सिल्कियारा पर अटकीं देश की सांसे, लेकिन पहाड़ों पर रेलवे की सुरंगों के निर्माण प्रोजेक्ट हाल भी जानना जरूरी

यह हैरान करने वाली बात है कि रेलवे एक मुश्किल इलाके में सुरंग बना रहा था और उसने अपने ही अनुभवों से सीख लेने की जरूरत नहीं समझी।

सिल्कियारा सुरंग में फंसे कामगारों को निकालने की जद्दोजहद जारी है
सिल्कियारा सुरंग में फंसे कामगारों को निकालने की जद्दोजहद जारी है
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आलोक कुमार वर्मा

उत्तराखंड में सिल्कियारा-बारकोट सुरंग ढहने का एक सबक यह है कि राजनीति इतना गंभीर काम है कि इसे नेताओं पर नहीं छोड़ा जा सकता। वैज्ञानिक साक्ष्यों और विशेषज्ञों की सलाहों को नजरअंदाज करना, पर्याप्त जमीनी सर्वेक्षणों की प्रतीक्षा किए बिना हिमालय में ब्रॉड गेज रेल लाइनों और चौड़ी सड़कों की परियोजनाओं को मंजूरी देना और राजनीतिक आकाओं द्वारा तय समय सीमा को पूरा करने की जल्दबाजी करना काफी महंगा पड़ता है, जिसकी कीमत देश को चुकानी पड़ती है।  

चुनौतीपूर्ण इलाकों में परियोजनाओं का खाका खींचने से लेकर इसे अमल में लाने का काम इंजीनियरों पर छोड़ दिया जाना चाहिए। नेता की भूमिका केवल परियोजना को मंजूरी देने और प्रगति रिपोर्ट तक ही सीमित होनी चाहिए ताकि इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, लापरवाही और अज्ञानता के कारण होने वाली खामियों का पता लगाया जा सके। 

हिमालय में मौजूदा सड़कों को चौड़ा करने की परियोजनाएं रेलवे की मेगा परियोजना में लगे पच्चीस साल की तुलना में हाल की हैं। हालांकि इंजीनियरिंग की चुनौतियां वही हैं लेकिन ऐसा लगता है कि भारतीय रेलवे की सर्वोच्च संस्था रेलवे बोर्ड ने अपने अनुभवों से कोई सीख नहीं ली। संकट की सही समझ के लिए हमें बड़ी तस्वीर पर गौर करना चाहिए। 

चार धाम परियोजना के क्रियान्वयन में जो लापरवाही रही, वह हिमालयीन क्षेत्र में विभिन्न रेलवे परियोजनाओं में साफ दिखती है। मैं पिछले 20 सालों के दौरान मंजूर की गई सभी चालू परियोजनाओं से गहराई से जुड़ा रहा। इनमें से सातों हिमालयी राज्यों में एक-एक थी। उनमें से एक भी अब तक पूरी नहीं हुई है। 

गौर करने वाली बात है कि इसी अवधि के दौरान चीन हिमालयी इलाकों में कई रेल लाइनें बनाने में सफल हुआ। चोंगकिंग-लानझोउ, चेंगदू-कुनमिंग और नाननिंग-कुनमिंग लाइनें बहुत लंबी हैं और हम अपनी ओर से जो भी निर्माण कर रहे हैं, उसकी तुलना में बहुत अधिक गति से काम करती हैं। चीन चेंगदू से लेह (सिचुआन तिब्बत लाइन) तक 1,629 किलोमीटर लंबी लाइन भी बना रहा है जो भारत की सीमा के करीब से गुजरेगी। दुनिया भर के विशेषज्ञ इसे इतिहास का सबसे चुनौतीपूर्ण रेलवे प्रोजेक्ट बता रहे हैं। चीन ने ल्हासा को सुदूर पश्चिम में हॉटन से जोड़ने की योजना को भी अंतिम रूप दे दिया है जो विवादित अक्साई चिन क्षेत्र से होकर गुजरेगा।  


