर्थिक रिश्तों पर कोई बड़ा असर नहीं पड़ता था लेकिन अब हालात और हैं। इस तरह के बहिष्कार की शुरुआत रियल एस्टेट क्षेत्र में आए उछाल से हुई जब इन हिन्दुत्ववादी संगठनों ने डेवलपर्स से अपील की कि वे मुसलमानों को घर न बेचें। चौथा बदलाव प्रशासन की प्रतिक्रिया के तरीके में है जिसमें बुलडोजरों का अंधाधुंध इस्तेमाल यात्राओं में कथित बाधा डालने के बदले के रूप में किया जाता है।

अप्रैल 2022 में अंतरराष्ट्रीय हिन्दू परिषद द्वारा गुजरात और असम में तलवार और त्रिशूल बांटने के लिए बड़े पैमाने पर कार्यक्रम आयोजित किए गए जहां उन्होंने घोषणा की कि इस तरह के आयोजन आगे भी होते रहेंगे। दिल्ली, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में धर्म संसद और हिन्दू महापंचायतों के रूप में आम तौर पर मुसलमानों के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसा का आह्वान अधिकारियों के मौन समर्थन के साथ किया जाने लगा है।

प्रशासन का रुख

मध्य प्रदेश में खरगोन और सेंधवा, दिल्ली में जहांगीरपुरी, गुजरात में हिम्मतनगर और खंभात में हिंसा के तुरंत बाद, यानी रामनवमी और हनुमान जयंती के अगले ही दिन, जिला प्रशासन और स्थानीय पुलिस ने अतिक्रमण हटाने का अभियान चलाया। जैसा कि इस रिपोर्ट में विस्तार से इस तरह की कार्रवाई के पीछे की मंशा का जिक्र किया गया है और विभिन्न मौकों पर जिला अधिकारियों से लेकर राज्य के मंत्रियों तक ने इसका खुलकर इजहार करने से गुरेज भी नहीं किया।

इस तरह की ‘बुलडोजर कार्रवाई’ को वकीलों, मानवाधिकार रक्षकों से लेकर विशेषज्ञों तक ने मनमाना और असंवैधानिक माना है। हकीकत यह है कि ऐसा तोड़फोड़ अभियान भारतीय संविधान के तीन प्रमुख सिद्धांतों को ध्वस्त करता है: पहले से ही किसी को दोषी या निर्दोष मान लेना, कानून का शासन, और सरकार के तीनों अंगों के बीच शक्तियों और अधिकारों का बंटवारा। ऐसे विध्वंस बताते हैं कि भारत में कानून के शासन और धार्मिक आजादी का माहौल खराब हो रहा है। अदालतें भी इस मामले में उदासीन ही रही हैं।

सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि इन गैरकानूनी गतिविधियों की वजह से पड़ने वाले दीर्घकालिक असर के लिए मुस्लिम बस्तियों को जिम्मेदार बताया जा रहा है। तात्कालिक मायने में इसका नतीजा यह है कि आवास और आजीविका के नुकसान का असर सभी तरह के मानवाधिकारों पर पड़ता है। हालांकि, विभिन्न राज्यों में धार्मिक यात्राओं के बाद चलाए जाने वाले इस तरह के ‘विध्वंस अभियानों’ के जरिये यह संदेश दिया जा रहा है कि मुस्लिम समुदाय अवैध अतिक्रमणकारी हैं जबकि भारतीय शहरीकरण की प्रकृति ही ऐसी है कि उसमें बड़े पैमाने पर अनधिकृत निर्माण शामिल होता है।

भारतीय शहरीकरण की ‘खासियत’ यह है कि एक तो यहां भूमि स्वामित्व की व्यवस्था अस्पष्ट है और फिर बड़े ही ‘नियोजित’ तरीके से अवैध निर्माण को अंजाम दिया जाता है। हालत तो यह है कि दिल्ली जैसे शहरों में ज्यादातर घरों को तकनीकी रूप से अवैध या अनधिकृत माने जाएंगे, भले इस तरह के निर्माण के लिए शासन-प्रशासन की ‘मौन स्वीकृति’ रही हो।

लोग खाली पड़ी जमीन पर बस जाते हैं। शासन-प्रशासन उनके खिलाफ सालों तक कोई कार्रवाई नहीं करते और अक्सर उन्हें नियमित भी कर देते हैं। बुलडोजर अभियानों में अपने घरों और आजीविका खोने वाले तमाम लोगों ने बिजली या पानी के बिल दिखाकर इस बात को साबित भी किया कि खुद सरकार ने उनके कब्जे को वैध मान रखा था। कई के पास जमीन के कागजात भी थे।

पहले तो वे रामनवमी और हनुमान जयंती पर होने वाली हिंसा के शिकार बने और फिर उसके बाद चलाए गए तोड़फोड़ अभियान के, लेकिन मुसलमानों के लिए बात यहीं खत्म नहीं हो जाती। इसके बाद भी उन्हें तरह-तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है जिनमें सुरक्षा को खतरे से लेकर बहुसंख्यक समाज के अघोषित आर्थिक बहिष्कार के अलावा शासन-प्रशासन की उदासीनता भी होती है। वैसे भी, सांप्रदायिक हिंसा की स्थिति में मुसलमानों के फिर से उठकर खड़े होने में बाधा पहुंचाने का भारतीय शासन का इतिहास रहा है।

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