मृणाल पाण्डे का लेखः भारत में रेप का हल लिंचिंग या एनकाउंटर नहीं, पुरुषनीत राज-समाज असल जिम्मेदार, बदलना होगा

हमें पुरुष प्रधान व्यवस्था को, जिसके भीतर पड़ोसियों, गवाहों, रेप की रिपोर्ट लिखने वाले कांस्टेबल, जज और मीडिया तक समाज का हर अंग शामिल है, पीड़िताओं की शारीरिक-मानसिक तकलीफ के प्रति संवेदनशील बनाना होगा। वरना कानून बनने के बाद भी ये वारदातें होती रहेंगी।

इलेस्ट्रेशन: अतुल वर्धन
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मृणाल पाण्डे

इसमें दो राय नहीं हो सकती कि इंसान द्वारा इंसान के खिलाफ किए जाने वाले तमाम अपराधों में बलात्कार जघन्यतम अपराधों में से एक है। पशु जगत में तो बलात्कार होता ही नहीं, यह सिर्फ मनुष्यों की रची उस व्यवस्था की उपज है, जिसमें कम से कम भारत में तो पुरुष ही हावी रहे हैं। उनको अपनी पांच हजार साल पुरानी सभ्यता पर बड़ा गुमान है, फिर भी यह समझ नहीं आ रहा कि वे अपने इस सभ्य मानवीय राज-समाज में इस अपराध पर अंकुश किस तरह लगाएं? किस तरह की न्यायिक व्यवस्था बने जो दोषी को तुरंत वाजिब दंड दे?

इस बाबत वर्मा समिति (2012-13) बनाई गई। बहुत ईमानदारी से उसने देश के बलात्कार कानून में संशोधन किए, जो सराहनीय और चर्चित हैं। पर भारत की न्याय व्यवस्था पर अपनी किताब ‘टॉकिंग जस्टिस’ में समिति की इकलौती महिला सदस्या जस्टिस लीला सेठ लिखती हैं कि वे तीन अनुभवी न्यायविद् जब इस पर विचार करने को बैठे तो उन्होंने पाया कि यह मसला किसी व्यक्ति या स्थान या माहौल से नहीं, राज-समाज की विकृत इकतरफा बनावट से उपजा है।

उनके अनुसार, “इस समिति की बैठकों से हम सबने (महाकवि) गेटे की उक्ति का सच फिर से पहचाना कि ‘हमारी व्यवस्था के तहत बलात्कार के आरोपी से लेकर वकील और न्यायाधीश तक लगभग हमेशा मर्द ही होते हैं। उनकी सारी जिरह सिर्फ एक ही पक्ष का ही नजरिया सामने लाती है। पीड़िता के साथ न्याय हो सके, इसके लिए हमको महिलाओं की बात सुननी होगी।” इसके साथ ही हमको अपनी पुरुष प्रधान व्यवस्था को भी, जिसके भीतर पड़ोसियों, गवाहों, बलात्कार की प्राथमिकी लिखने वाले कांस्टेबल, जज और मीडिया तक समाज का हर अंग शामिल है, बलात्कार पीड़िताओं की शारीरिक-मानसिक तकलीफ के प्रति संवेदनशील बनाना होगा। वरना कानून बनने के बाद भी ये वारदातें होती रहेंगी।

निर्भया कांड के सात बरस बाद आज एक बार फिर तेलंगाना से लेकर हरियाणा और दिल्ली तक में लगातार हुई गैंगरेप और हत्या की वारदातों से देश का गुस्सा उबल पड़ा है। पर सड़क से संसद तक बहसें गवाह हैं कि भीड़ या सत्ता की पहली प्रतिक्रिया डंडा चलाई की होती है। लिहाजा एक महिला सांसद कहती हैं कि रेपिस्ट को भीड़ के हवाले कर दो! अन्य सांसद कहते हैं कि उनको चौराहे पर फांसी दे दो। इसी अतिवादी मानसिकता के तहत उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने बड़े धूम-धड़ाके सहित सड़कों पर महिलाओं के खिलाफ छेड़छाड़ निरोधी दस्ते: एंटी रोमियो स्क्वॉयड का गठन किया था। बताया गया कि सड़क छाप रोमियो के दलन से अब ‘माताओं-बहनों’ की सुरक्षा चाक चौबंद ही नहीं होगी, उनके खिलाफ हर तरह की हिंसा पर भी लगाम लगेगी।


