वक्त-बेवक्त: सबरीमाला पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अवमानना और उल्लंघन के पीछे है महिला-विरोधी विचारधारा

शासक विचारधारा ही समाज की वर्चस्वशाली विचारधारा होती है, यह मार्क्सवादी कथा होने के बावजूद सार्वभौम सत्य भी है। इसलिए सबरीमाला में अगर स्त्रियों के प्रवेश का विरोध बड़ी संख्या में स्त्रियां कर रही हैं, तो यह कोई ख़ास बात नहीं।

फोटो: सोशल मीडिया
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अपूर्वानंद

सबरीमाला में रजस्वला स्त्रियों के प्रवेश के विरोध में एक भारी आंदोलन सा खड़ा कर दिया गया है। इसमें सिर्फ़ पुरुष नहीं हैं, औरतें भी शामिल हैं, यह बता कर यह साबित करने की कोशिश की जा रही है कि यह विरोध स्त्री विरोध की विचारधारा से परिचालित नहीं है, वह तो वस्तुतः धार्मिक मर्यादाओं के टूटने की बेचैनी का नतीजा है।

स्त्रियों के स्त्री विरोध में खड़े हो जाने से वे ही हैरान हो सकते हैं जो विचारधारा की ताकत को नहीं जानते। होरी अपना सर्वनाश होने देता है लेकिन मर्यादा का उल्लंघन करने का विचार भी उसके लिए पाप है। धर्म और समाज की व्यवस्था को वह नहीं तोड़ सकता। वह झुनिया को शरण देने का दंड भरता है और अपनी बर्बादी के और क़रीब हो जाता है लेकिन ऐसा करने से वह इंकार करे, यह वह सोच भी नहीं सकता।

शासक विचारधारा ही समाज की वर्चस्वशाली विचारधारा होती है, यह मार्क्सवादी कथा होने के बावजूद सार्वभौम सत्य भी है। इसीलिए औरतें ख़ुद को मर्दों से कमतर मानती हैं, और ख़ुशी-ख़ुशी मानती दीखती हैं। इसलिए सबरीमाला में अगर स्त्रियों के प्रवेश का विरोध बड़ी संख्या में स्त्रियां कर रही हैं, तो यह कोई ख़ास बात नहीं।

हम इसके दूसरे पक्ष पर बात करें। अयप्पा का इतिहास बताकर, और यह कहकर कि क्यों वे ऐसे विशेष आराध्य हैं, जिनसे रजस्वला स्त्रियों को परहेज़ करना चाहिए, उच्चतम न्यायालय के उस निर्णय को धार्मिक परंपराओं से अपरिचय का परिणाम बताया जाता रहा है जिसमें सबरीमाला में ख़ास उम्र की स्त्रियों पर लगी पाबंदी को हटा दिया गया था।

यह तर्क देकर कि हिन्दू धर्म में प्रत्येक देवता एक जीवित मनुष्य है, यह समझाने की कोशिश की जा रही है किउसकी इच्छा को नज़रअन्दाज़ करना या उसमें हस्तक्षेप करना दरअसल उसके अधिकारों का उल्लंघन है। क्या आप किसी की इजाज़त के बिना उससे मिल सकते हैं? अगर अयप्पा नहीं चाहते तो आप उनके निकट कैसे जा सकती हैं?

अभी एक मंत्री ने, जो औरत ही हैं, एक दूसरा मज़ेदार तर्क दिया है। लेकिन वह इतना सरल और सतही है कि विश्वसनीय जान पड़ता है। क्या आप अपने मित्र के यहां ख़ून से लिथड़ा सैनिटरी पैड लेकर जा सकती हैं? नहीं न? फिर अयप्पा के यहां कैसे इस हालत में जा सकती हैं? यह तो मामला उनके आवास को दूषित करने का है, इसमें स्त्री द्वेष कहां है?

यह तर्क कुछ वैसा ही है जब किसी को उसके धर्म के कारण मकान न देना हो, तो यह कहें कि वास्तव में मामला साफ़-सफ़ाई का है। मांसाहार से जो तामसिक वातावरण उत्पन्न होता है , वस्तुतः समस्या उससे है। यह कोई धार्मिक द्वेष नहीं है, यही तो तर्क दिया जाता है।

परंपरा से चली आ रही प्रतिगामी रूढ़ियों को उचित ठहराने के लिए प्रायः आधुनिक और धर्मनिरपेक्ष या सांसारिक तर्क दिए जाते हैं। क्या यज्ञोपवीत के वैज्ञानिक लाभों की सूची आपने नहीं सुनी है?

फिर मंत्री महोदया ने इसे जायज़ ठहराने के लिए अपना उदाहरण दे दिया। उनके पति पारसी हैं। दोनों बच्चे पारसी उपासना गृह में जाते हैं। लेकिन उन्हें वहां से दुरदुरा दिया जाता है। वे सड़क पर इंतज़ार करती हैं, शिकायत तो नहीं करतीं!

