आकार पटेल का लेख: रैलियों में भाषणों से लोगों को मजा तो आता है, लेकिन इससे न तो वोट मिलते हैं और न ही समर्थन

राजनीतिक रैलियों में लोग बिजली, पानी-सड़क और रोजगार जैसे मुद्दों के हल के लिए नहीं बल्कि मजे के लिए आते हैं, ऐसे में रैलियों में आए लोगों को किसी दल विशेष के लिए समर्थन मान लेना या इस आधार पर वोटिंग होने की बात कहना सही नहीं होगा।

फोटो : सोशल मीडिया
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आकार पटेल

25 साल पहले महात्मा गांधी के पौत्र तुषार गांधी ने मुंबई चुनाव लड़ा था। समाजवादी पार्टी के टिकट पर वे बांद्रा ईस्ट विधानसभा सीट से उम्मीदवार थे। उन्होंने शिवसेना के मधुकर सरपोदतार के खिलाफ चुनाव लड़ा था। सरपोतदार की 2010 में मृत्यु हो गई। सरपोतदार एक गुंडा था जो बाबरी विध्वंस के बाद मुस्लिम विरोधी दंगों में शामिल था। उसे दो बार सेना ने बंदूक के साथ गिरफ्तार किया था। इस चुनाव में तुषार गांधी पैदल घूम-घूमकर प्रचार करते थे। मैं उन दिनों मुंबई में एक रिपोर्टर था।

एक बार मैंने तुषार गांधी से पूछा था कि आखिर जब वह रैलियों में बोलते हैं तो कैसे तैयारियां करते हैं कि क्या बोला जाए। उन्होंने कहा था कि विकास का मुद्दा नहीं चलता है। उन्होंने अपने प्रचार की शुरुआत झुग्गियों से की थी और बिजली, पानी, सड़क, नौकरी जैसी जरूरी सेवाओं की बात की थी। लेकिन उन्हें जल्द ही एहसास हो गया कि सारी पार्टियां करीब-करीब एक जैसी बात ही करती हैं, और इससे निराश वोटर उत्साहित नहीं होते।

रैलियों में, जनसभाओं में तालां और नारेबाज़ी इस बात का प्रतीक होती हैं कि लोग क्या सुनना चाहते हैं। तुषार गांधी ने बताया कि जब वह अपने भाषण में अपने विरोधी पर हमला करते या उनका मजाक उड़ाते तो लोगों को खूब मजा आता और वे ताली बजाते थे। उन्होंने एक मिसाल देते हुए बताया था कि सरपोतदार अकसर अपने भाषण में कहता था कि वह फ्रंट फुट पर खेलेगा, इसके जवाब में गांधी अपने भाषण में कहते कि जो लोग फ्रंट फुट पर खेलते हैं उनके स्टंप होने का खतरा भी रहता है।

वह सभी नेता जो बराबर बड़ी-बड़ी जनसभाएं करते हैं, उन्हें हम-आप से कहीं ज्यादा पचा होता है लोगों की चिंताओं और उनसे जुड़े मुद्दों के बारे में। कुछ हद तक पत्रकार, खासतौर से टीवी और इंटरनेट पत्रकार भी इन मुद्दों को कुछ अलग तरीके से समझते हैं। इन पत्रकारों को टीआरपी के जरिए लोगों का तुरंत फीडबैक मिल जाता है कि कौन सी खबरें या रिपोर्ट पसंद की जा रही हैं और कौन सी नहीं। अखबारों के पत्रकारों को आम लोगों का फीडबैक थोड़ा देर से मिलता है। शायद यही वजह है कि टीवी के मुकाबले अखबार थोड़ा कम सनसनीखेज़ तरीके से खबरें लिखते हैं।

अभी कुछ दिन पहले गृहमंत्री राजनाथ सिंह बिहार में थे। रिपोर्ट्स के मुताबिक अपनी पहली रैली में उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत नरेंद्र मोदी सरकार की पांच साल की उपलब्धियां गिनाकर की। उन्होंने एक अमेरिकी थिंक टैंक का हवाला देकरकहा कि भारत में गरीबी खत्म हो गई है। इन दोनों ही बातों का जनसभा में मौजूद लोगों पर कोई खास असर नहीं पड़ा। इसके बाद राजनाथ ने कहा, “भारत किसी को छेड़ता नहीं है, लेकिन कोई छेड़ता है तो छोड़ता भी नहीं है।” यह सुनते ही लोगों मे जोश आ गया।

