आकार पटेल का लेख: जनगणना नहीं तो परिसीमन भी नहीं, तो कैसे तय होगी लोकसभा में राज्यों की सही हिस्सेदारी

संभवत: परिसमीन का काम अनिश्चितकाल के लिए टाल दिया जाए, क्योंकि इससे पहले तो जनगणना होनी है, जिसे बिना कारण के स्थगित कर दिया गया है। और, महिला आरक्षण विधेयक के कानून बनने के बाद परिसीमन का आधार अब सिर्फ भौगोलिक स्थितियों पर ही निर्भर नहीं होगा।

सांकेतिक फोटो (सोशल मीडिया के सौजन्य से)
सांकेतिक फोटो (सोशल मीडिया के सौजन्य से)
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आकार पटेल

50 वर्षों से, भारत ने लोकसभा की संरचना या सीटों की संख्या में (जिसे परिसीमन कहा जाता है) कोई बदलाव नहीं किया है। किसी क्षेत्र के प्रतिनिधित्व के लिए सीटों की हिस्सेदारी बढ़ाने या घटाने के लिए जिस व्यक्ति को चुना जाता है उसके हाथ में बहुत ताकत होती है। आदेशों में 'क़ानून की शक्ति है और किसी भी अदालत में उस पर सवाल नहीं उठाया जा सकता' और उसे संशोधित नहीं किया जा सकता है।

हाल की घटनाओं ने परिसीमन के मुद्दे को फिर से प्रमुखता से सामने ला दिया है, और संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण की भी शर्त है कि यह काम 'परिसीमन की प्रक्रिया पूरी होने के बाद प्रभावी होगा।'

लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि वह व्यक्ति कौन है। परिसीमन निर्धारित करने वाली समिति की आखिरी अध्यक्ष रिटायर्ड जज रंजना देसाई थी, जिन्होंने 2022 में यह काम छोड़ दिया था, और उन्हें दूसरा पद (प्रेस परिषद) दे दिया गया, लेकिन चुनाव आयोग की वेबसाइट पर अभी भी उनका ही नाम अंकित है।

आइए, परिसीमन से जुड़े कुछ मुख्य मुद्दों की पड़ताल करते हैं, जो कि हमारे राज्यों में आबादी की विभिन्न संख्या पर आधारित हैं। आंध्र प्रदेश में कुल प्रजनन दर, किसी महिला से जन्म लेने वाले बच्चों की औसत संख्या 1.7 है, जबकि बिहार में यह दर 3 है। फिलहाल भारत में यह दर 2 के आसपास है और करीब एक दशक में हमारी आबादी घटने लगेगी। हालांकि हमारे 29 राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों में पहले ही प्रतिस्थापन दर 2 से नीचे है। लेकिन बाकी 7 राज्यों की दर ऐसी है जिससे कि देश का औसत बढ़ जाता है।

पचास साल पहले उत्तर प्रदेश से (तब उत्तराखंड भी यूपी का हिस्सा था) 85 सांसद चुने जाते हैं, और हर सीट पर लगभग 10 लाख आबादी थी, इसी तरह केरल से 20 सांसद, तमिलनाडु से 40 सांसद, कर्नाटक से 28 सांसद और राजस्थान से 25 सांसद चुने जाते थे।


बीते 50 साल में यानी जब आखिरी बार लोकसभा की सीटों की संख्या बढ़ाई गई थी, तब से केरल की आबादी में 56 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है, जबकि इसी अवधि में राजस्थान में आबादी 166 फीसदी बढ़ गई है। तमिलनाडु की आबादी में 75 फीसदी तो हरियाणा में 157 फीसदी का इजाफा हुआ है। ऐसे में यह तर्क कि परिवार नियोजन को प्रभावी तरीके से लागू करने वाले दक्षिणी राज्यों की अनदेखी कर उत्तरी राज्यों को अधिक प्रतिनिधित्व देना अर्थपूर्ण और सही है। लेकिन यह तर्क भी सही है कि उत्तरी राज्यों के सांसद कहीं अधिक भारतीयों का प्रतिनिधित्व करते हैं, तो यह तर्क सही नहीं होगा। बिहार के 40 और उत्तर प्रदेश के 80 सांसद औसतन प्रति सांसद 30 लाख भारतीयों का प्रतिनिधित्व करते हैं, उधर केरल का हर सांसद 17 लाख और तमिलनाडु का हर सांसद औसतन 19 लाख भारतीयों के प्रतिनिधि होते हैं।

