सोनिया गांधी: अकल्पनीय स्थितियों के बीच देश और परिवार के लिए जिम्मेदारी निभाता एक रहस्यमयी व्यक्तित्व

निश्चित रूप से यह वह जिंदगी तो नहीं थी जिसका सपना सोनिया गांधी ने ऑक्सफर्ड में राजीव गांधी के प्रेम बंधन में बंधने के वक्त देखा होगा। लेकिन नियति ने उन्हें एक ऐसे परिवार का हिस्सा बना दिया जिसकी किस्मत अटूट रूप से भारत के साथ जुड़ी हुई थी।

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कुमार केतकर

सोनिया गांधी के रहस्यमयी व्यक्तित्व को समझने की कोशिश करने से पहले लिए यह समझना और जानना जरूरी है कि इतिहास ने नेहरू परिवार को क्या भूमिका या जिम्मेदारी सौंपी है। मैं दो कारणों से 'वंश' शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहता। पहला तो यह कि सोनिया गांधी का जन्म नेहरू परिवार में नहीं हुआ था। और दूसरा इसलिए क्योंकि 'वंश' शब्द भारत के नागरिकों को सिर्फ 'प्रजा' तक सीमित कर देता है। ऐसी प्रजा जो यूं तो देश की विनम्र और मूल निवासी है लेकिन जो शासकों के हाथों किसी भी तरह की नाइंसाफी, जुल्म और अपमान को स्वीकार कर लेंगे, चाहे वे स्थानीय हों या विदेशी।

वैसे भी 'वंश' शब्द एक विरासत या वारिस का ऐलान करने की तरफ इशारा करता है। अगर वंश शब्द के ऐसे अर्थ निकाले जाएं तो इससे देश के नागरिक राजनीतिक तौर पर निरक्षर और नादान या भोले नजर आएंगे। लेकिन ऐसा नहीं है और यह बार-बार गलत साबित हुआ है। आखिरकार, यह भारतीय वोटरों ने ही 1977 में इंदिरा गांधी को हराया और 1989 में राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को दोबारा नहीं चुना। राजीव गांधी की अमेठी से जीत का अंतर भी काफी कम हो गया था। और उस समय नेहरू परिवार का गृह राज्य माने जाने वाले उत्तर प्रदेश ने इस कथित वंश ने सिर्फ 15 कांग्रेसी उम्मीदवार ही चुने थे।

पंडित जवाहर लाल नेहरू भी अपने पूरे कार्यकाल के दौरान 1952, 1957 और 1962 कभी रिकॉर्ड वोटों से नहीं जीते, और पूरे देश में जबरदस्त प्रभाव रखने वाली कांग्रेस पार्टी भी कुल वोटों का 47 फीसदी से ज्यादा नहीं हासिल कर पाई।

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अगर यह परिवार हकीकत में खुद को एक 'वंश' की तरह ही सामने रख रहा होता, या ऐसा दिखा रहा होता और लोग उसके कामकाज को अचंभित होकर प्रजा की तरह देख रहे होते, तो मेनका गांधी के साथ भी ऐसा ही होता, उन्हें भी इसी तरह की तवज्जोह मिलती। देखा जाए तो एक तरह से मेनका गांधी ‘राजगद्दी’ की पहली दावेदार थीं, क्योंकि संजय गांधी अपने बड़े भाई के (सियासत में) आने से लगभग छह साल पहले ही राजनीति में आ गए थे और युवा कांग्रेस के ध्वजवाहक बन चुके थे।

मेनका गांधी हर जगह संजय के साथ जाती थीं, किस्मत से सिर्फ संजय के आखिरी दिन के, जिस दिन एक फ्लाइट ने उनकी जान ले ली। फिर भी यह एक तथ्य है कि नेहरू परिवार का प्रभाव और संजय गांधी की विधवा होने के आभामंडल के बावजूद, मेनका गांधी को लेकर जनसमूह उस तरह कभी  नहीं उमड़ा जिस तरह सोनिया गांधी के लिए उमड़ता रहा। यदि वंशवादी आकर्षण वास्तव में काम करता, तो निश्चित रूप से मेनका गांधी के लिए भी भारीभरकम भीड़ खिंची चली आती, क्योंकि उनके पास तो सोनिया गांधी से विपरीत भारतीय बेटी होने का अतिरिक्त लाभ था। संजय गांधी, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की मृत्यु के बाद कांग्रेस के एक भी व्यक्ति ने मेनका से पार्टी का नेतृत्व संभालने की अपील नहीं की। फिर भी वंशवादी सिद्धांत निश्चित रूप से यह अनिवार्य करेगा कि मेनका गांधी को ही पार्टी का नेतृत्व करने के लिए सामने लाया जाए।

