कितने ही घर-परिवार तबाह हो गए: फिर से घर बनाना, आजीविका दोबारा हासिल करना, आघात से बाहर आना आसान तो नहीं
जम्मू-कश्मीर के विपक्षी नेता सुनील शर्मा की रिपोर्ट के अनुसार, 7 मई से 10 मई के बीच हुई गोलाबारी में कुपवाड़ा, बारामुला, पुंछ और राजौरी जिलों में करीब 2,000 घर क्षतिग्रस्त हुए।

मंजूर खान (50) का घर 2005 के विनाशकारी भूकंप में पूरी तरह नष्ट हो गया था। नया घर बनाने में उन्हें लगभग दो दशक लग गए।
अपनी पत्नी और दो बेटों, ज़हूर (25) और साकिब (22) के लिए नियंत्रण रेखा (एलओसी) के साथ कुपवाड़ा के डोलीपोरा सेक्टर में उन्होंने खासी मशक्कत के बाद एक मामूली तीन कमरों का घर बनाया। लेकिन 7 मई को सीमा पार से आए मोर्टार शेल ने उनका घर मलबे में तब्दील कर दिया। उनकी दो गाय मर गईं, और वर्षों की कड़ी मेहनत से जिंदगी में जो स्थिरता हासिल की थी, अचानक खत्म हो गई। खान ने ‘संडे नवजीवन’ को बताया, “भूकंप के दौरान मैं छोटा था और इसलिए नए सिरे से शुरुआत करने की ताकत थी। अब, बूढ़ा हो चुका हूं, और मेरे बेटे मेरी ही तरह मजदूरी करते हैं। हम तबाह हो गए हैं।” जहूर बताते हैं, “जब गोले हमारे घर पर गिरे, हम गहरी नींद में थे। हम शोर मचाते हुए घर से बाहर निकले और सुरक्षित स्थानों की ओर भागे। हम सब सदमे में और काफी घबराए हुए थे।"
खान के जैसी ही कहानियां नियंत्रण रेखा के पार से भी मिल रही हैं। जम्मू-कश्मीर के विपक्षी नेता सुनील शर्मा की रिपोर्ट के अनुसार, 7 मई से 10 मई के बीच हुई गोलाबारी में कुपवाड़ा, बारामुला, पुंछ और राजौरी जिलों में करीब 2,000 घर क्षतिग्रस्त हुए। आर्थिक नुकसान भी चौंकाने वाला है- अकेले सांबा में 340 से अधिक पशुधन मारे गए, और फसलें बर्बाद हुईं, जिससे किसानों और चरवाहों के सामने आजीविका का संकट उत्पन्न हो गया। 7 मई से 10 मई के बीच सीमा पार से हुई गोलीबारी के महज चार दिनों में कम-से-कम 18 लोगों की जान चली गई, जिनमें चार बच्चे और दो महिलाएं शामिल हैं। अधिकतर मौतें पुंछ में हुईं। 70 से ज्यादा लोग घायल हुए।
कुपवाड़ा जिले में कोई जनहानि नहीं हुई; हालांकि, नियंत्रण रेखा के पास तंगधार और करनाह इलाकों में घर, दुकानें, स्कूल और मस्जिदों सहित सैकड़ों इमारतें क्षतिग्रस्त हुए हैं। गोलाबारी के दौरान अनेक लोग स्वयं ही कहीं चले गए या प्रशासन द्वारा उन्हें प्रभावित क्षेत्रों से सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया गया। करनाह के वरिष्ठ पत्रकार और प्रमुख नागरिक पीरजादा सैयद बताते हैं, “करनाह में नियंत्रण रेखा के किनारे रहने वाले लगभग 1,00,000 निवासियों में से 80 प्रतिशत लोग पहलगाम हमले के बाद 7 मई की रात को गोलाबारी के दौरान या गोलाबारी शुरू होने से कुछ दिन पहले ही सुरक्षित स्थानों पर चले गए थे।” उरी में, गोलाबारी के दौरान भागना ऐसे ही एक परिवार के लिए घातक साबित हुआ। 45 वर्षीय नरगिस बानो की मौत हो गई, और उनके दो अन्य रिश्तेदार गंभीर रूप से घायल हो गए, जब 8 मई को उनके गांव रजरवानी से भाग रहे वाहन पर तोप का गोला गिरा।
