मृणाल पाण्डे का लेखः गठजोड़ साधने के जोखिम और फायदे

पिछले 70 सालों के दौरान संविधान द्वारा परिकल्पित संघीय गणतांत्रिक भारत में कारगर जमीनी गठजोड़ रचना और खुद सिंहासन से परे रहकर अलग-अलग मिजाज के महत्वाकांक्षी नेताओं को साधना आज भी मेंढक तौलने सरीखा असंभव है। गठजोड़ बना भी तो कई प्रश्न पटरी से उतार देते हैं।

रेखाचित्रः अतुल वर्धन
रेखाचित्रः अतुल वर्धन
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मृणाल पाण्डे

महाबली ट्रंप के आने-जाने के हड़बोंग में चुनाव तनिक देर के लिए मीडिया के रेडार से ओझल हो गए। शाम के टीवी पर भी महाबली अमेरिकी राष्ट्रपति के विजिट के रंगारंग ब्योरे अधिक और पास में सुलग रहे दिल्ली के दंगाग्रस्त नागरिकों की छवियां बहुत कम थीं। लेकिन ट्रंप परिवार तो मेहमाननवाजी वसूल कर स्वदेश चला जाएगा। इस वक्त उनके भाषण, डांडिया रास रचाई, ताजमहल यात्रा और विपक्ष के बड़े नेताओं को समारोह में न न्योते जाने पर मची बमचख से हमारे लिए कहीं ज्यादा महत्व सांप्रदायिकता में जल उठी दिल्ली और बिहार के आसन्न चुनावों का है।

इतनी चाक-चौबंद सुरक्षा तैयारियों के बीच भी अमेरिका के राष्ट्रपति के कदम रखते ही अचानक दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे कैसे फूट पड़े? इस महत्वपूर्ण शिखर यात्रा और वार्ता के दौरान भारतीय विपक्ष को इतनी दूर क्यों रखा गया? इन दोनों सवालों का जवाब एक ही है। खुद को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहने वाला भारत अब तक खुद को स्वायत्त राज्यों और एक ताकतवर विपक्ष से लैस महासंघ के रूप में आत्मसात नहीं कर सका है, जैसा हमारे संविधान बनाने वालों ने चाहा था।

क्षेत्रीयता, जातीयता और धर्म के कई खांचों में सदा से विभाजित भारतीय जमीन पर एक भारत, सशक्त भारत कैसे और किस तरह कायम किया जाएगा? अंग्रेजों ने जोर-जबरदस्ती से अपने पैमानों तले राज्यों की सरहदें और श्रेणियां बनाई थीं, लेकिन उसके नीचे भाषा, क्षेत्रीय संस्कृति और कई भौगोलिक वजहों से उपराष्ट्रीय गठबंधनों में बंटा देश इस उपमहाद्वीप की बुनियादी सच्चाई बना रहा है। इस्लाम और ईसाइयत के आगमन से पहले भी जो परस्पर लड़ते-झगड़ते राजा खुद को चक्रवर्तिन कहते थे, उनको भी इस बात का पूरा अहसास था। इसलिए उनमें से जो फितरत से साम्राज्यवादी थे, वे अपने-अपने अश्वमेध यज्ञ करने के बाद भी भारत के महासमुद्र में सब भूखंडों को विलीन करने की बजाय आंचलिक जलाशयों को सादर सुरक्षित रखते रहे।

भारत को एक निशान, एक विधान और एक राजनीतिक पहचान के नीचे खड़ा करने की मूर्ख कोशिश उन्होंने नहीं की। इसीलिए जब महाभारत हुआ तो उसे हस्तिनापुर का इंद्रप्रस्थ पर हमला नहीं माना गया। सदियों बाद मराठा दस्ते उत्तर पर हमलावर हुए तो इसे भी आर्यावर्त पर दक्षिणावर्त का आक्रमण नहीं माना गया। और जब अवध में मुगलों के सूबेदार नवाब खुद को बादशाह कह कर अपने नाम के सिक्के चलवाने लगे, तो किसी ने इसको दिल्ली के खिलाफ विद्रोह नहीं बताया। रेनेसां काल के इटली की तरह पोप या व्यापारिक महासंगठनों ने भी साम्राज्य यहां नहीं बनाए। और कोई प्रमाण नहीं, कि समुद्र तट के भड़ौच या सूरत सरीखे इलाकों के व्यापारियों ने अपने ताकतवर और समृद्ध व्यापारिक संघों का कुलीन तंत्र बनाकर राज्य स्थापना की सोची हो।