अगर वस्तुनिष्ठ आंकलन करें तो साफ हो जाता है कि देश के सार्वजनिक जीवन में नेहरू-गांधी परिवार के प्रभुत्व के लिए उस परिवार की वंशवादी महत्वाकांक्षाएं नहीं बल्कि परिस्थितियां जिम्मेदार रही हैं।

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1967 के चुनाव को क्षेत्रीय दलों के उत्थान के लिए याद किया जाएगा। तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम या डीएमके, पंजाब में अकाली दल, महाराष्ट्र में शिवसेना, केरल और पश्चिम बंगाल में सीपीएम (एक क्षेत्रीय ताकत के रूप में) , और मध्य प्रदेश, बिहार और उत्तर प्रदेश में विभिन्न जातीय संयोजनों का उत्थान इसी वर्ष में माना जाएगा। ये दल वर्षों से अपने क्षेत्रीय और जातिगत आधारों को मजबूत कर रहे थे और अब इसके परिणाम सामने आ रहे हैं।

इंदिरा गांधी ने कांग्रेसियों से आत्मनिरीक्षण करने और बदलते राजनीतिक हालात का मुकाबला करने के लिए एक नई रणनीति विकसित करने को कहा था। लेकिन, पार्टी के जो परंपरावादी नेता थे, शायद ऐसा करने के पक्ष में नहीं थे। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के 1968 में हुए अधिवेशन में एक तरफ यही हठी, जिद्दी,और दबंग यथास्थितिवादियों और दूसरी तरफ युवा तुर्कों (युवा नेताओं को युवा तुर्क की उपाधि दी जाती थी) की बगावत के चलते ही पार्टी के भीतर अंतर्विरोध उभरकर सामने आने लगे थे।

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अधिवेशन में इंदिरा गांधी ने कहा था कि पार्टी का जोर गरीबी उन्मूलन पर होना चाहिए। लेकिन पार्टी को अपने तरीके से चलाने वाले नेताओं को लगा कि इसके बजाए जोर पार्टी के पुनर्गठन पर दिया जाना चाहिए। इंदिरा गांधी को लगता था कि नक्सली किसी दूसरे देश के एजेंट नहीं हैं; वे लोगों के असली मुद्दों पर ध्यान केंद्रित कर रहे थे, लेकिन उन्होंने तरीका गलत चुना है।

इंदिरा गांधी ने कहा कि, पार्टी को इन मुद्दों को पहचानकर उन्हें हल करना चाहिए। लेकिन इसके विपरीत पार्टी के मुखियाओं को लगा कि नक्सलियों को नियंत्रित करने के लिए उन्हें गिरफ्तार कर मारना चाहिए। इंदिरा गांधी को लगता था कि भूमि सुधार समस्या का एक हल हो सकता है। लेकिन पार्टी मुखियाओं ने जमींदारों का साथ दिया और भूमि सुधार के लिए उठाए कदमों का विरोध किया।


यह उस साल की बात है जब यह बहस शुरु हो गई कि एक 22 साल की इतालवी युवती नेहरू-गांधी परिवार की वधु बनकर आई। वह एक शर्मीली लड़की थी, जो अपने नए घर के माहौल को देखकर हतप्रभ और इंदिरा गांधी के करिश्मे से विस्मित थी। और जाने-अनजाने सोनिया गांधी ने भारतीय सार्वजनिक जीवन को जानना-समझना शुरु कर दिया। एक तरह से उन्हें इंदिरा गांधी से ट्यूशन मिलने लगी। किसी भी मध्यवर्गीय इतालवी लड़की के लिए, जिसका इटली राजनीति से भी दूर-दूर तक कुछ लेना-देना नहीं था, भारत की जटिल सियासत को तो छोड़ ही दीजिए, सियासी मैदान में कूदने का फैसला कोई आसान निर्णय नहीं था। अगर उनके पास विकल्प होता तो वह एक गृहिणी बनना ही पसंद करतीं। लेकिन वे तो एक ऐसे परिवार की वधु थीं जो भारतीय राजनीति का पर्याय बन गया था।