जब राष्ट्र सिल्क्यारा में फंसे 41 श्रमिकों के सुरक्षित बच निकलने की प्रार्थना कर रहा था, मणिपुर और मिजोरम में तुपुल और आइजोल में निर्माण के दौरान रेलवे कटिंग और रेलवे पुल ढहने से मारे गए 80 मजदूरों की ओर किसी का ध्यान नहीं गया। यह हादसा इसी साल अगस्त में हुआ था। 2017 में, रेलवे बोर्ड ने हिमालय में अब तक की दो सबसे बड़ी परियोजनाओं को मंजूरी दी: हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर से लद्दाख के लेह तक 456 किलोमीटर लंबी लाइन और उत्तराखंड में बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री को जोड़ने वाली 327 किलोमीटर लंबी चार धाम लाइन। इन दोनों परियोजनाओं में गंभीर खामियां थीं। ऐसा लगता है कि सात साल बाद रेलवे बोर्ड ने दोनों परियोजनाओं को ठंडे बस्ते में डाल दिया है। 

अजीब बात है कि लेह परियोजना रिपोर्ट लंबी सुरंगों और बड़े पुलों के निर्माण की व्यवहार्यता और लागत पर उच्च ऊंचाई के प्रभाव का हिसाब देने में विफल रही थी। उस ऊंचाई पर- औसत समुद्र तल से 3,500-5,000 मीटर ऊपर- ऑक्सीजन कम हो जाती है जिससे सांस लेने में परेशानी होती है। उस ऊंचाई तक सामग्री और उपकरण ले जाने की लागत को भी ध्यान में नहीं रखा गया।  

पिछले तीन वर्षों में, वास्तव में, लद्दाख में उन्हीं ऊंचाइयों पर पांच मेगा सड़क सुरंगों के निर्माण के लिए स्वीकृतियों में वृद्धि देखी गई है। यह कहीं भी स्पष्ट नहीं है कि इन सुरंगों की अलाइनमेंट योजनाओं में अत्यधिक ऊंचाई के असर को ध्यान में रखा गया है या नहीं। (मैं यहां यह भी जोड़ दूं कि हिमालय में परियोजनाओं में से एक के लिए मैंने जो नया अलाइनमेंट सुझाया था, वह वैसा ही था जैसा चीन ने इस क्षेत्र के लिए चुना है।) 

व्यावहारिक अलाइनमेंट के बिना निर्माण शुरू करने का नतीजा निम्नलिखित बिंदुओ से स्पष्ट है: 

  1. प्रति किलोमीटर मार्ग की लंबाई पर निर्माण की लागत 400-700 करोड़ रुपये है जो देश के अन्य पर्वतीय क्षेत्रों की औसत लागत का लगभग 8 से 10 गुना है। 

  2. भूवैज्ञानिक अवरोधों से निपटने के लिए अलाइनमेंट में बीच में हुए बदलाव के कारण रोजाना लाइन क्षमता घटकर अधिकतम 8 से 10 ट्रेनें रह गई है जो कोंकण जैसी रेलवे की अन्य पहाड़ी इलाकों में मौजूदा लाइनों की क्षमता की तुलना में आधी है।  

  3. अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के पास दोषपूर्ण अलाइनमेंट के कारण बने बेहद ऊंचे पुल- जैसे कि चिनाब नदी के तल से 359 मीटर ऊपर बहुप्रतीक्षित चिनाब ब्रिज (दुनिया का सबसे ऊंचा रेलवे ब्रिज), कश्मीर लाइन पर अंजी ब्रिज, और मणिपुर लाइन पर नोनी ब्रिज- युद्ध के समय दुश्मन के लिए आसान निशाना सोबित होंगे। किसी बड़ी दुर्घटना के कारण भी ये लाइनें सालों बंद रह सकती हैं। 

  4. कुल मिलाकर लगभग चालीस बड़े पुलों और 5-10 किलोमीटर लंबी 35 सुरंगों के साथ की ढलान को स्थिर बनाने के उपाय किए जा रहे हैं। 50 से 100 मीटर ऊंची ढलान वाली कटिंग बनाई जा रही हैं जो बड़े भूकंपों और ज्यादा बारिश की स्थिति में गंभीर खतरा पैदा करेंगी।  


ये बातें सबूत हैं कि जब परियोजनाओं को मंजूरी दे दी जाती है और अलाइनमेंट पर भूवैज्ञानिक, भू-तकनीकी और जल विज्ञान से जुड़ी स्थितियों की जरूरी जांच के बिना डिजाइन तैयार किए जाते हैं तो क्या होता है। 