अपना उदाहरण देकर वे सबरीमाला जाने को उतारू औरतों को कह रही हैं कि जैसे वे एक मर्यादा का पालन करती हैं, वैसे ही उन्हें भी करना चाहिए। वे यह कहते समय-समय भूलती हैं कि वे अगर एक जगह दावा नहीं पेश करतीं तो ज़रूरी नहीं कि दूसरी औरतें उनकी तरह सब्र करें।

प्रत्येक धार्मिक परंपरा में स्त्री की उपस्थिति या उसके प्रवेश को कुछ समय के लिए या कुछ स्थानों में निषिद्ध किया जाता है। हिंदू धर्म की भी अलग-अलग परंपरा में ऐसे निषेध हैं। इसका सीधा तात्पर्य यह है कि स्त्री धर्म का विषय तो है लेकिन धर्म पर उसका उतना अधिकार नहीं जितना पुरुष का है। क्या स्त्री धर्म पर यह दावा कर सकती है?

स्त्री का धर्म पर पूरा दावा एक आधुनिक मांग है। ऐसा नहीं कि इस पाश्चात्य आधुनिकता से परिचय से पहले ऐसे दावे उसने नहीं किए। मसलन, अक्का महादेवी या अटूकुरी मोल्ला या ललेद्द या मीरा का नाम सहज ही लिया जा सकता है।

धर्म पर, धार्मिक कर्मकांड में भागीदारी आदि में स्त्री की भागीदारी के विचार का उत्स तो समानता के आधुनिक सिद्धांत में ही है। पिता या माता के अंतिम संस्कार में स्त्री की भूमिका हो सकती है, वह मरने के बाद उन्हें आग दे सकती है, यह आधुनिक मांग थी। भले ही इसे उचित ठहराने के लिए प्रमाण और तर्क शास्त्रों से खोजे जाएं। शास्त्रों से ये तर्क भी तभी खोजे गए जब धर्म पर आधुनिकता का दबाव पड़ा। उसके पहले यह क्यों नहीं किया जाता सका था, इस पर हम कभी बात नहीं करते, यह मान लेते हैं कि हमारी परंपरा में आधुनिकता थी और पाश्चात्य षड्यंत्र ने इसे छिपा दिया था।

सबरीमाला में ही नहीं, किसी भी “पवित्र” कर्म या अवसर पर ख़ास अवधि में लड़की या स्त्री को बाहर रखा जाता रहा है। यही नहीं, वह घर में एक ख़ास जगह से आगे नहीं जा सकती थीं। आज भी अगर आप स्कूलों का सर्वेक्षण करें तो मालूम होगा कि इसी कारण लड़कियां स्कूल से कुछ दिन ग़ैरहाज़िर रहती हैं। यह सब न बदलता अगर मंत्री महोदया के तर्क को उनके पहले की औरतों ने मान लिया होता। वे उन्हीं विद्रोही औरतों के कारण आज मंत्री बन पाई हैं, इसे भूल कर ही आज की उन औरतों पर वे व्यंग्य कर सकती हैं जो अयप्पा पर दावा पेश कर रही हैं।

सबरीमाला में वय विशेष की औरतों के प्रवेश को एक सुधारवादी और प्रगतिशील क़दम बताया गया। हिंदू धर्म को जो स्वभावत: प्रगतिशील मानते हैं, उनके लिए यह असमंजस का क्षण था। क्या अदालत धर्म में दख़ल देगी? इसे लेकर मतांतर की गुंजाइश है, जैसा ख़ुद अदालत में देखा गया।लेकिन जब अदालत के सामने बराबरी के संवैधानिक अधिकार के संदर्भ में कोई सवाल रखा जाए, तो वह उसे धार्मिक क्षेत्र का कहकर पल्ला नहीं छुड़ा सकता।

लेकिन धार्मिक मामलों में सुधार के लिए सामाजिक प्रयास करना होता है। राजा राममोहन रॉय या ईश्वरचंद्र विद्यासागर या गांधी के अस्पृश्यता विरोधी अभियान के बाद इस देश में हिंदू धर्म के भीतर आधुनिक जीवन मूल्यों के समावेश का कोई आंदोलन तो छोड़िए, प्रयास भी नहीं हुआ।

भारत के अधिकतर राजनीतिक दल अगर रूढ़िवादी नहीं तो कम से कम इस मामले में उदासीन ज़रूर हैं। बराबरी के सिद्धांत को सामाजिक आचार की बुनियाद बनाने में उनकी कोई रुचि नहीं है। जो हिंदू धर्म के ही ध्वजवाहक हैं उन्होंने भी कभी इन परंपराओं और रूढ़ियों पर चर्चा नहीं छेड़ी, आंदोलन की तो बात दूर है।

फिर अभी जो उच्चतम न्यायालय के फ़ैसले की समीक्षा के पहले ही उसके निर्णय के ख़िलाफ़ जंग चला रहे हैं, वे किस मुंह से मुसलमान औरतों के मसीहा बन रहे हैं। क्या बराबरी सिर्फ़ मुसलमान औरत को चाहिए, हिंदू औरत को नहीं?

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Published: 26 Oct 2018, 7:59 AM