संस्कृति के सिपाही गिरीश कर्नाड की जैसी चाहत वैसी ही विदाई

गिरीश कन्नड़ भाषा से ही जीवन-रस पाते थे। इसीलिए इंग्लैंड के ऑक्सफोर्ड में पढ़ाई के बाद भी वे वहां या कहीं और विदेश में नहीं बसे, भारत लौटे और जो कुछ रचा वह सब कन्नड़ में। गिरीश कर्नाड अव्वल दर्जे के अध्येता-नाट्य लेखक थे। बहुत सधे हुए और साहसी निर्देशक थे।

फोटोः सोशल मीडिया
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कुमार प्रशांत

मुझे अच्छा लगा कि गिरीश रघुनाथ कर्नाड को संसार से वैसे ही विदा किया गया जैसे वे चाहते थेः नि:शब्द! कोई तमाशा न हो, कोई शवयात्रा न निकले, कोई सरकारी आयोजन न हो, तोपों की विदाई या उल्टी बंदूकें भी नहीं, कोई क्रिया-कर्म भी नहीं, भीड़ भी नहीं, सिर्फ निकट परिवार के थोड़े से लोग हों- ऐसी ही विदाई वे चाहते थे।

मुंबई में समुद्र के पास, बांद्रा में उनके अस्त-व्यस्त घर में लंबी चर्चा समेटकर हम बैठे थे। जीवन का अंत कैसे हो, ऐसी कुछ बात उस दिन वैसे ही निकल पड़ी थी और मैंने कहा था कि कभी बापू-समाधि (राजघाट) पर, शाम को घूमते हुए अचानक ही जयप्रकाशजी ने कहा, “मुझे यह समाधि वगैरह बनाना बहुत खराब लगता है। जब ईश्वर ने वापस बुला लिया, तो धरती पर अपनी ऐसी कोई पहचान छोड़ने में कैसी कुरूपता लगती है। हां, कोई बापू जैसा हो कि जिसकी समाधि भी कुछ कह सकती है, तो अलग बात है। समाज परिवर्तन की धुन में लगे हम सबकी समाधि इसी समाधि में समाई माननी चाहिए।”

बापू की समाधि की तरफ देखते-देखते उन्होंने यह बोला और फिर मेरी तरफ देखते हुए कहा, “ तुम लोग ध्यान रखना कि मेरी कोई समाधि कहीं न बने।” गिरीश बड़े गौर से मुझे सुनते रहे, “आज जयप्रकाश की समाधि कहीं भी नहीं है। वे चाहते थे कि उनका शरीरांत पटना में गंगा किनारे हो और इस तरह हो कि गंगा सब कुछ समेटकर ले जाएं। ऐसा ही हुआ। आज यह पता करना भी कठिन ही होगा कि उनका अंतिम संस्कार कहां हुआ था। गिरीश धीमे से बोले, “अच्छा, यह सब तो मुझे पता ही नहीं था। मैं जेपी को जानता ही कितना था। लेकिन कुमार, यह अपनी कोई पहचान छोड़ कर न जाने वाली बात बहुत गहरी है। बहुत गहरी।”

अभी मैं सोच रहा हूं कि क्या गिरीश को यह सब याद रहा और उन्होंने भी एकदम बेआवाज जाना पसंद किया। अब तो यह पूछने के लिए भी वे नहीं हैं।


मैं उनको जानता था, पढ़ा भी था; मिला नहीं था कभी। इसलिए ‘धर्मयुग’ के दफ्तर के अपने कक्ष में जब धर्मवीर भारती जी ने मुझसे कहा, “प्रशांतजी, ये हैं गिरीश कर्नाड,” तो मैंने इतना ही कहा था, “जानता हूं।” फिर भारती जी ने उनसे मेरा परिचय कराया। गिरीश कर्नाड ने वैसी ही आत्मीयता से हाथ आगे बढ़ाया जैसी आत्मीयता उनके चेहरे पर हमेशा खेलती रहती थी। जब तक गीतकार वसंत देव उनसे मेरे बारे में कुछ कहते रहे, वे मेरा हाथ पकड़े सुनते रहे और फिर बोले, “मुझे बहुत खुशी हुई यह जानकर कि ऐसे गांधीवाले भी हैं।” मैंने कुछ टेढ़ी नजर से उनकी इस टिप्पणी को देखा तो हंस पड़े, मानो कह रहे हों, इसे अनसुनाकर दो भाई।

