मोदी सरकार में निर्माण मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा खतरे में, लंबे संघर्ष के बाद हुई थी हासिल

निर्माण मजदूर के कानूनों की राष्ट्रीय समिति का कहना है कि मोदी सरकार जो नई व्यवस्था ला रही है उसमें कई समस्याएं हैं और उससे कहीं बेहतर व्यवस्था 1996 के दो कानूनों में है। इसलिए निर्माण मजदूरों के हक के लिए जरूरी है कि पहले के कानून बने रहने चाहिए।

फोटोः सोशल मीडिया
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भारत डोगरा

हमारे देश में कृषि के बाद सबसे अधिक रोजगार का स्रोत निर्माण या कंस्ट्रक्शन क्षेत्र ही है। यहां तक कि अनेक किसान और खेत-मजदूर भी कठिन समय में निर्माण क्षेत्र में ही कुछ आय अर्जन करते हैं। प्रवासी मजदूरों के लिए भी रोजगार का सबसे बड़ा साधन यही क्षेत्र है।

मजदूरों के एक लंबे संघर्ष के बाद साल 1996 में निर्माण मजदूरों के लिए दो महत्त्वपूर्ण कानून राष्ट्रीय स्तर पर बनाए गए। यह दो कानून हैं- ‘भवन तथा निर्माण मजदूर (रोजगार और सेवा स्थितियों का नियमन) अधिनियम 1996’ और ‘भवन तथा अन्य निर्माण मजदूर कल्याण उपकर अधिनियम, 1996’।

विभिन्न केन्द्रीय श्रमिक संगठनों की भागीदारी से निर्माण मजदूरों की राष्ट्रीय अभियान समिति ने 12 वर्ष तक सतत् प्रयास किया था और तब जाकर ये अधिनियम बने। अन्य प्राविधानों के अतिरिक्त इन कानूनों में यह व्यवस्था है कि जो भी नया निर्माण कार्य हो, उसकी कुल लागत के एक प्रतिशत का उपकर लगाया जाए। इस तरह जो धनराशि उपलब्ध हो उसे निर्माण मजदूरों के कल्याण बोर्ड में जमा किया जाए और इस धनराशि से निर्माण मजदूरों की भलाई के बहुपक्षीय कार्य किए जाएं, जैसे- पेंशन, दुर्घटना के वक्त सहायता, आवास कर्ज, बीमा, मात्तृत्व सहायता, बच्चों की शिक्षा आदि।


इन कानूनों में जो प्रावधान हैं, उसके तहत जैसे-जैसे निर्माण कार्य बढ़ेंगे या महंगाई बढ़ेगी, मजदूरों की भलाई के लिए उपकर के माध्यम से जमा पैसा भी अपने आप बढ़ता रहेगा। हालांकि, इन कानूनों के उचित क्रियान्वयन में कई समस्याएं आईं। विभिन्न समय पर उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ने भी इनके क्रियान्वयन में सुधार के निर्देश दिए। हाल ही इसमें सुधार करने के अदालत के निर्देशों से यह उम्मीद बढ़ी थी कि अब इन कानूनों का क्रियान्वयन बेहतर ढंग से हो सकेगा।

लेकिन अब केंद्र की मोदी सरकार द्वारा नया श्रम कानून लाने पर इस कानून के क्रियान्वयन से जुड़ी राष्ट्रीय अभियान समिति (निर्माण मजदूरों के लिए केन्द्रीय कानून) का कहना है कि इससे 1996 के कानून असरदार नहीं रह जाएंगे। इसके साथ ही यह भी बेहद अनिश्चित हो जाएगा कि इस कानून के अन्तर्गत निर्माण मजदूरों की बहुपक्षीय भलाई की जो भी व्यवस्थाएं हैं, उनका भविष्य क्या होगा। इसी तरह कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण मजदूर कानूनों के अन्तर्गत उपलब्ध मौजूदा हकदारी और कल्याणकारी व्यवस्थाओं का भविष्य भी अनिश्चित हो जाएगा।


इसका अर्थ यह नहीं है कि सामाजिक सुरक्षा की कोई नई व्यवस्था नहीं होगी। इसके बारे में नए मजदूर कानूनों और कोड के प्रयास अपनी जगह हैं, लेकिन राष्ट्रीय अभियान समिति का मानना है कि जिन परिस्थितियों में निर्माण मजदूर काम करते हैं, उनमें नए प्रस्ताव व्यवहारिक और उपयोगी नहीं हैं। एक दशक से भी अधिक समय के निष्ठावान प्रयत्न और संघर्ष के बाद 1996 के कानून अस्तित्व में आ सके थे। और इसके बाद इन कानूनों के बेहतर क्रियान्वयन के लिए अन्य प्रयासों के साथ अदालती प्रयास दो दशक तक चलते रहे। इन प्रयासों के फलस्वरूप अब जब इनके बेहतर परिणाम मिलने का समय आया, तो इन कानूनों के स्थान पर नई व्यवस्था को लाने से मजदूर ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं।

इस संदर्भ में निर्माण मजदूरों के कानूनों के क्रियान्वयन की लड़ाई लड़ने वाली राष्ट्रीय अभियान समिति और इसके अनेक सदस्य संगठनों की बैठक जून अंत में हुई। संगठन का कहना है कि आगे भी उसके प्रयास जारी रहेंगे ताकि अन्य मजदूरों को इस अन्याय से बचाने और उनकी दो दशकों से सुनिश्चित हकदारी को बनाए रखने के उपायों पर विमर्श हो सके।

1996 के कानूनों के अंतर्गत राज्य स्तर पर 36 बोर्ड बन चुके हैं। 4 करोड़ मजदूरों का रजिस्ट्रेशन हो चुका है और अनेक को पेंशन या अन्य लाभ मिलने आरंभ हो गए हैं। इन परिवारों के बहुत से बच्चे छात्रवृत्ति प्राप्त कर रहे हैं। मजदूर चाहते हैं कि उन्हें जो लाभ पहले से मिल रहे हैं, उनमें कोई रुकावट न आए।

निर्माण मजदूर के कानूनों की राष्ट्रीय समिति का कहना है कि जो नई व्यवस्था लाई जा रही है उसमें कई समस्याएं हैं और उससे कहीं बेहतर व्यवस्था 1996 के दो कानूनों में है। इसलिए निर्माण मजदूरों के हक के लिए जरूरी है कि पहले से चल रही व्यवस्था बनी रहनी चाहिए।

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