दरअसल संघीय गणतंत्र, राष्ट्रीयता या राष्ट्रवाद जैसे लफ्ज हमने ब्रिटिश काल में ही जाने और लोकतंत्र बनकर भी हम अभी भारतीय संदर्भ में इन शब्दों के नए मायने नहीं बना सके हैं। इसका ताजा प्रमाण है कि सर संघचालक भागवत जी ने हालिया विदेश यात्रा के बाद संघ के सदस्यों को जानकारी दी, कि बाहर योरोप में तो राष्ट्रवाद का मतलब नात्सीवाद बन चुका है, लिहाजा संघ इस शब्द से परहेज करे। इसलिए हमको यह भरम नहीं पालना चाहिए कि जमीन पर खड़ा भारत और उसके राज्यों का गठन अंग्रेजों का बनाया है और इसलिए बीजेपी के लिए वह अभारतीय है।

विदेशी दासता से पहले वाले पुरानी तरह के गणराज्यों को भी छोड़िए क्योंकि पिछले तीन सौ सालों में राज-समाज का मतलब दुनिया भर में बदल चुका है। वह जनता जो पहले पंडितों की भागवत् कथा या गरुड़ पुराण सादर सुनती थी और फिर उन सब से अलग चुपचाप अपने जाति आधारित पुश्तैनी धंधों में जुटी रहती थी, अब नहीं रही। पहले वह कोई अकाल या महामारी आन पड़े तो उनको कर्म फलों का विपाक या दैवी कोप-वोप समझ कर बरदाश्त कर जाती थी, अब वह सीधे सोशल मीडिया पर जाकर नेतृत्व से जवाब तलब करती है कि हमारे वोट चाहिए तो हस्पताली प्रबंध करो।

केजरीवाल इसी मुद्दे पर वोट बटोर ले गए और चीन ने भी कोरोना वायरस की आपदा पड़ने पर डंडा चलाई की बजाय पखवाड़े भर में विशाल हस्पताल बना डाला। भारत में भी अब गांव-गांव सबके पास स्मार्ट फोन हैं, पैनकार्ड और आधार की पहचान और निजी वोट का रुतबा है। और 1951 के संविधान के तहत मिले अपने कानूनी हक से लेकर न्यूनतम मजदूरी के रेट तक सबको पता हैं।

यही वजह है कि धर्म पर आधारित जनगणना और नई तरह की नागरिकता पाने की कवायद बहुसंख्य या अल्पसंख्य किसी को पच नहीं रही। इसकी अनदेखी का ही नतीजा है कि लाख आश्वासनों के बावजूद नागरिकता संशोधन कानून और नागरिकता रजिस्टर के मुद्दों पर कश्मीर से कर्नाटक तक भीषण तनाव है। सिरफिरे जरूर कहते फिर रहे हैं कि बहुसंख्य हिंदुओं के इस नए लोकतंत्र में जिन अल्पसंख्य समुदायों की आस्था नहीं होगी, उनको जगह नहीं दी जा सकती, विरोध को पुलिसिया दमन से मिटा दिया जाएगा आदि। लेकिन हमारे (अपुष्ट) ऐतिहासिक अतीत में भी गणराज्य गढ़ने वाले और सर्वानुमति से शासन करने वाले लोग कैसे होते थे, कृष्ण और अक्रूर उसका एक बड़ा उदाहरण हैं।


हम लोग आज लोकप्रिय भक्ति कालीन कविता की वजह से कृष्ण को रास रचैया या भागवत् कथा में अवतार पुरुष की छवि देखने के ही अधिक आदी हैं। बहुत कम लोगों को याद है कि किशोर कृष्ण ने कंस का वध इसलिए नहीं किया था कि वह क्रूर था, बल्कि इसलिए कि वह साम्राज्य फैलाने को ललकता हुआ मथुरा के गणतांत्रिक नेताओं (राजन्यों) के गठजोड़ के ऊपर खुद एकछत्र राजा बनना चाहता था। कूटनीति के तहत उसने मगध के ताकतवर साम्राज्यवादी जरासंध की जुड़वां बेटियों से ब्याह कर अपना अलग गठजोड़ साधा और सगे रिश्तेदारों ही नहीं, संघ के कई स्वायत्त नेताओं को भी कारागार में डाल दिया था।