यह 1984 की बात है। यह ‘उत्सव’ की तैयारी का दौर था- शूद्रक के अतिप्राचीन नाटक ‘मृक्षकटिक’ का हिंदी फिल्मीकरण। शशि कपूर से मेरा परिचय था तो मैं जानता था कि वे ऐसी किसी फिल्म की कल्पना से खेल रहे हैं। बात गिरीश कर्नाड की तरफ से आई थी। तब कला फिल्मों का घटाटोप था। शशि कपूर मसाला फिल्मों से पैसे कमाकर, कला फिल्मों में लगा रहे थे। मुझे कभी-कभी लगता था कि उनकी इस चाह का कुछ लोग अपने मतलब के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। ‘उत्सव’ के साथ भी कुछ ऐसा ही तो नहीं?

भारती जी बोले, “चलिए, यह भी देखते हैं।” वे चाहते थे कि उनकी तरफ से मैं इसके बनने की प्रक्रिया को देखूं-समझूं और फिर इस पर लिखूं। उन्होंने कहा, “फिल्म कैसी बनेगी पता नहीं। जब बन जाएगी तब देखेंगे लेकिन संस्कृत के इस अतिप्राचीन नाटक का, अहिंदी भाषियों द्वारा हिंदी फिल्मीकरण अपने आप में एक दिलचस्प विषय है जिसे आपको आंकना है। खुले मन से इनके साथ घूमिए-मिलिए, बातें कीजिए और फिर देखेंगे कि क्या बात बनती है।”

मैंने बात सुनी, स्वीकार की और तब से गिरीश कर्नाड से मिलना होने लगा। गीतकार वसंत देव मराठी भाषी थे। गिरीश का महाराष्ट्र से रिश्ता कुछ मजेदार-सा था। मां-पिता छुट्टियों में घूमने महाराष्ट्र के माथेरान में आए थे। इसी घूमने में मां ने माथेरान में उनको जनम दिया। आज भी माथेरान के रजिस्टर में लिखा हैः 19 मई 1938; रात 8.45 बजे। सो गिरीश मराठी से अनजान नहीं थे, लेकिन थे कन्नड़भाषी।


भाषा का इस्तेमाल करना और भाषा में से अपनी खुराक पाना, दो एकदम अलग-अलग बातें हैं। गिरीश कन्नड़ भाषा से ही जीवन-रस पाते थे। इसलिए ही तो इंग्लैंड के ऑक्सफोर्ड में पढ़ाई के बाद भी वे वहीं या कहीं और विदेश में बसे नहीं, भारत लौटे और जो कुछ रचा वह सब कन्नड़ में। अमरीकी नाटककार ओ’नील ने ग्रीक पुराणों से कथाएं समेटकर जिस तरह उनका नाट्य-संसार खड़ा किया, उसने गिरीश को अचंभित भी किया और आकर्षित भी। इतिहास, राजनीति, सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराएं, मिथक, किंवदंतियां, यौनिक आकर्षण का जटिल संसार- सबको समेटकर, अपनी देशज जमीन से कहानियां निकालना और उन्हें आधुनिक संदर्भ दे कर बुनना।

गिरीश कर्नाड का यह देय हम कभी भूल नहीं सकते। ‘ययाति’ और ‘तुगलक’ ने इसी कारण रंगकर्मियों का ध्यान अचानक ही खींच लिया कि ऐसी जटिल संरचना को मंच पर उतारना चुनौती थी जिसे गिरीश ने साकार कर दिखाया था। मुझे आज भी यह कहने का मन करता है कि गिरीश कर्नाड अव्वल दर्जे के अध्येता-नाट्य लेखक थे। बहुत सधे हुए और साहसी निर्देशक थे। अभिनय में उनकी खास गति नहीं थी लेकिन वे सिद्ध सह-कलाकार थे।

