आर्थिक विषमता और जलवायु परिवर्तन के खतरों से घिरा दक्षिण एशिया, सामना करने के लिए आपसी सहयोग बेहद जरूरी

दक्षिण एशिया में मौजूदा अविश्वास और संदेह के माहौल को कभी न कभी तो दूर करना ही होगा। अब जलवायु बदलाव के दौर में इस तरह के प्रयास पहले से भी कहीं और जरूरी हो गए हैं। इस दौर में इतनी बड़ी आपदाएं आ सकती हैं जिसके बारे में पहले सोचा तक नहीं गया था।

फोटोः सोशल मीडिया
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भारत डोगरा

दक्षिण एशिया क्षेत्र का विश्व में विशेष महत्त्व है। विश्व में हर 5 में से 1 व्यक्ति दक्षिण एशिया में रहता है। विश्व के क्षेत्रफल में दक्षिण एशिया का हिस्सा मात्र 3 प्रतिशत है, जबकि विश्व की जनसंख्या में दक्षिण एशिया का हिस्सा 21 प्रतिशत है। इससे पता चलता है कि दक्षिण एशिया में विकास की चुनौती कितनी बड़ी है।

विशेषकर यहां के सभी लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की चुनौती कठिन है। सबकी जरूरतों को संतोषजनक ढंग से पूरा करने के लिए आर्थिक संवृद्धि के साथ आर्थिक विषमता को कम करने के विभिन्न उपायों का समावेश बहुत जरूरी है और इनका अत्यधिक महत्त्व है।

इसके बावजूद एक बढ़ती चिंताजनक स्थिति हम यह देख रहे हैं कि दक्षिण एशिया के विभिन्न देशों में आर्थिक विषमता को कम करने के लिए प्रतिबद्धता चाहे पहले भी बहुत अधिक नहीं थी, पर अब तो स्थिति और विकट होती जा रही है। दक्षिण एशिया में बुनियादी जरूरतों से वंचित लोग बहुत अधिक हैं और इस दृष्टि से यह विश्व के सबसे समस्याग्रस्त क्षेत्रों में हैं।

इस स्थिति में आर्थिक विषमता कम करने के लिए प्रतिबद्धता कम होती गई तो सभी लोगों की बुनियादी जरूरतों का लक्ष्य भी निरंतर और कठिन होता जाएगा। इसके साथ ही लोगों में व्यापक असंतोष और बढ़ने की संभावना है, जिससे उत्पन्न अस्थिरता में गरीबी दूर करने के लिए योजनाबद्ध ढंग से, निरंतरता से कार्य करना और कठिन हो जाएगा।

आर्थिक विषमता को कम करने में दक्षिण एशिया विश्व के अनेक अन्य देशों की अपेक्षा कितना पिछड़ रहा है, इसका एक अंदाजा हाल ही में तैयार किए गए विषमता कम करने की प्रतिबद्धता के सूचकांक से लगाया जा सकता है। इसे दो अन्तर्राष्ट्रीय संस्थानों डेवेलेपमैंट फाइनेंस इंटरनेशनल और ऑक्सफेम ने आपसी सहयोग से तैयार किया है।

इस सूचकांक या इंडैक्स को तैयार करने का उद्देश्य यह है कि विभिन्न देशों की सरकारों की सामाजिक प्राथमिकताओं के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध करवाने, विषमता कम करने की कर नीति अपनाने और श्रमिक अधिकारों की रक्षा करने की प्रतिबद्धता का कोई विश्वसनीय संकेतक प्राप्त किया जा सके। यह सूचकांक 152 देशों के लिए तैयार किया गया है।


अब अगर हम इन 152 देशों की सूची में दक्षिण एशिया के विभिन्न देशों की तलाश करें तो हमें इनके नाम बहुत नीचे मिलते हैं। 152 देशों की सूची में दक्षिण एशिया के आठ देशों में से 6 देश सबसे नीचे के 20 देशों की श्रेणी में हैं, तो यह निश्चय ही चिंताजनक स्थिति है। विषमता को कम करने के प्रयासों की विफलता या उपेक्षा के संदर्भ में ये आंकड़े एक चेतावनी की तरह हैं। इनसे जरूरी सबक लेते हुए भविष्य में विषमता कम करने पर दक्षिण एशिया के देशों को समुचित ध्यान देना चाहिए।