पश्चिम में कंस और पूर्व में जरासंध यह दोनों ही ससुर दामाद गणतंत्र की बुनियादी बहुलता से कुढ़ने वाले साम्राज्यवादी तानाशाहों के प्रतीक हैं जो समय-समय पर गणतंत्रों के बीच उभरते रहे हैं। बहुलता के हित में इन दोनों का उन्मूलन जरूरी था, जो कृष्ण ने किया। उसके काफी बाद भी द्वारिका में भी कृष्ण राजा नहीं, गण संगठन के मुखिया बने थे और उसे उन्होंने गणराज्यों की परस्पर निर्भरता की प्रणाली पर ही चलाया था। इन गणतंत्रों को एकत्रित करने और अपना सारा वैभव देकर एकजुट रखने का दुष्कर काम भी कृष्ण ने किया। और खुद राजा बनने की बजाय अक्रूर को द्वारिका का राजा बनाया।

महाभारत के शांतिपर्व में कई इस तरह की लगभग विलुप्त बातें छिपी हैं। उनमें से एक है कृष्ण की अपने करीबी नारद से अपने रोल की बाबत एक चौंकाने वाली शिकायत। वह कहते हैं कि तमाम तरह के संघीय मुखियाओं की चाकरी करने के बाद भी उनको हर सदस्य से तरह-तरह की कड़वी बातें दिन-रात सुननी पड़ती हैं जिससे उनका मन सुलगता रहता है। ज्ञानी मित्र नारद से वह कहते हैंः मेरे अपने परिवार में बलराम में सिर्फ बल है, प्रद्युम्न अपने रूप पर ही मोहित है, उधर अंधक और वृष्णि कुलवाले क्षत्रिय हैं, जो लगातार ज़रूरत से ज़्यादा उत्साह से उछल कूद करते रहते हैं। इन सबके बीच पड़कर मेरी दशा उन दो जुआरियों की उस मां की तरह हो गई है, जो एक की जीत चाहती है, पर दूसरे की हार भी नहीं। जब सदस्यों का लड़ाई झगड़ा हद से बढ़ गया तो अपनी बनाई द्वारिका को त्याग कर वह वन चले गए। जाओ डूब मरो! और द्वारिका सचमुच डूब गई। गणतंत्र तेरी यही कहानी!

अपने समय में लौटें, तो कहीं भी नजर डाल लीजिए, पिछले सत्तर सालों के दौरान संविधान द्वारा परिकल्पित संघीय गणतांत्रिक भारत में कारगर जमीनी गठजोड़ रचना और खुद सिंहासन से परे रखकर अलग-अलग मिजाज के महत्वाकांक्षी नेताओं को साधना, आज भी मेंढक तौलने सरीखा असंभव काम है। येन-केन जनता दल या जनता पार्टी या यूपीए सरीखा गठजोड़ बन भी गया तो उत्कट क्षेत्रीयता के दबाव, सच्ची वित्तीय स्वायत्तता का अभाव, केंद्र के इशारे पर विपक्ष शासित राज्यों में गवर्नर के अनचाहे हस्तक्षेप की संभावना, नागरिकता की अवधारणा और स्वरूप निर्धारण पर अलग-अलग सोच, राष्ट्रीय योजना निर्माण में राज्यों के संविधान के दिए रोल की निर्मम छंटनी, भाषाई आग्रह और नदी जल बंटवारे के सनातन प्रश्न स्थिति को लगातार पटरी से उतार कर सरकारों को मध्यावधि में डुबो देते हैं। और तब सतह पर महत्वाकांक्षी एक चालकानुवर्ती, बहुलता विरोधी साम्राज्यवाद उभरने लगता है।


क्या संभावना है, कि निकट भविष्य में हमको इस संत्रास भरे इतिहास के चक्र से मुक्ति मिलेगी? मिलेगी तो किस तरह? अब आपको उपरोक्त इतिहास के उजास में पुलिस को धमकाते कपिल मिश्र सरीखे लोगों की भड़काई बेकाबू होती आग, मूक दर्शक बना दी गई पुलिस, जब उनका राज्य जल रहा था तो ट्वीट कर शांति की अपील करने के बाद ‘हैप्पीनेस’ कक्षा में श्रीमती ट्रंप के आगमन पर खुशी जताते दिल्ली के मुख्यमंत्री और प्रशांत किशोर की ‘बिहार की बात’ नामक प्रयोग जैसी तमाम ताजा हलचलों को गौर से बांचते हुए, मगध से लेकर इंद्रप्रस्थ तक देश के भविष्य की प्रश्न कुंडली बनाने का काम खुद भी शुरू कर देना चाहिए। जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।

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