खरी-खरी: महाराष्ट्र में बीजेपी विरोधी सरकार ‘औरंगजेबी दिल्ली’ की राजनीति के अंत की शुरुआत

हरियाणा में जाटों और महाराष्ट्र में मराठों ने जिस तरह बीजेपी के खिलाफ वोट डाले, वह इस बात का प्रतीक है कि बीजेपी के विरुद्ध जमीन भी तैयार है। ऐसे में महाराष्ट्र तो केवल एक पहल है जिसका अंत आगे दिल्ली को भी डुबो सकता है।

फोटो : सोशल मीडिया
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ज़फ़र आग़ा

कभी-कभी राज्यों में होने वाली राजनीतिक उथल-पुथल सारे देश को अपनी चपेट में ले लेती है, परंतु उसकी धमक तुरंत सुनाई नहीं पड़ती है। महाराष्ट्र में होने वाला रोमांचक एवं नाटकीय राजनीतिक प्रकरण भी कुछ ऐसी ही राष्ट्रव्यापी धमक छोड़ गया जिसका एहसास अभी नहीं हो रहा है। लेकिन, इस परिवर्तन के देशव्यापी परिणाम निकलने ही हैं। महाराष्ट्र में नवंबर के आखिरी दस दिनों के भीतर राजनीति में इतने उतार-चढ़ाव आए जिसकी कल्पना की ही नहीं जा सकती थी। भला कोई यह सोच सकता था कि वैचारिक रूप से हिंदुत्व की कोख से जन्मी शिवसेना अपनी सहयोगी भारतीय जनता पार्टी से दामन छुड़ा लेगी? यह कल्पना भी नहीं की जा सकती थी कि ‘सेकुलर’ कांग्रेस कभी ‘सांप्रदायिक’ शिवसेना के साथ मिलकर उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली सरकार में सहयोगी बनेगी और शरद पवार इस प्रकार महाराष्ट्र राजनीति के भीष्म पितामाह बनकर उभरेंगे।

महाराष्ट्र ने इन तीनों अकल्पनीय परिस्थितियों को ठोस रूप दे दिया। निःसंदेह इस उथल-पुथल के कुछ ठोस राजनीतिक कारण अवश्य होंगे। आखिर, वे क्या कारण हो सकते हैं जिन्होंने सेना-एनसीपी- कांग्रेस को एक सरकार में पिरो दिया। इसका उत्तर केवल एक शब्दमें छिपा है और वह है स्वयं बीजेपी की सत्ता के ‘केंद्रीयकरण’ की राजनीति। बीजेपी की इसी नीति से त्रस्त शिवसेना को महाराष्ट्र में एनसीपी और कांग्रेस के साथ आने पर मजबूर कर दिया। पर यह सब हुआ क्यों और कैसे?

सत्ता के मद में मस्त नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने पिछले लगभग छह वर्षों में एक ऐसी राष्ट्रव्यापी राजनीति प्रारंभ की है जिसकी धुरी केवल दिल्ली तक सीमित नहीं, अपितु केवल मोदी, शाह और मोहन भागवत- केवल तीन व्यक्तियों की मुट्ठी में सीमित होकर रह गई है। भारतीय इतिहास में सत्ता का इस हद तक केंद्रीयकरण कम ही देखने को मिलता है। ऐसी परिस्थितियों में क्षेत्रीय राजनीति और पार्टियों का कोई स्थान बचता ही नहीं है। पिछले पांच वर्षों में शिवसेना महाराष्ट्र में बीजेपी की सहयोगी तो रही लेकिन उद्धव ठाकरे मुख्य विपक्षी नेता की भूमिका निभाते रहे। स्पष्ट है कि इन परिस्थितियों में शरद पवार एवं कांग्रेसी नेताओं का तो कोई कद बचा ही नहीं था।


लोकतांत्रिक राजनीति के कुछ अपने नियम होते हैं। इस प्रणाली में हर क्षेत्र की अपनी राजनीति एवं उस राजनीति का नेतृत्व करने वाले नेता होते हैं। यदि क्षेत्रीय राजनीति एवं नेताओं का कोई स्थान ही नहीं होगा तो कुछ समय में एक ऐसा विस्फोट होगा जिसकी कल्पना पहले से नहीं की जा सकती है। महाराष्ट्र में पिछले सप्ताह जो कुछ हुआ, वह वही क्षेत्रीय विस्फोट था जिसको दौलत एवं शक्ति प्रयोग से मोदी-शाह-भागवत की तिकड़ी अभी हाल तक दबाने में सफल रही थी, पर अब असमर्थ है। इसका पहला संकेत उस समय मिला जब ईडी से मिलने वाले नोटिस पर शरद पवार ने यह ऐलान किया कि वह अगले ही रोज ईडी ऑफिस में पूछताछ का सामना करने के लिए स्वयं उपस्थित होंगे।

महाराष्ट्र में उस समय तक चुनावी बिसात बिछ चुकी थी। महाराष्ट्र राजनीति के भीष्म पितामह शरद यह समझ चुके थे कि अब केंद्र की ‘ब्लैकमेल राजनीति’ से लड़ने का एक ही रास्ता है और वह है विद्रोह। शरद के इस ऐलान से दिल्ली से मुंबई तक सारा तंत्र कांप उठा और दूसरी सुबह महाराष्ट्र पुलिस डीजी स्वयं शरद पवार के घर हाथ जोड़े खड़े थे और उनसे आग्रह कर रहे थे कि महानगर में शांति- व्यवस्था बनाए रखने के लिए वह घर पर ही रहें ।

