श्री-लक्ष्मी ने पुरुष प्रधान त्रिमूर्ति का गर्व और जाति भेद एक साथ नष्ट किया, जानें कैसे

मातृशक्ति की प्राकृतिक प्रधानता ने गर्भ धारण करने में असमर्थ पुरुषों में ईर्ष्या की भावना को जन्म दिया और इसी के परिणामस्वरूप ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पुरुष वर्चस्ववाद की संस्थापना हुई।

फोटो: सोशल मीडिया
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मृणाल पाण्डे

दीपावली पर हम वैभव की देवी लक्ष्मी की आराधना करते हैं। लक्ष्मी से जुड़ी कथा मुख्यतः तीन मान्यताओं पर आधारित है- पहली, पृथ्वी और इसके समस्त जीवों की उत्पत्ति एक के बाद एक जल से हुई; दूसरी, पृथ्वी का भार तो वराह ने उठाया लेकिन इसे उर्वर बनाया एक देवी ने; और तीसरी, उसके बाद से हर प्रकार के जीवन का अंकुर गर्भ से ही प्रस्फुटित हुआ- धरती मां की बात हो या फिर इंसानी मां की। इन माताओं की उपेक्षा या उन्हें अप्रसन्न करना हमारे स्वयं के अस्तित्व के लिए विनाशकारी है।

शुभ-सौभाग्य की देवी की प्राचीनतम स्तुति है श्रीसूक्त, यानी श्री अथवा लक्ष्मी की आराधना और इसके अनुसार, सृष्टि के आरंभ में क्षीर सागर में जीवन का आरंभिक स्रोत हिरण्यगर्भ तैर रहा था। इसी से जगत की उत्पत्ति हुई जिसमें जीवन भरा श्री ने। पृथ्वी तब कीचड़ से भरी हुई थी और इसे जीवंत, सुंदर और हरा-भरा बनाया इसी श्री ने।

मातृशक्ति की प्राकृतिक प्रधानता ने गर्भ धारण करने में असमर्थ पुरुषों में ईर्ष्या की भावना को जन्म दिया और इसी के परिणामस्वरूप ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पुरुष वर्चस्ववाद की संस्थापना हुई। तदुपरांत अत्रि, भृगु और मरीच-जैसे ऋषियों ने गोत्रों के नाम से पुरुष प्रधान सामुदायिक पहचान की स्थापना की और इस प्रकार उन्होंने धर्म को एक पुरुष वर्चस्ववादी झुकाव दिया जबकि इन ऋषियों के स्वयं के नाम उनकी माताओं के नाम पर थे जो तब तक मातृसत्तात्मक व्यवस्था का नेतृत्व किया करती थीं। नई संकल्पना में लक्ष्मी को एक सुंदर महिला के रूप में चित्रित किया जाने लगा जिसे देवता मंत्रों से प्रसन्न किया करते थे और यहां तक कि सिद्धियां प्राप्त करने के लिए उनसे शक्ति की प्रार्थना करते थे: (महा प्रपन्न्युयम इति श्रीयै स्वाहा…)। ‘अथर्ववेद’ (9/5) में न केवल स्वयं के लिए धन-धान्य की वृद्धि, वरन दुश्मन की धन-हानि के लिए बकरी की बलि देने का विधान है।


जल्द ही पुरुष प्रधान व्यवस्था ने यह स्थापित कर दिया कि चंचला धन-देवी का आशीर्वाद अनिवार्य रूप से गुप्त क्रियाओं और निर्मम प्रथाओं से ही प्राप्त होता है। शास्त्रों और बाद में पुराणों में तो लक्ष्मी के दो रूपों का स्पष्ट उल्लेख मिलता है- लक्ष्मी और अलक्ष्मीया पापलक्ष्मी। लक्ष्मी का घर में प्रवेश वांछनीय था जबकि अलक्ष्मी को बाहर ही रोक देने की हिदायत थी। इसी कारण उत्तर भारत के गांवों में सास और बहु के घर के बाहर सूप पीटने का रिवाज है। यह इसलिए कि घर में लक्ष्मी और उनके पति विष्णु का वास हो और पापलक्ष्मी घर से बाहर निकल जाए।

कृषि समाज ने लक्ष्मी की मलिन उत्पत्ति और घर को धन-धान्य तथा भंडार गृह को उपज से परिपूर्ण रखने की उनकी विशेषता को ध्यान में रखते हुए रीति-रिवाजों का निर्धारण किया। गोबर से लेकर गो-उत्पादों और ताजे मौसमी उपज तक, चंचला लक्ष्मी को उनकी प्रिय सामग्री पारंपरिक रूप से अर्पित की जाती है। लक्ष्मी को प्रसन्न करने के सभी जतन किए जाते हैं क्योंकि मान्यता है कि वह जल्दी ही रुष्ट होकर घर से पलायन कर जाती हैं। यहां तक कि मुस्लिम शासकों ने भी इस बात का ध्यान रखा कि सोने-चांदी के सिक्कों पर लक्ष्मी के चित्र हों। आखिर चंचला को क्रोधित करके साम्राज्य को बंजर अंधकारमय भविष्य की ओर धकेलने का जोखिम उठाने का क्या फायदा?