जब हथियारों पर सबसे अधिक खर्च करनेवाले विकासशील देशों की चर्चा होती है तो उनमें दक्षिण एशिया के देशों विशेषकर पाकिस्तान और भारत की बहुत चर्चा होती है। 125 देशों के सैन्य खर्च के सर्वेक्षण से पता चला कि इससे आर्थिक-सामाजिक विकास पर प्रतिकूल असर पड़ा। जब दो या अधिक पड़ोसी देश हथियारों की दौड़ में उलझ जाते हैं तो यह समस्या और विकट हो जाती है।

दक्षिण एशिया मानव विकास रिपोर्ट ने इस बारे में काफी हिसाब-किताब किया कि कुछ हथियारों के खर्च की विकास के मदों पर खर्च से क्या बराबरी है। इस आकलन के अनुसार:-

  • 1 टैंक की कीमत 40 लाख बच्चों के टीकाकरण के खर्च के बराबर है।
  • 1 मिराज 2000-5 लड़ाकू विमान की कीमत, 30 लाख बच्चों की प्राथमिक स्कूली शिक्षा के एक साल के खर्च के बराबर बैठता है।
  • एक आधुनिक पनडुब्बी और उससे जुड़े उपकरण की कीमत 600 लाख लोगों को एक साल तक साफ पीने का पानी देने के खर्च के बराबर है।

इन अनुमानों से यह स्पष्ट है कि हथियारों की दौड़ दक्षिण एशिया के सभी देशों के लिए बहुत महंगी है। इस विनाशक दौड़ से सभी देशों को बचना चाहिए और विकास तथा पर्यावरण की रक्षा के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध करवाने चाहिए। आपसी कलह के स्थान पर पर्यावरण की रक्षा और विकास के जरूरी कार्यों में आपसी सहयोग बढाना चाहिए।


आगामी वर्षों में यह जरूरत और बढ़ने वाली है, क्योंकि जलवायु बदलाव के दौर में तरह-तरह के प्रतिकूल मौसम में यहां के लोग प्रभावित होंगे। दक्षिण एशिया की गिनती उन क्षेत्रों में होती है जहां जलवायु बदलाव का असर बहुत विकट रूप में नजर आने की पूरी संभावना है।

दक्षिण एशिया में तटीय क्षेत्र बहुत लंबा है और मालदीव तथा श्रीलंका जैसे टापू देश भी हैं। जलवायु बदलाव के दौर में समुद्र का जल-स्तर बढ़ने के कारण सबसे अधिक खतरे समुद्र तट के पास रहने वाले लोगों के लिए उपस्थित होंगे। बंगलादेश की स्थिति विशेष तौर पर नाजुक मानी गई है। मालदीव जैसे छोटे टापू देश के लिए तो अस्तित्व का खतरा है।

इसके अतिरिक्त जलवायु बदलाव के अधिक प्रतिकूल असर पर्वतीय क्षेत्रों में नजर आने की भी संभावना है और दक्षिण एशिया में अन्य पर्वतीय क्षेत्रों के अतिरिक्त हिमालय-हिंदूकुश पर्वतों का बहुत विशाल क्षेत्र है। यहां के ग्लेशियर पिघलने का बहुत व्यापक असर पर्वतों के अतिरिक्त नीचे के घनी आबादी वाले मैदानी क्षेत्रों पर भी पड़ेगा, जहां पहले बाढ़ की समस्या विकट हो सकती है और बाद में सूखे की। जलवायु बदलाव के इस दौर में मिलजुल कर, परस्पर सहयोग से कार्य करना और आपदाओं से रक्षा के लिए आपसी सहयोग से कार्य करना पहले से भी कहीं और जरूरी हो गया है।

दक्षिण एशिया में मौजूदा अविश्वास और संदेह के माहौल को कभी न कभी तो दूर करना ही होगा। अब जलवायु बदलाव के दौर में इस तरह के प्रयास पहले से भी कहीं और जरूरी हो गए हैं। इस दौर में इतनी बड़ी आपदाएं आ सकती हैं जिसके बारे में पहले सोचा तक नहीं गया था। अब यह बहुत जरूरी हो गया है कि नई बहुत गंभीर चुनौतियों का सामना करने के लिए आपसी सहयोग से कार्य किया जाए।

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