सत्याग्रह की कोंपलः देश के नौनिहालों ने आजादी के नारों के साथ आंदोलन को दिया अलग स्वरूप

असम में एनआरसी के नतीजों से गैर मुस्लिमों को भी अंदाजा है कि यह प्रक्रिया शुरू हुई, तो वही सब होगा जो नोटबंदी के समय हुआ था- लंबी-लंबी लाइनों में घंटों लगे रहने के बाद भी कुछ ऐसा हासिल नहीं होने वाला जिस पर फख्र किया जा सके। एनआरसी सब पर असर डालने वाला है।

फोटोः सोशल मीडिया
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नवजीवन डेस्क

हम क्या चाहते आजादी, है हक हमारा आजादी,/ है जान से प्यारी आजादी, है प्यारी-प्यारी आजादी,/ आजाद देश में आजादी, आंबेडकर वाली आजादी,/ अशफाक वाली आजादी, बिस्मिल वाली आजादी,/ फुले वाली आजादी, गांधी वाली आजादी,/ भगत सिंह की आजादी, हम लड़के लेंगे आजादी,/ हम लेके रहेंगे आजादी, तुम कुछ भी कर लो आजादी,/ तुम पुलिस बुलाओ आजादी, तुम डंडे मारो आजादी,/ हम नहीं झुकेंगे आजादी, तुम जेल में डालो आजादी,/ हम नहीं रुकेंगे आजादी, हम लेके रहेंगे आजादी,/ अरे सुन ले मोदी आजादी, आरएसएस सुन ले आजादी,/ सब मिलकर बोलो आजादी, जोर से बोलो आजादी,/ ऊंचा बोलो आजादी, हिल जाए दिल्ली आजादी,/ और हिल जाए पटना आजादी, पूरे देश में आजादी,/ आजाद वाली आजादी, बिस्मिल वाली आजादी,/ है प्यारी-प्यारी आजादी, भुखमरी से आजादी,/ गरीबी से आजादी, सामंतवाद से आजादी,/ छुआछूत से आजादी, मनुवाद से आजादी,/ पूंजीवाद से आजादी, मिलकर बोलो आजादी,/ दंगाइयों से आजादी, भाजपाइयों से आजादी,/ संघियों से आजादी, सीएबी से आजादी,/ मिलकर बोलो आजादी, जोर से बोलो आजादी,/ हम लेके रहेंगे आजादी।

इस गीत से आपको कुछ याद आया? फरवरी, 2016 में लगभग इसी तरह का गीत जब जेएनयू में छात्रों के आंदोलन के दौरान गाया गया था, तब बीजेपी और उसके सहयोगी संगठनों ने कन्हैया कुमार समेत तमाम नेताओं को देशद्रोही तक साबित कर दिया था। कन्हैया और उनके साथियों का मामला अब भी कोर्ट में झूल रहा है। इस बार संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) और देशव्यापी राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) के खिलाफ छात्रों के आंदोलन में यही गीत देश भर के विश्वविद्यालय में गाए गए लेकिन कोई शोर नहीं उठा।

वजह बहुत साफ थी। लोगों को सीधे-सीधे समझ में आ रहा था कि अब तक तो उनके पेट पर ही लात पड़ रही थी जिसे वे इस या उस उम्मीद में बर्दाश्त कर रहे थे, लेकिन अब तो उनकी पहचान पर ही प्रश्नचिह्न खड़े किए जा रहे हैं। यही कारण भी है कि आखिरकार, सरकार ने अपने पैर खींच लिए। वैसे, इस गीत का इतिहास जानना जरूरी है। ग्रामीण महिलाओं के अधिकारों के लिए काम कर रहीं कमला भसीन ने इस तरह का गीत पहली बार 1991 में जाधवपुर यूनिवर्सिटी के मंच पर सुनाया थाः मेरी बहनें मांगें- आजादी; मेरी बच्ची मांगें- आजादी; नारी का नारा- आजादी। बाद में, इस गीत के बोलों में तमाम किस्म के तरमीम होते गए। खैर।

यह गीत इस बार लोगों को अपील कर गई लेकिन सरकार समझने में विफल रही। दरअसल, इस बार लोकसभा चुनाव जीतकर आने का मतलब नरेंद्र मोदी-अमित शाह ने यह निकाला कि वे जिस तरह चाहें, जनता को बरगला सकते हैं। इसी सोच के तहत यूनिवर्सिटीज में फीस में मनमानी वृद्धि की गई। जब जेएनयू में फीस वृद्धि का विरोध शुरू हुआ तो सोशल मीडिया के जरिये यह अभियान चलाने की कोशिश की गई कि यह तो होना ही चाहिए क्योंकि फीस काफी कम है। लेकिन उस समय ही, सोशल मीडिया के जरिये ही, लगभग सभी विश्वविद्यालयों में फीस वृद्धि की सूचना सभी जगह तैरने लगी। आईआईटी-आईआईएम से भी सरकार के धीरे-धीरे हाथ खींचने और इन्हें भी काॅरपोरेट हाथों के हवाले करने की सूचनाएं भी फैल ही रही थीं। इससे देश-समाज का एक बड़ा वर्ग प्रभावित हो रहा है- वह मध्यवर्ग भी, जो अपनी खोल में तब तक सिमटा रहता है जब तक कि उसे नहीं लगे कि वह खुद प्रभावित हो रहा है।