बीते 30 साल में (यह बात 2004 में लिखी गई थी), सोनिया गांधी ने 1959 का कांग्रेस का विभाजन और 1971 का चुनाव देखा। उन्होंने दिसंबर 1971 में  पाकिस्तान को परास्त करने के बाद इंदिरा गांधी के सियासी कद को विशाल होते देखा (और अटल बिहारी वाजपेयी ने तो उन्हें दुर्गा का अवतार तक कहा था)। सोनिया गांधी ने जेपी आंदोलन के दौरान देखा था कि किस तरह संपूर्ण क्रांति के नाम पर अराजकता फैल गई थी। उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद की स्थितियां भी देखीं जब इंदिरा गांधी को सत्ता से हटा दिया गया था, जिसे इकोनॉमिस्ट ने सिर्फ गलत जगह पार्किंग करने जैसे अपराध की संज्ञा दी थी। वह उस वक्त भी मौजूद थीं जब रजनी पटेल, सिद्धार्थ शंकर रे और निस्संदेह बेटे संजय गांधी के समझाने के बावजूद इंदिरा गांधी ने इस्तीफा दे दिया था। वे इस बात की भी गवाह हैं कि किस तरह इंदिरा गांधी को अपने ही किए फैसले पर भरोसा नहीं था और उसके प्रभाव को उन्होंने झेला। सोनिया गांधी उन घटनाओं की भी साक्षी हैं जब विपक्ष ने देशभर में आंदोलन की चेतावनी देकर इंदिरा गांधी की सरकार उखाड़ फेंकने का आह्वान किया था और कैसे इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी का ऐलान किया था।


राजनीति के हर उतार-चढ़ाव के दौरान सोनिया गांधी अपनी सास के साथ खड़ी थीं, और उस वक्त भी जब 1977 के चुनावों में उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा था। उन्होंने इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी को भी अपनी आंखों से देखा और शाह आयोग की कार्यवाहियों की भी साक्षी रहीं। सोनिया गांधी की आंखों के सामने ही जनता सरकार गिरा और इंदिरा गांधी की सत्ता में  वापसी हुई, साथ ही खालिस्तान आंदोलन से मिल रही चुनौतियों को भी उन्होंने नजदीक से देखा। और अंतत: सोनिया गांधी ने उस भयावह घटना को देखा जब इंदिरा गांधी का शरीर गोलियों से छलनी कर दिया गया था, वे खुद गोद में उनका सिर रखकर उन्हें अस्पताल लेकर गई थीं। इस घटना के 7 साल बाद नियति ने फिर कुछ ऐसा किया था जब वे चेन्नई से अपने पति का पार्थिव शरीर दिल्ली लेकर आईं।

निश्चित रूप से यह वह जिंदगी तो नहीं थी जिसका सपना उन्होंने ऑक्सफर्ड के उस ग्रीक रेस्तरां में राजीव गांधी के प्रेम बंधन में बंधने के वक्त देखा होगा। लेकिन नियति ने उन्हें एक ऐसे परिवार का हिस्सा बना दिया जिसकी किस्मत अटूट रूप से भारत के साथ जुड़ी हुई थी, तो उन्होंने हकीकत को अपना लिया और शुरुआती संकोच और अनिच्छा के  हुआ था, तो उसने उस वास्तविकता के साथ रहना चुना- शुरू में बड़ी अनिच्छा और बाद में परिवार और देश के प्रति एक नैतिक जिम्मेदारी के तौर पर उसे अपना लिया।

यह एक ऐसे परिवार की गाथा है जिसकी मिसाल भारत के किसी भी अन्य परिवार में नहीं मिलती, और अभी भी कईं परतें और जटिलताएं ऐसी हैं जो आने वाले वर्षों में वक्त के साथ -धीरे सामने आएंगी।

(कुमार केतकर की यह पुस्तक पहली बार 1998 में प्रकाशित हुई और फिर 2004 में इसका संशोधित संस्करण प्रकाशित हुआ।)

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