सबसे मेहनती और जरूरतमंद होते हुए भी सबसे उपेक्षित हैं ग्रामीण भूमिहीन, उनकी आवाज सुनना बहुत जरूरी है

भूमिहीन मजदूरों की समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। अगर राष्ट्रीय स्तर पर भूमि सुधार नीति बने और उस पर राष्ट्रीय कार्य दल का गठन हो और उसकी नियमित बैठकें हों तो भूमिहीनों में भूमि वितरण और उनके आवासीय अधिकार सुनिश्चित करने का उपेक्षित एजेंडा फिर आगे बढ़ सकता है।

फोटोः सोशल मीडिया
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भारत डोगरा

अगर यह पूछा जाए कि हमारे देश का कौन सा समुदाय सबसे मेहनती और जरूरतमंद होते हुए भी सबसे उपेक्षित है तो वह हमारे ग्रामीण भूमिहीन हैं। उनका अपना खेत नहीं है तो भी वे देश के अन्न और खाद्य उत्पादन के लिए बहुत मेहनत करते हैं। जब खेत में काम नहीं मिलता है तो प्रवासी मजदूरों के रूप में शहरों में पहुंचकर वे बड़े-छोटे भवन बनाने में, तरह-तरह की अन्य जरूरी सेवाएं उपलब्ध करवाने में बड़ा योगदान देते हैं।

इसके बावजूद भूमिहीन ग्रामीण मजदूरों की समस्याएं कम होने के स्थान पर बढ़ती जा रही हैं। पहले उनके लिए मजदूरी के सबसे अच्छे दिन फसल कटाई के होते थे, जब कई बार उन्हें फसल के एक हिस्से के रूप में भी मजदूरी मिल जाती थी। इस तरह उनके घर में भी कुछ महीनों के लिए अनाज आ जाता था। पर जब से कम्बाईन हारवेस्टर आए हैं तो फसल कटाई के कार्य में मजदूरी कम मिलती है। रासायनिक खरपतवार नाशकों के आने से हाथ से खरपतवार हटाने के काम में भी कमी आई है। इस कार्य में विशेषकर महिलाओं की मजदूरी कम हुई है।

पहले भूमिहीनों में भूमि-वितरण की चर्चा थी और कुछ स्थानों पर भूमि-वितरण हो भी रहा था। अब कई वर्षों से यह काम ठप्प पड़ा है और इसकी चर्चा तक नहीं हो रही है। यहां तक कि लाखों ग्रामीण परिवार ऐसे हैं जिनकी आवास भूमि तक का हक सुनिश्चित नहीं है। इस कारण वे अन्याय और शोषण सहने पर मजबूर होते हैं।

अक्टूबर 2018 में 25,000 भूमिहीनों के मार्च का आंदोलन ऐसी मांगों के लिए एकता परिषद नामक संगठन ने किया, तो सरकार ने इस तरह के उपेक्षित मुद्दों पर नई सक्रियता का आश्वासन दिया। यदि इस पहल के अंतर्गत राष्ट्रीय स्तर पर भूमि सुधार नीति बने और इस विषय पर राष्ट्रीय कार्य दल का गठन हो, उसकी नियमित बैठकें हों तो भूमिहीनों में भूमि-वितरण और उनके आवासीय अधिकार सुनिश्चित करने का उपेक्षित एजेंडा फिर आगे बढ़ सकता है।

इन दिनों असंगठित क्षेत्र के लिए पेंशन सुधार चर्चा में हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी पेंशनवृद्धि के निर्देश दिसंबर में दिए हैं। ग्रामीण भूमिहीन मजदूर सबसे कमजोर आर्थिक स्थिति में रह रहे हैं। अतः सभी वृद्ध भूमिहीन ग्रामीण मजदूरों के लिए 3000 रुपए प्रति माह की पेंशन स्वीकृत होनी चाहिए और इसे आगे के लिए महंगाई से जोड़ा जाना चाहिए ताकि महंगाई के साथ-साथ पेंशन भी बढ़ती रहे। जिन मजदूरों ने अपनी पूरी उम्र कड़ी मेहनत में गुजारी है, उनके बुढ़ापे का बड़ा सहारा यह पेंशन बन सकती है।

मनरेगा के बेहतर क्रियान्वयन से भी ग्रामीण भूमिहीन मजदूरों को बहुत राहत मिल सकती है। इसकी बहुत जरूरत है, लेकिन यह भूमिका अल्पकालीन रोजगार तक ही सीमित है। साथ में अधिक टिकाऊ स्तर पर आजीविका मजबूत करने की भी जरूरत है। यह टिकाऊ आधार तो कुछ कृषि भूमि की उपलब्धि से ही मिल सकता है। अगर आवास भूमि के साथ आसपास छोटे बगीचे की भूमि मिले तो इससे कम से कम सब्जियों के उत्पादन से परिवार के पोषण सुधार में योगदान मिल सकता है।

जहां भी भूमि-आवंटन हो, उसमें पुरुष के साथ उसकी पत्नी का भी नाम हो, यह उचित मांग भी कई स्तरों पर उठी है। महिला मजदूर बहुत मेहनत करती हैं, साथ में घर भी संभालती हैं, इसलिए उनके योगदान को अधिक मान्यता मिलनी चाहिए और भूमि-रिकार्ड में भी उनका नाम रहना चाहिए। अनेक पुरुष प्रवासी मजदूर के रूप में बाहर जाते हैं। इस स्थिति में अगर महिलाओं का नाम भी भूमि-रिकार्ड में होगा तो कई कामों में उन्हें मदद मिलेगी, हस्ताक्षर प्राप्त करने के लिए पति के लौटने तक इंतजार नहीं करना पड़ेगा।

इस तरह विभिन्न स्तरों पर ग्रामीण भूमिहीनों की समस्याएं सुलझाने का निरंतरता से प्रयास हो तो गांवों में निर्धनता और कुपोषण कम करने में टिकाऊ सफलता मिलेगी। यह कतई उचित नहीं है कि जो हमारे गांवों का सबसे मेहनती पर निर्धन वर्ग है, उसी को सबसे उपेक्षित भी किया जाए। ग्रामीण भूमिहीनों की बहुपक्षीय भलाई के लिए सतत प्रयास जरूरी हैं।

यह चिंता का विषय है कि हाल के समय में ग्रामीण भूमिहीनों की बहुत उपेक्षा हुई है। भूमि-सुधार के कार्यक्रम को तो लगभग पूरी तरह उपेक्षित किया गया है। जहां एक ओर कारपोरेट क्षेत्र को भूमि उपलब्ध करवाने के लिए बहुत सक्रियता दिखाई जाती है वहीं स्थानीय भूमिहीनों के भूमि अधिकारों पर कुछ ध्यान ही नहीं दिया जाता है। मनरेगा से कुछ राहत मिल सकती थी पर इस महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम पर भी समुचित ध्यान हाल के समय में नहीं दिया गया।

इस उपेक्षा के कारण देश के सबसे कमजोर तबके का दुख-दर्द बढ़ता जा रहा है। जहां एक ओर विविध कारणों से ग्रामीण भूमिहीनों की संख्या बढ़ रही है, वहीं उनके साथ हो रहे अन्याय से उनका दुख-दर्द भी बढ़ता जा रहा है। इस अन्याय के विरुद्ध आवाज अवश्य उठनी चाहिए।

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