इसके बाद उन्होंने बांका, पूर्णिया, अररिया और मधेपुरा में चार रैलियां कीं। हर रैली में उन्होंने अपने भाषण का बातें उलट दीं। उनका फोकस सिर्फ पुलवामा हमले पर था कि कैसे सिर्फ 12 दिन में भारत ने पाकिस्तान को घर में घुसकर मारा।

इससे हमें एक आभास मिलता है कि आखिर वोटर चाहता क्या है? तो क्या माना जाए कि नेताओं को जल्द ही अंदाज़ हो जाता है कि लोग क्या सुनना चाहते हैं और वह उसी पर फोकस करते हैं? जवाब आसान नहीं है। हकीकत तो यह है कि राजनीतिक रैलियों में ज्यादातर लोग सिर्फ मजे के लिए जाते हैं। वे घंटों रैलियों में गुजारत हैं, और कई बार तो पूरा दिन तक। हां, उन्हें बिजली-पानी, अच्छी नौकरी जैसी बुनियादी चीज़े चाहिए, लेकिन इसके लिए वे रैलियों में भाषण सुनने नहीं आते। इसलिए नेताओं को भी सही से अंदाज़ा नहीं होता कि आखिर लोग चाहते क्या हैं।

एक और बात है। भारत चूंकि जाति और समुदाय आधारित राजनीति से ग्रस्त है, इसलिए एक कामयाब नेता बनने के लिए उसका एक अच्छा वक्ता या भाषण देने वाला होना जरूरी नहीं है। कुछ शानदार भाषण देने वाले नेता जरूर हैं। जैसे लालू यादव, बाल ठाकरे, ममता बनर्जी और भी कुछ। कुछ मजबूत नेता भी हैं जैसे मायावती और नवीन पटनायक...इन जैसे नेताओं की लोकप्रियता उनके भाषणों से नहीं, बल्कि उनकी जाति और समुदाय से है। इसलिए कह सकते हैं कि कम से कम इन नेताओं को तो उनकी रैलियों से असली फीडबैक नहीं मिलता होगा।

वैसे भी आजकल रैलियों का इतना महत्व नहीं रह गया है क्योंकि टीवी और इंटरनेट के जमाने में लोगों तक पहुंचने के और भी बहुत से साधन हैं। हां रैलियां एक साथ बहुत बड़ी संख्या में लोगों तक पहुंचने का जरिया जरूर हैं।

मेरा मानना है कि पुलवामा को लेकर जो विमर्श या नैरेटिव सत्ताधारी दल अपना रहा है उसका कोई खास फायदा या नतीजा नहीं निकलेगा या अभी तक निकला है। मुझे नहीं लगता कि मोदी या बीजेपी को पुलवामा या बालोकट के कारण ज्यादा वोट मिलने वाले हैं। हां यह जरूर है कि इससे वे अपने विरोधियों को पाकिस्तानी एजेंट बताकर जरूर लोगों की वाहवाही लूट सकते हैं। लेकिन इसके आधार पर वे वोट देने का फैसला नहीं करने वाले।

ऐसे वक्त में जब भारत में कृषि संकट और रिकॉर्डतोड़ बेरोजगारी है, सरकार अपनी आर्थिक नीतियों के बारे में भरोसे और विश्वास के साथ बात नहीं कर सकती। ऐसे में प्रधानमंत्री सर्जिकल स्ट्राइक और विरोधी दलों के विश्वासघात की बात ही करते हैं। ऐसी बातें सुनने में उन लोगों को मजा आता है, जो पहले ही उनकी विचारधारा से प्रभावित हैं। फिर भी यह कहना कि इस आधार पर लोग वोट देंगे सही नहीं होगा।

तुषार गांधी ने अपने प्रचार के दौरान इसी तरीके को अपनाया था और लोगों को खूब मजा आया था, लेकिन वह न सिर्फ चुनाव हार गए थे, बल्कि अपनी जमानत तक नहीं बचा पाए थे।

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