गौर करने वाली बात है कि प्रतिद्वंद्वी सरस्वती या दुर्गा की तरह लक्ष्मी की सवारी हंस या बाघ नहीं है। उनकी सवारी उल्लू है जो अंधेरे में देखता है और जरूरत पड़ी तो अपने नुकीले घुमावदार चोंच से वार भी कर सकता है। वाहन के रूप में उल्लू लक्ष्मी की गुप्त ज्ञान संबंधी मान्यताओं को ही स्थापित करता दिखता है। स्मशान में तांत्रिक क्रिया के दौरान उल्लू की तीखी कर्कश आवाज (उलूक ध्वनि) निकाली जाती है। हालांकि महिलाएं पारंपरिक रूप से उल्लू को मित्र मानती हैं और विवाह जैसे शुभ समारोह या फिर किसी सम्मानित अतिथि के आगमन के मौके पर उल्लू की आवाज निकालती हैं।

इस शक्तिशाली देवी के पति के तौर पर ख्याति पाने वाले विष्णु ने किसी आम शक्तिशाली पुरुष के किसी शक्तिशाली महिला से विवाह के उपरांत के आम चलन को चरितार्थ करते हुए लक्ष्मी को पृथ्वी से अलग करते हुए क्षीर सागर में अपने चरणों तक सीमित कर दिया। यह सब करने के लिए विष्णु को पुरुषोत्तम कहा जाने लगा, अर्थात पुरुषों में सर्वोत्तम! लेकिन गलती तो पुरुषोत्तम भी कर सकते हैं।


पुरी के भगवान जगन्नाथ के बारे में एक दिलचस्प कथा है। एक बार उनकी पत्नी महालक्ष्मी की नजर अपनी एक बड़ी भक्त श्रीया चंदलुनी पर पड़ी। वह अछूत थी। पुरुष-निर्मित मनुवादी जाति व्यवस्था से कभी सहमत न होने वाली देवी न केवल उसके घर गईं बल्कि समस्त वर्जनाओं को तोड़ते हुए उन्होंने चंदलुनि के यहां अर्पित प्रसाद को भी ग्रहण किया। यह सुनकर बलभद्र ने अपने छोटे भाई भगवान जगन्नाथ को महालक्ष्मी के गर्भ गृह में प्रवेश पर प्रतिबंध लगाने के लिए बाध्य कर दिया।

तब क्रोधित लक्ष्मी ने सारी धन-संपत्ति और पुजारियों के साथ उस जगह का त्याग कर दिया और अपने लिए एक अलग मंदिर बनवा लिया। लक्ष्मी द्वारा त्याग दिए गए मंदिर में श्रीहीन जगन्नाथ और बलभद्र ने भूख लगने पर स्वयं भोजन पकाने की कोशिश की लेकिन असफल रहे। फिर वे ब्राह्मण का वेश धरकर भीख मांगने निकले लेकिन किसी ने उन्हें भोजन नहीं दिया। फिर वे भूखे-प्यासे लक्ष्मी के दरवाजे पर पहुंचे जहां उन्हें कहा गया कि यह एक चांडाल का निवास है जहां केवल उन्हें ही भोजन परोसा जा सकता है जो अस्पृश्यता को व्यवहार में न लाने का प्रण करें। भूख-प्यास से त्रस्त बलभद्र और जगन्नाथ ने तत्काल यह प्रतिज्ञा कर ली। आज भी रथ यात्रा के शुरू होने से पहले किसी अछूत से भगवान जगन्नाथ को नारियल अर्पण कराने की परंपरा चली आ रही है। दूसरी ओर इस मौके पर क्षेत्र का राजा एक सफाई कर्मचारी की भूमिका में होता है जो सबसे पहले रथ यात्रा के रास्ते को झाड़ू से साफ करता है और फिर आकर रथ को खींचने में हाथ बंटाता है। इस तरह लक्ष्मी ने अपने ‘पुरुषोत्तम’ और उनके बड़े भाई के आंडबर युक्त पुरुष अहम को तोड़कर परस्पर संबंधों के प्राकृतिक संतुलन को बहाल किया।

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