विष्णु नागर का व्यंग्यः बेचने वाले क्या-क्या न बेच दें, कुछ की निगाह में कोरोना संकट खरीदने-बेचने का सीजन

जब बेचने वाले बैंक बेच रहे हैं, बीमा कंपनियां बेच रहे हैं, तेल कंपनियां, विमान सेवा, हवाई अड्डे, ओनजीसी, भारतीय रेल बेच रहे हैं। एयर इंडिया न बिके तो उसे लोहे-लंगर के भाव बेचने का जुगाड़ लगा रहे हैं। ऐसे में भी सेंसेक्स बेचारा न उछले तो क्या सुस्त पड़ा रहे?

फोटोः सोशल मीडिया
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विष्णु नागर

हमारे देश में बेचने-खरीदने वाले का धंधा कोरोना काल में भी जोरों पर है। इसमें इतना उछाल आया हुआ है कि काम-धंधे भले चौपट हो गए, मगर सेंसेक्स ऊपर और ऊपर और ऊपर ही चढ़ता जा रहा है। मैंने सेंसेक्स को दोस्त समझकर कह दिया कि “ए, ताऊ, इस हालत में तो इतना ऊपर मत जा, गिरेगा तो तेरे कलपुर्जे भी नहीं मिलेंगे।”

इस पर उसने कहा, 'अबे हट, बे कलमघिस्सू। तू क्या जाने हमारा खेल! तूने तो कभी एक पैसा भी शेयर बाजार में नहीं लगाया है। कायर कहीं के, बुझदिल, मुझे शिक्षा देता है! तेरी ये मजाल! तू है क्या चीज। आदमी का चोला पाकर तू मुझसे भिड़ने आया है। तू समझता है, तू मुझसे ताकतवर है?

बेट्टा मेरे सामने पूरा बाजार, सारे मंत्री-प्रधानमंत्री शीश नवाते हैं, जबकि तेरे ऊपर गली का खजेला कुत्ता भी भौंकने को तैयार नहीं होगा। जा पहले गंदे नाले के पानी में अपनी शकल धोकर आ, फिर आकर बात करना। हट जा, मेरी नजरों के सामने से वरना तेरा कत्ल कर दूंगा।”

वह आगे कहता रहा, “क्यों रे गधे, जब देश बेचने वाले, देश बेच रहे हैं। बेच-बेच कर एमएलए, मंत्री और सरकारें खरीद रहे हैं, तब तू मुझसे कह रहा है, ज्यादा उछल मत। क्यों नहींं उछलूं? तुझसे पूछ कर उछलूंगा क्या? और नीचे धड़ाम से गिरा भी तो तेरे पिता श्री का क्या जाता है बे। तू अपने काम से काम रख।”

सही कहा, ताऊ तुमने। मैं क्षमा मांगता हूं। क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात। इतना कह कर मैंने मामला शांत करना चाहा। यह सुन कर उसने तपाक से कहा,अबे ये कौन सी छोटन-बड़न भाषा बोल रहा है, हिंदी बोल, हिंदी। अंग्रेजी आती हो तो अंग्रेजी बोल।

खैर मैंने किसी तरह राम राम करते मामला सुलझाया। संकट टलने के पंद्रह मिनट बाद दिमाग थोड़ा शांत हुआ तो सोचा, वाकई ताऊ सही कह रह था। जब बेचने वाले बैंक बेच रहे हैं, बीमा कंपनियां बेच रहे हैं, तेल कंपनियां, विमान सेवा, हवाई अड्डे, ओनजीसी, भारतीय रेल बेच रहे हैं।एयर इंडिया न बिके तो लोहे-लंगर के भाव बेचने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसे में भी सेंसेक्स बेचारा न उछले तो क्या सुस्त पड़ा रहे?

अरे जब एक सुपर स्टार तेल से लेकर ऐप तक सबकुछ बेच चुका और अभी भी उसका बेचने का हौसला बुलंदी पर है तो सेंसेक्स क्यों मृतप्रायः रहे? अभी वह कोरोना पॉजिटिव हो गया तो इसे भी उसने एक प्राइवेट अस्पताल का विज्ञापन करके भुना लिया। नाम और कमा लिया, नामा इसी से मिलेगा। किसी ने कभी सोचा था कि बेचने वाला स्टार अगर कोरोना पॉजिटिव भी हो जाए तो घबराता नहीं, इसे भी बेच देता है!