विभिन्न राज्यों का लोकसभा में प्रतिनिधित्व उस राज्य की आबादी के हिसाब से तय हुआ था, और  उस समय सभी सांसद लगभग एक जैसी संख्यी में भारतीयों के प्रतिनिधि है। लेकिन आज स्थितियां अलग हैं।

इस बाबत दोनों तरफ से अर्थपूर्ण और जायज तर्क दिए जा रहे हैं और जब परिसीमन आयोग की बैठक होगी तो उस पर एक किस्म का दवाब होगा क्योंकि वह कोई भी तरीका अपनाए, सबको तो संतुष्ट नहीं किया जा सकता।

संभवत: परिसमीन का काम अनिश्चितकाल के लिए टाल दिया जाए, खासतौर से इसलिए क्योंकि इससे पहले तो जनगणना होनी है जोकि बिना किसी कारण के स्थगित कर दी गई है। और, इसलिए भी क्योंकि महिलाओं को लोकसभा में एक तिहाई हिस्सेदारी देने वाला महिला आरक्षण विधेयक अब कानून बन चुका है, यानी परिसीमन का आधार अब सिर्फ भौगोलिक स्थितियों पर ही निर्भर नहीं होगा। लेकिन इससे हमें भ्रम में नहीं आना चाहिए और समस्या जस की तस बनी रहेगी।

तो फिर क्या किया जाए?

इस पर अमल न करने का अर्थ है संविधान का उल्लंघन। संविधान का अनुच्छेद 82 (प्रत्येक जनगणना के बाद पुनर्निर्धारण) कहता है, “प्रत्येक जनगणना के पूरा होने पर, राज्यों को लोक सभा में सीटों का आवंटन और प्रत्येक राज्य का क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजन ऐसे प्राधिकारी द्वारा और ऐसे तरीके से पुन: समायोजित किया जाएगा जैसा संसद कानून द्वारा निर्धारित कर सकती है।”


यहां ध्यान देने योग्य शब्द हैं ‘प्रत्येक जनगणना’ और इस पर बीते 50 साल में अमल न होगा ही समस्या की जड़ है। 1972 तक इस प्रक्रिया का पालन किया गया। 1950 के दशक की 494 लोकसभा सीटें 1960 के दशक में 522 और फिर 1970 के दशक में 543 हो गईं। इस समय, जैसा कि ऊपर दिए गए आंकड़ों से पता चलता है, जबकि सभी राज्यों का प्रतिनिधित्व समान था, यह मान्यता थी कि दक्षिण बहुत बेहतर कर रहा था और राज्य को विशेष रूप से उत्तर के लिए परिवार नियोजन को बढ़ावा देने की आवश्यकता थी।

पाठकों को इंदिरा गांधा द्वारा इमरजेंसी के दौरान उठाए गए कठोर कदमों की याद होगी और बहुत से लोगों को परिवार नियोजन को प्रोत्साहन देने वाले विज्ञापन भी याद होंगे जो 1980 के दशक में दूरदर्शन और अखबारों में दिखते थे।

इस अभियान का एक दीर्घगामी लक्ष्य था परिसीमन के लिहाज़ से राज्यों को एक स्तर पर लाना। लेकिन जनगणना और परिसीमन के बीच का सूत्र टूट गया या और साफ कहें तो इसे स्थगित कर दिया गया। 1980 और 1990 के दशक में जब हमने जनगणना की तो राज्यों की आबादी के आकार में काफी विभिन्नता सामने आई थी, लेकिन तब भी परिसीमन नही किया गया।

वाजपेयी सरकार ने 2002 में इसे और अगले 25 साल के लिए टाल दिया, कि परिसीमन 2031 में होगा (यानी 2026 के बाद होने वाली पहली जनगणना)

यह कब होगा? हमें नहीं पता। 1880 के बाद पहली बार कोई जनगणना नहीं की गई है, जोकि 2021 में हो जानी थी। इसे न करने का कारण कोविड महामारी बताया गया, लेकिन महामारी खत्म होने के बाद भी अभी तक कोई ऐसा संकेत नहीं दिख रहा है कि जनगणना कराई जाएगी (या  फिर सीएए को कैसे लागू किया जाएगा जोकि महामारी के बाद लागू किया जाना था)।

यह मानते हुए कि जनगणना जल्द ही शुरु होगी, सरकार को कुछ धारणाओं को बदलने की कोशिश करनी होगी। लेकिन पिछले 50 वर्षों में असमानता और भारी बदलाव को देखते हुए ऐसा होना आसान नहीं लगता। हो सकता है इसे लोगों के साथ खुले औ स्पष्ट संवाद के बिना ही कर लिया जाए, और नेता जी की शैली को जानते हुए, इसके शुरु होने की उम्मीद भी कम ही है।

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