हिंदी फिल्मों में उनका यह रूप हम सहज देख सकते हैं। कहीं से हमें वह धागा भी देखना व पहचानना चाहिए जो उसी वक्त मराठी में विजय तेंडुलकर, हिंदी में मोहन राकेश और बांग्ला में बादल सरकार बुन रहे थे। यह भारतीय रंगकर्म का स्वर्णकाल था। इब्राहीम अल्काजी, बी.वी. कारंत, प्रसन्ना, विजया मेहता, सत्यदेव दुबे, श्यामानंद जालान, अमल अलाना जैसे अप्रतिम रंगकर्मियों ने इस दौर में अपना सर्वश्रेष्ठ दिया। यह भारतीय रंगकर्म का पुनर्जागरण काल था।

‘उत्सव’ को बनते देखना कई मायने में मुझे खास लगा। इससे जुड़े किसी भी व्यक्ति को संस्कृत नहीं आती थी, तो यह मात्र भाषा का सवाल नहीं था। यह उस पूरी भाव-भूमि से कटकर काम करना था जिसमें ‘मृक्षकटिक’ की रचना हुई थी। ये सभी रचनाकार अंग्रेजी को पुल की तरह इस्तेमाल करते थे। आपसी बातचीत भी। फिर आत्मा की जगह कहां बचती है? सब कुछ बड़ा प्लास्टिक-प्लास्टिक हो रहा था। मैंने यह शशि कपूर से भी कहा, गिरीश से भी लेकिन हुआ तो वही, जो संभव था। ‘उत्सव’ खूबसूरत फिल्म बनी जिसमें खुशबू बहुत कम थी। ‘उत्सव’ का बनना पूरा हुआ और हमारा साथ-संपर्क भी कम-से-कम हुआ।


फिर यह भी हुआ कि गिरीश कर्नाड हमारे दौर में अत्यंत संवेदनशील मन और अत्यंत प्रखर अभिव्यक्ति के सिपाही बन गए। राजनीतिक-सामाजिक सवालों पर वे हमेशा बड़ी प्रखरता से हस्तक्षेप करते थे। निशांत, मंथन, कलियुग से ले कर सुबह, सूत्रधार आदि फिल्मों में आप इस गिरीश कर्नाड को खोज सकते हैं। मालगुडी डेज में गिरीश नहीं होते तो क्या होता, हम इसकी कल्पना करें जरा।

वी.एस. नायपाल जिस नजर से भारतीय सभ्यता की जटिलताओं को देखते-समझते हैं और फिसलते हुए सांप्रदायिक रेखा पार कर जाते हैं, उसे पहली चुनौती गिरीश कर्नाड ने ही दी थी, और वे भी गिरीश कर्नाड ही थे जिन्होंने ‘अरबन नक्सल’ जैसे मूर्खतापूर्ण आरोप और गिरफ्तारी का प्रतिकार करते हुए, बीमारी की हालत में, जब सांस लेने के लिए उन्हें ट्यूब भी लगा ही हुआ था, समारोह में आए थे और गले में वह पोस्टर लटका रखा था जिस पर लिखा थाः ‘मी टू अरबन नक्सल’। अपने मन की बात बोलना अगर नक्सल होना है, तो मैं भी अरबन नक्सल हूं। वे तब संस्कृति के सिपाही की भूमिका निभा रहे थे।

उनसे आखिरी मुलाकात कुछ अजीब-सी हुई, जब मैं किसी से मिलने दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल के रेस्तरां में पहुंचा। ढलता दिन थाऔर खाली कुर्सियों-टेबलों की कतारों के बीच, नितांत अकेले बैठे गिरीश कर्नाड दिखे। उनका ड्रिंक सामने था। लगा मुझे कि वे अकेले नहीं हैं, कहीं खोए हैं। कुछ संकोच से मैं उनके पास पहुंचा। हम मिले। कुछ पहचान उभरी, कुछ खोई। कुछ बातें, कुछ फीकी हंसी। मैंने उनका हाथ दबाया और उस तरफ निकल गया, जिधर मुझसे मिलने कोई बैठा था। गिरीश रेस्तरां के रंगमंच के बीचोबीच कब तक बैठे रहे, मैंने नहीं देखा।

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