अब यह भी पक्का है कि अस्पताल से बाहर आकर वह कोरोना से लड़ने का अपना 'साहस' भी ऊंची कीमत में बेचेगा। इस बीच कोरोना का टीका बन गया तो उसे भी बेचेगा। कोरोना का ब्रांड एंबेसडर वही बनेगा। प्रधानमंत्री की 'उज्ज्वल छवि' उसने पहले भी बेची है, अब और भी जोरशोर से बेचेगा।

कहानी इन दो पर ही खत्म नहीं होती। क्रिकेट खिलाड़ी तो सरेआम बिकते हैं। फिर उनकी कैप, उनकी शर्ट, उनकी पैंट के घुटने भी बिकते हैं। बल्ला भी बिकता है। खेल का मैदान भी बिकता है।फिर तरह-तरह के सामान बेचना रह जाता है, तो उसे भी ये खिलाड़ी बेचने लगते हैं। 'भारतरत्न' पा जाएं तो भी ईश्वर की कृपा के वशीभूत होकर ये बेचते रहते हैं।

अभी कुछ युवा कांग्रेसी नेताओं ने बीजेपी को अपनी धर्मनिरपेक्षता और आस्था बेच दी और सांप्रदायिकता खरीद ली। साथ में राज्यसभा की सीट भी हासिल कर ली। इतना ही नहीं, अपनों को अपने राज्य में मंत्री पद दिलवाकर, अब खुद भी केंद्र में मंत्री बनेंगे। फिर न जाने क्या-क्या खरीदेंगे-बेचेंगे। गैरभाजपाई नेता और एमएलए तो बीजेपी मंडी में थोक के भाव से खरीदती है।

सुनते हैं कि हर विधायकी की कीमत तीस-पैंतीस करोड़ तक है। पचास करोड़ भी हो सकती है और एक राजस्थानी नेता तो तैयार भी बैठे हैं। जीवनभर में भी जितनी काली कमाई नहीं होती, वह एक झटके में हो जाती है। ईमान ही तो बेचना होता है, मतदाताओं को धोखा ही तो देना होता है। ईमान कोई कीमती चीज तो है नहीं, दस रुपये के नोट बराबर इसकी वैल्यू है। और धोखा देना तो खैर आज की राजनीतिक शैली है।

खरीदने वाले में यह आत्मविश्वास होता है कि सब कुछ खरीदा जा सकता है। यह दुनिया एक बाजार के सिवाय कुछ नहीं है। यहां न्याय भी खरीदा जा सकता है, गवाह, वकील, जज भी। धर्म, ईमान, इंसानियत सब खरीदे जा सकते हैंं। उन्हें ताज्जुब होता है कि इस दुनिया मेंं ऐसा भी कुछ होता है, जो विक्रयशील नहीं होता, जो खरीदा नहीं जा सकता!

उधर जो जितनी जल्दी बिक जाता है, जितनी जल्दी ऊंची सीढ़ियां चढ़ जाता है, वह उतना ही ज्यादा गरीबों का हमदर्द होने की घोषणाएं भी करता रहता है। खुद गरीबी से, पिछड़ी जाति से आने की मुनादी इतनी बुलंद आवाज में करता है कि दूसरे किसी की आवाज सुनाई ही नहीं देती। वह सत्ता को खरबपतियों को बेचकर आराम से अट्ठारह-अट्ठारह घंटे सोता है। वह सोने को ही जागना घोषित कर देता है।

लेकिन हां, जब भी कोई अडाणी-अंबानी मोबाइल पर उसे याद करता है तो आधी रात को भी जी सर, कहते-कहते बिस्तर से उठकर खड़ा हो जाता है। जी, जी बस हो गया आपका काम। सुबह हम बेच देंगे, शाम को आप खरीद लेना। नमस्ते-नमस्ते, गुडनाइट-गुडनाइट!

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