शरद पवार का यह कदम एक क्षेत्रीय नेता का केंद्रीय शक्ति के विरुद्ध पहला विद्रोह था जिसका सिग्नल यह था कि यदि केंद्र मराठों को झुकाने की मंशा रखता है तो मराठा लड़ाई के लिए तैयार हैं। शरद पवार ने 25 नवंबर को एक पत्रकार के सवाल के उत्तर में यही बात यूं कही, “मराठा कभी दिल्ली के आगे झुके नहीं।” और बस इसी एक विद्रोह ने शरद पवार को पुनः ‘मराठी अस्मिता’ का प्रतीक बना दिया।

इधर दिल्ली में बैठी कांग्रेस नेता सोनिया गांधी यह समझ गईं कि महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में बीजेपी का एकमात्र तोड़ शरद पवार ही हैं। तब ही तो सोनिया गांधी ने कांग्रेस पार्टी की चुनावी कमान भी शरद पवार को सौंप दी। इस प्रकार चुनाव के दरमियां ही महाराष्ट्र में बीजेपी विरोधी मजबूत क्षेत्रीय गठबंधन की नींव पड़ गई जिसके नेता बनकर शरद पवार सामने आए।

चुनाव समाप्त होते ही सहयोगी शिवसेना एवं बीजेपी के बीच सत्ता के बंटवारे पर ठन गई। उद्धव ठाकरे की ढाई साल की मुख्यमंत्री पद की मांग केवल उनकी सत्ता लालसा नहीं थी बल्कि यह दावा सत्ता में दिल्ली के साथ-साथ मराठी हिस्से की भी मांग थी। शिवसेना का अस्तित्व ‘मराठी अस्मिता’ की राजनीति पर ही निर्भर है। मोदी-शाह-भागवत की राजनीति दरअसल औरंगजेबी दिल्ली वर्चस्व पर आधारित है। अतः दिल्ली ने उद्धव की मांग ठुकरा दी और इसने महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे को भी दिल्ली के विरुद्ध विद्रोह पर मजबूर कर दिया।


दिल्ली की सत्ता केंद्रीयकरण के विरुद्ध पहले से परचम बुलंद करने वाले शरद पवार को उद्धव ठाकरे में एक स्वाभाविक सहयोगी दिखाई पड़ा। पवार ने उद्धव को ढाई नहीं, पांच वर्ष के मुख्यमंत्री-काल की पेशकश कर सत्ता में मराठी प्राथमिकता का ‘ऑफर’ कर दिया। साथ ही, पवार ने महाराष्ट्र में एक नए बीजेपी विरोधी गठजोड़ की सहमति के लिए कांग्रेस को भी राजी कर लिया। बस, ‘मराठी अस्मिता’ और क्षेत्रीय आकांक्षाओं पर आधारित इसी गठबंधन ने सेना, एनसीपी और कांग्रेस की वैचारिक दीवारों को तोड़ दिया और उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में एक नई सरकार दी जिसके नायक शरद पवार हैं। पवार इस समय औंरगजेबी दिल्ली सरकार के सत्ता केंद्रीयकरण के खिलाफ शिवाजी के रूप में उभरे हैं।

परंतु, महाराष्ट्र में जो कुछ हुआ, वह अब केवल वहीं तक सीमित नहीं रह सकता। महाराष्ट्र ने विपक्ष की राजनीति को नया रास्ता दिखाया है और यह विपक्षी गठबंधन का वह रास्ता है जिसमें केंद्र की सत्ता केंद्रीयकरण के विरुद्ध केंद्रीय पार्टियों को क्षेत्रीय नेताओं एवं शक्तियों का गठजोड़ बनाने की आवश्यकता है। मोदी-शाह की सत्ता केंद्रीयकरण राजनीति से केवल शिवसेना ही नहीं छटपटा गई थी। अभी बिहार में नीतीश कुमार हों या पहले आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू हों, एनडीए के समस्त सहयोगी या तो बीजेपी को छोड़ रहे हैं अथवा शिवसेना की तरह बीजेपी से पनाह मांग रहे हैं। हरियाणा में जाटों और महाराष्ट्र में मराठों ने जिस तरह बीजेपी के खिलाफ वोट डाले, वह इस बात का प्रतीक है कि बीजेपी के विरुद्ध जमीन भी तैयार है। फिर रोज-ब-रोज बिगड़ती आर्थिक परिस्थितियों से जनता और त्रस्त है। ऐसे में महाराष्ट्र तो केवल एक पहल है जिसका अंत आगे दिल्ली को भी डुबो सकता है।

साथ ही महाराष्ट्र ने विपक्षी राजनीति में एक उत्साह पैदा तो किया ही है। सीबीआई एवं ईडी से त्रस्त विपक्षी नेताओं को शरद पवार ने एक रास्ता भी दिखाया है। महाराष्ट्र में शरद पवार की राजनीति का सार यह है कि एक बार खड़े होकर संघर्ष करने से बंद रास्ते भी खुल जाते हैं। यह राजनीति अगले दो-तीन महीनों में होने वाले झारखंड और फिर दिल्ली में होने वाले विधानसभा चुनावों में भी अपना रंग जमाएगी। यदि महाराष्ट्र के बाद झारखंड भी बीजेपी के हाथों से निकल गया और दिल्ली में वह सरकार नहीं बना सकी तो समझिए कि मोदीकाल के अंत का नगाड़ा बज उठा है।

महाराष्ट्र में केवल एक नई बीजेपी विरोधी सरकार का गठन ही नहीं हुआ है, बल्कि देश में एक नई मोदी विरोधी राजनीति की पहल भी हो चुकी है जो मोदी-शाह-भागवत की राजनीति के लिए चेतावनी है।

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