तुलनात्मक रूप से कम चुनौतीपूर्ण कोंकण रेलवे परियोजना पर ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ा जहां जमीनी अध्ययन के बिना तैयार किए गए अलाइनमेंट को भूवैज्ञानिक अवरोधों से निपटने के लिए निर्माण के दौरान कई बदलावों से गुजरना पड़ा। 2002 में कश्मीर रेल लिंक की मंजूरी के लिए कैबिनेट समिति के सामने रखे गए नोट में रेलवे बोर्ड ने दर्ज किया था कि कोंकण परियोजना पर प्राप्त अनुभव के साथ वह पांच सालों में लाइन बना लेने को लेकर आश्वस्त है। 

इसमें सबसे अहम यह सबक नहीं लिया गया कि उचित सर्वेक्षण और अच्छी तरह से अलाइनमेंट वाले डिजाइन के बिना निर्माण शुरू नहीं किया जाना चाहिए, और इसलिए कश्मीर परियोजना के साथ गलती जारी रही। इससे भी बुरी बात यह है कि शेष छह परियोजनाओं में से हर में वही गलती दोहराई जाती रही।  

अब चार वर्षों (2019-23) से रेलवे बोर्ड केरल में स्टैंडर्ड गेज पर 200-250 किलोमीटर प्रति घंटे की सेमी-हाईस्पीड लाइन बनाने की योजना पर विचार कर रहा है, अंतरराष्ट्रीय सलाहकारों की चेतावनियों और व्यापक जनविरोध को नजरअंदाज करते हुए अपर्याप्त और अविश्वसनीय जमीनी सर्वेक्षणों के आधार पर तैयार गलत अलाइनमेंट पर आगे बढ़ा जा रहा है।  

जम्मू-कश्मीर में कटरा-बनिहाल रेल लिंक परियोजना पर मेरा अपना अनुभव भी अहम है। एक बार जब निर्माण शुरू हुआ और अलाइनमेंट में गड़बड़ी सामने आई तो हमें नया अलाइनमेंट तैयार करने में चार साल (2004-2008) लग गए। रेलवे बोर्ड ने अगस्त, 2008 में निर्माण को निलंबित कर दिया और मौजूदा अलाइनमेंट को छोड़ने और नए अलाइनमेंट पर नए सिरे से निर्माण शुरू करने के मेरे प्रस्ताव की जांच करने के लिए बाहरी विशेषज्ञों की समिति का गठन किया। नए मेंबर (इंजीनियरिंग) और मेंबर (यातायात) की तैनाती के साथ समीक्षा बाधित हो गई और मुझे परियोजना से अलग कर दिया गया। तब भी, लगभग 75 फीसद अलाइनमेंट बदलना ही पड़ा।  


सितंबर, 2010 में दिल्ली हाईकोर्ट ने माना कि नए सदस्यों ने समीक्षा को बाधित करने के लिए मिलीभगत की थी। एक जनहित याचिका दायर की गई जिसके परिणामस्वरूप हाईकोर्ट ने रेलवे बोर्ड को अलाइनमेंट में बदलाव के मेरे प्रस्ताव की जांच करने के लिए एक नई विशेषज्ञ समिति नियुक्त करने का आदेश दिया। 

तब तक निर्माण पर 5,500 करोड़ रुपये खर्च हो चुके थे। 2012-14 में कैग और भारतीय संसद की लोक लेखा समिति (पीएसी) ने भी परियोजना के प्रदर्शन ऑडिट की जांच की। पीएसी ने रेलवे बोर्ड से अलाइनमेंट में बदलाव के कारण हुए नुकसान के लिए जिम्मेदारी तय करने को कहा। नई विशेषज्ञ समिति ने फरवरी, 2015 में सर्वसम्मति से सिफारिश की कि मेरे अलाइनमेंट को अपनाया जाए क्योंकि यह सुरक्षित, विश्वसनीय और नूयनतम लागत वाली थी। इसने सिफारिश की कि हिमालय में अन्य परियोजनाएं एक मॉडल के रूप में इस नए प्रकार के अलाइनमेंट का पालन कर सकती हैं। 

ऐसे खेल जो सरकारें और सरकारी एजेंसियां खेलती हैं, हिमालय और केरल जैसे चुनौतीपूर्ण इलाकों में परियोजनाएं असहज सवाल उठाती हैं जिनकी बारीकी से जांच की जरूरत होती है। 

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