2021 के युद्धविराम के बाद चार साल से ज्यादा वक्त से यहां अपेक्षाकृत शांति है, लेकिन हाल की हिंसा ने माहौल में फिर से डर पैदा कर दिया है। सैयद युद्धविराम के स्थायित्व पर भरोसा नहीं कर पा रहे, खासकर ऑपरेशन सिंदूर के साथ जो आतंकी हमलों की स्थिति में सैन्य प्रतिक्रिया जारी रखने का संकेत देता है। पर्याप्त बंकरों की कमी से यह कमजोरी और उभर जाती है। हालांकि केन्द्र सरकार ने 2017-2018 में जम्मू, सांबा, कठुआ, पुंछ और राजौरी के लिए 415.73 करोड़ रुपये की लागत से 14,460 बंकर बनाने को मंजूरी दी थी, लेकिन बारामुल्ला और कुपवाड़ा में कई जगह बंकर या तो मौजूद नहीं हैं या फिर बदहाल हैं। इनमें छत, बिजली या बुनियादी सुविधाओं तक का अभाव है। सैयद बताते हैं, “मैंने 2005 में 3 लाख रुपये में अपना खुद का बंकर बनाया था। अब हर कोई तो इतना खर्च नहीं उठा सकता। सरकार को कदम उठाना ही चाहिए।”
अब बंदूकें शांत हैं और शांति लौट आई है, लेकिन माहौल में अनिश्चितता अभी भी कायम है। प्रभावित क्षेत्रों से निकाले गए ज्यादातर लोग लौट आए हैं या लौटने की प्रक्रिया में हैं, लेकिन उनका डर खत्म नहीं हुआ है। फिर भी, वे हालात से निपटने और जिंदगी फिर से ढर्रे पर लाने की कोशिश कर रहे हैं, जो आसान नहीं है।
करनाह के एक निजी स्कूल के प्रिंसिपल और सिविल सोसाइटी करनाह के महासचिव राजा वकार ने ‘संडे नवजीवन’ को बताया, “अपने खेतों पर लौटना हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती होगा। वहां जिंदा (बिना फटे) गोले हो सकते हैं। हम अतीत में देख चुके हैं कि कितने ही गोले तब पाए जाते हैं जब पूरी तरह शांति का दौर होता हैं। हालांकि बम निरोधक दस्तों ने इलाके में अभियान चलाकर अनेक गोले हटा दिए हैं, लेकिन डर तो अब भी बना हुआ है।” नुकसान बहुत गहरा हुआ है। राजा वकार कहते हैं कि गोलाबारी के निरंतर भय के साथ-साथ नुकसान और विस्थापन के कारण स्थानीय लोगों, खासकर बच्चों में व्यापक चिंता, अवसाद और जो कुछ देखा-भोगा है, उससे उपजे तनाव के कारण अजब तरह के विकार के हालत पैदा हो गए हैं।
वकार कहते हैं, “एक और बड़ी चिंता युवा पीढ़ी का भविष्य है, जो मनोवैज्ञानिक रूप से कमजोर हैं। जम्मू-कश्मीर के अन्य हिस्सों के बच्चों के विपरीत, नियंत्रण रेखा के पास रहने वाले लोग तोपखाने की आग के लगातार खतरे के कारण तमाम तरह के मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का शिकार हैं।”
श्रीनगर के एक क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ. वसीम काकरू इसकी पुष्टि करते हैं। वह बताते हैं, “हम आमतौर पर प्रभावित आबादी पर पड़ने वाले भावनात्मक बोझ की अनदेखी कर देते हैं। हमें समझना होगा कि ऐसे हालात में बच्चे और किशोर ज्यादा असुरक्षित महसूस कर सकते हैं, क्योंकि उनके पास ऐसे दर्दनाक हालात से निपटने का जरूरी अनुभव और वैसा भावनात्मक लचीकापन नहीं होता है।” उन्होंने कहा, “ऐसे दूरदराज के इलाकों में संसाधनों के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े पेशेवरों की कमी लोगों में असुरक्षा बोध और ज्यादा बढ़ाने वाला होता है”। उन्होंने कहा- “सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वाले ज़्यादातर लोग पीढ़ियों से ऐसे झटके झेलते आए हैं, क्योंकि उन्होंने दशकों से युद्ध और झड़पें देखी हैं। डर और असुरक्षा की भावना उनके जीन में घुल-मिल चुका है।”
साफ है कि आगे की राह चुनौतियों भरी है- फिर से घर बनाना, आजीविका दोबारा हासिल करना, आघात से बाहर आकर जीवन को पटरी पर लौटाना आसान तो नहीं है। ऊपर से, सबसे बड़ी बाधा इस बात का अनिश्चय है कि यह शांति कब तक कायम रहेगी! वकार कहते हैं, “हम फिर से शुरुआत करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन सुरक्षा का सवाल हम सब पर मंडरा रहा है।”
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