पर इसके बाद हमने उसी प्रदेश में कुलदीप सेंगर सरीखे बड़े रसूखदार विधायक पर नाबालिग पीड़िता द्वारा बलात्कार का आरोप लगाते और इस ‘जुर्रत’ पर उसका ही नहीं उसके परिवार का भी उत्पीड़न होते देखा। भीड़तंत्र की हिम्मत बढ़ी तो अनेक युवक (तथा उनकी महिला मित्र भी) बलात्कारियों की बजाय इन दस्तों (और उनकी देखा-देखी डंडा लेकर निकल पड़े स्वयंभू जनसेवकों) के हाथों सरे आम पिटने लगे। जब कुछ गलत मामलों की तफतीश की मांग उठी, तो कहा गया कि लंबे अराजक दौर से बिगड़े सूबे में महिलाओं के विरुद्ध हर तरह की छेड़छाड़ और हिंसा बस इसी तरह से जड़ से खत्म की जा सकती है।

गौर से देखें तो बलात्कारियों को चौराहे पर फांसी देने की मांग और एंटी रोमियो स्क्वॉयड सरीखे दस्तों का गठन भारतीय राज-समाज के बुनियादी मनोविज्ञान पर रोशनी डालता है। इसके तहत औरत होने का मतलब पुरुषों द्वारा गढ़ी लक्ष्मण रेखाओं के भीतर बनी रहना है। वह रेखा पार की तो सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं। कहीं भी इस पर बात नहीं हुई कि मर्दों की तथाकथित पाशविकता उनका कुदरती स्वभाव नहीं, उनको जन्मना थमा दी गई बेपनाह ताकत और औरत को एक पुरुष की संपत्ति मानने की धारणा से पैदा होती और बल पाती है। रपट लिखवाने को गई लड़कियों और उनके परिजनों को कई बार जिस तरह सरेआम धमकाया, घसीटा या पीटा गया, उससे यह भ्रम कतई खत्म हो गया है कि कानूनी संशोधन के बाद भी हमारे राज-समाज या थानों के भीतर नारी सुरक्षा पर गंभीर विचार संभव है।

मसलन, कुलदीप सेंगर पर आरोप लगाने वाली लड़की ही नहीं, उसके सारे परिवार का जो हाल हुआ और आज भी तेलंगाना के मंत्री महोदय जिस तरह पूछते हैं कि लड़की ने बलात्कार होने पर पुलिस की बजाय अपनी बहन को क्यों फोन लगाया? उससे जाहिर है कि औसत बलात्कारी, उसका पीछा करने वाला नेता या सड़क छाप रोमियो, पुलिस वाले या किसी वाहिनी के मुच्छड़ सदस्य, जिस पृष्ठभूमि से आते हैं, वे नाना वजहों से औरतों को लेकर घोर प्रतिगामी और धर्मभीरु खयाल रखते हैं। हो सकता है कि मीडिया के आगे प्रभारी के बतौर कभी-कभार कोई पुलिस अफसर अब महिलाओं से अंग्रेजी चेंप कर नरमाई से बात करे, लेकिन कहीं न कहीं उसके भीतर भी वही संस्कार हैं जिनके तहत थाना परिसर के पास भी बलात्कारी लड़की उठाकर ले जाते हैं, और चाहे परिसर के भीतर लगी देव मूर्तियों के आगे रोज अगरबत्ती जलाई जाती हैं, नारी को पूजनीय वे नहीं मानते। रात को काम से वापस लौटने वाली या बलात्कार की रपट लिखाने आई हर महिला को संदिग्ध नजरों से देखा जाता है। इसी डर से आम महिला अकेली पुलिस के पास जाने से कतराती है।

हमारे अधिकतर थाने महिलाओं की जरूरतों के तहत नहीं, बल्कि पुरुषों के द्वारा इकतरफा तरीके से रचे राज-समाज के आतंक प्रतीकों की तरह कायम हुए हैं। यही वजह है कि बलात्कार या घरेलू हिंसा रोकने को सिर्फ महिला पुलिस की तैनाती भी बेअसर होती है। कई घटनाओं में खुद महिला पुलिसकर्मी भी हिंसा और यौन उत्पीड़न की शिकार हुई हैं, इसकी एक ताजा घटना यूपी के ही इटावा की है। बलात्कार के अलावा भी दहेज उत्पीड़न (2280 से 2407), बलात्कार (2247), शारीरिक बदसलूकी (7667 से 9386), अपहरण (9535 से 11,577) तथा अन्य तरह के महिला उत्पीड़न (10,263 से 11,979) की तादाद और बढ़त की रफ्तार इस साल पहले से कहीं अधिक है।