सीएए से तो वह कम प्रभावित हो रहा है, लेकिन अमित शाह जिस तरह संसद में कमर पर हाथ रखकर उंगलियां दिखा-दिखाकर, चमका-चमका कर बार-बार कह रहे थे कि एनआरसी पूरे देश में लागू किया जाएगा, उससे यह वर्ग सीधे-सीधे प्रभावित हो रहा है। छात्रों के साथ आम आदमी के भी सड़क पर आने की यही वजह है। सार्वजनिक केंद्रीय विश्वविद्यालय जामिया मिल्लिया इस्लामिया में पुलिस ने जो बर्बरता दिखाई, वह ऊपर का निर्देश था। ऊपर का निर्देश इसलिए कि बीजेपी नेतृत्व को लग रहा था कि यह किसी मुस्लिम शिक्षण संस्थान के साथ किया जा रहा बरताव है। लेकिन वे इस बात की अनदेखी कर गए कि जो छात्र अगली पंक्ति में खड़े हैं, उनमें सिर्फ मुसलमान ही नहीं हैं- बड़ी संख्या गैर मुस्लिमों की भी है। यही बात सार्वजनिक केंद्रीय विश्वविद्यालय अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) समेत सभी शिक्षण संस्थानों के साथ रही।

लेकिन मोदी-शाह जो चश्मा लगाए हुए हैं, उन्हें यह बात समझने में काफी देर लगी कि इस आंदोलन ने अलग रूप अख्तियार कर लिया है और यह नई बात है। पिछले लगभग एक दशक के दौरान कई कट्टरपंथी संगठनों के साथ-साथ कुछ बीजेपी पोषित संगठनों के उकसावे के बावजूद मुसलमानों का अधिकांश बड़ा हिस्सा मोदी और बीजेपी के ट्रैप में नहीं फंस रहे थे- वे सिर्फ देख रहे थे कि सरकार किस-किस तरह क्या-क्या कर रही है। लेकिन इस बार उन्हें लगा कि अब पानी नाक तक पहुंच चुका है और यह उन्हें डुबो देगा। असम में हुए एनआरसी के परिणामों से गैर मुस्लिमों को भी अंदाजा है कि यह प्रक्रिया शुरू हुई, तो वही सब होगा जो नोटबंदी के समय हुआ था- लंबी-लंबी लाइनों में घंटों लगे रहने के बाद भी कुछ ऐसा हासिल नहीं होने वाला जिस पर फख्र किया जा सके। एनआरसी का असर सब पर पड़ने वाला है- उस देश में जहां वे वर्षों से रह रहे हैं, उन्हें अपने, अपने पूर्वजों की नागरिकता साबित करनी होगी, अन्यथा उनके बच्चे भी नागरिकता खो देंगे।

इसीलिए इस पूरे आंदोलन में किसी नेतृत्व की दरकार ही नहीं हुई। जो जहां है, वही इसमें आगे है। इसमें सबके चेहरे अब आपको परिचित इस वजह से लग रहे हैं, क्योंकि ये हमारे-आपके घरों के बच्चे-बच्चियां हैं। ये वे बच्चे हैं जो जानते हैं कि देश तब ही बढ़ेगा जब शिक्षा बचेगी; वे जानते हैं कि शिक्षा नहीं बची तो विकास नहीं होगा; उन्हें पूरी समझ है कि विकास राष्ट्रवाद के नारों से नहीं आने वाला, उसके लिए रीति-नीति ठीक रहनी होगी; वे पढ़-लिख रहे हैं इसलिए उनके पास ये सूचनाएं हैं कि देश की वास्तविक हालत क्या हो गई है।

इसीलिए वे इस बात पर भी नहीं भड़क रहे हैं कि अल्लाह हू अकबर के नारे भी क्यों लग रहे हैं। क्योंकि उन्हें इसका मतलब पता हैः अल्लाह बड़ा नेक है या परमेश्वर महान है। वे ऐसी पीढ़ी के लोग हैं और ऐसे संस्थानों में पढ़-लिख रहे हैं, जहां सभी धर्मों के बच्चे साथ-साथ पढ़ रहे हैं। यही इन बच्चों की खासियत है और यही हमारे भविष्य भी हैं। इन्हें सलाम इसलिए भी कीजिए कि वे रूढ़िवादियों, कट्टरवादियों को लांघकर यहां तक पहुंचे हैं। भारत की असली पहचान ये ही हैं। आशा की वास्तविक किरण।

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