इनमें से ज्यादातर अपराध घरों के बाहर नहीं, भीतर हुए। ऐसी घरेलू हिंसा तभी प्रकाश में आती है जब किसी मामले में पानी सर से ऊपर गुजर गया हो। वर्ना आमतौर पर बात-बेबात महिलाओं पर हाथ उठाने या उनको लगातार शाब्दिक क्रूरता का निशाना बनाने को हमारे पुरुषनीत राज-समाज से (जिसमें पुलिस, न्यायिक व्यवस्था के सदस्य और जनप्रतिनिधि सभी शामिल हैं) परंपरा के नाम पर सांस्कृतिक स्वीकृति मिलती रही है। और होते-होते अधिकतर लड़कों को ही नहीं, लड़कियों तक को पुरुषों का गुस्से में या नशे में गाली-गलौज करना और कभी-कभार हाथ छोड़ना पौरुष का प्रतीक लगता है जिसे चुपचाप सह लेना सुशील नारीत्व है। जब तक मारपीट लगभग जानलेवा न हो, पुलिस तथा परिवारजन सभी पीड़ित महिला को स्थिति से तालमेल बिठाने की नेक सलाह देते हैं।

अब सोचिये ऐसे परिवारों के लड़के और युवक किस तरह के संस्कारों के बीच बड़े होते होंगे? उत्तर प्रदेश हो कि दिल्ली, पुलिस ही नहीं, डॉक्टरों तथा महिला हित से जुड़ी गैर-सरकारी संस्थाओं सबका यही अनुभव है कि सड़क नहीं बल्कि अपने ही घर की चारदीवारी के भीतर परिवारजनों के हाथों बरपा की जाने वाली हिंसा लड़कों को पुरुष बनने पर महिला पर हिंसा के लिए उकसाती है। सरकार बार-बार भावुक होकर हमें मंच से माताओं-बहिनों के सशक्तीकरण के लिए काम करने का उपदेश देती रही है। वह क्या हम को बताएगी कि जिन महिलाओं को हम आंटी या बहिनजी या माता जी सरीखे पारिवारिक विशेषणों से विभूषित नहीं करते, वे हमारे लिए क्या हैं? एक मुहल्ले भर का कबीलाकरण संभव भी हो, तो भी इस विविधता भरे विशाल देश का क्या करें?

परिवार बड़ों के लिए सामाजिकता की बुनियादी इकाई है, तो बच्चों के लिए भी बड़ों से सामाजिकता का पाठ सीखने की पाठशाला। हमारे शहरी घरों में कई महिलाएं पढ़ी-लिखी कमासुत हों तब भी बचपन से ही घर के लोगों का बेटे के जन्म, फिर लड़कों को खान-पान से लेकर शिक्षा तक में लड़कियों से कहीं अधिक महत्व देने वाले घरों में पली हैं। उनके पति, भाई या अन्य पुरुष रिश्तेदार भी बचपन में घर में शादी में लड़की वालों का पलड़ा नीचे होने और उनसे दान-दहेज, बारात के खानपान की बाबत बढ़-चढ़कर मांग करना जायज ठहराया जाता देखते हैं। घर के पुरुष घर भीतर माता, बहन, भाभी, बहू या बेटियों से तीखेपन से पेश आते और यदाकदा महिलाएं उनसे पिटती भी हैं, इससे भी वे अनजान नहीं।

अदालती जिरहों से लेकर कॉरपोरेट बोर्ड की बैठकों और संसद में जनप्रतिनिधियों के बयानात से साफ है कि काफी ऊंचे पदों पर आसीन पुरुष भी अपनी जमात का वर्चस्व और मानसिक-शारीरिक क्रम में महिला को कमतर मानने की मानसिकता से पीड़ित हैं। उम्मीद है अब तक न सही देश के नेतृत्व को, पर इस लेख के पाठकों को कुछ कुछ समझ आने लगा होगा, कि भारत में बलात्कार का सवाल ऐसी सरल सचाई नहीं जिसका किसी एक अपराधी को भीड़ के हवाले कर देने या सरेआम चौराहे पर फांसी देने या लड़कियों, बच्चियों को शाम आठ बजे के बाद घरों के भीतर बंद रखने सरीखा सहज हल हो।

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