हिंदी में नहीं हो रहा अच्छा इतिहास लेखन, सरकार के हर साल करोड़ों खर्च के बावजूद आखिर क्या है वजह?

सार्वजनिक ज्ञान-क्षेत्र के भारतीय भाषायी इतिहास और पेशेवर अकादमिक इतिहास के बीच एक बहुत बड़ी खाई है जिसे पूरी तरह पाटना तो मुश्किल है लेकिन उनके बीच के फासले को कम करके ऐतिहासिक शोध को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाना जरूरी है।

फोटोः सोशल मीडिया
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रज़ीउद्दीन अकील

यह सवाल सबके मन में कौंधता है कि भारतीय इतिहास को लेकर शोध के काम हिंदी में क्यों नहीं हो पा रहे हैं। इस पर विचार करते हुए कुछ बातें ध्यान में रखनी होंगी ताकि इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए हम किसी नतीजे तक पहुंचें। दरअसल विभिन्न भारतीय भाषाओं और शैलियों में पाए जाने वाले स्रोतों के आधार पर राजनीति, धर्म, संस्कृति, स्थापत्य और चित्रकला, जेंडर (लिंग), जाति और क्षेत्रीय आकांक्षाओं के इतिहास को समझने का प्रयास किया जा रहा है। लेकिन अभी तकरीबन सारा अच्छा काम अंग्रेजी में होता है और उसे अंतरराष्ट्रीय ज्ञान-पटल से जोड़ने का प्रयास किया जाता है। कुछ हद तक बांग्ला, मलयालम और मराठी इतिहास अंग्रेजी के अलावा स्थानीय भाषा में भी लिखा जाता रहा है लेकिन उसका स्तर अंग्रेजी से नीचे रहता है। उत्तर भारत के हिंदी प्रदेशों से आए हुए प्रतिष्ठित संस्थानों के बड़े इतिहासकार हिंदी में पठन-पाठन को अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। यानी, यहां हालत और भी चिंताजनक है।

इसके उलट एक और स्थिति है। औपनिवेशिक काल की अंग्रेजी कट-दलीली को अगर नजरअंदाज कर दिया जाए, तो यह बात यकीन के साथ कही जा सकती है कि हिंदुस्तान में साहित्य-सृजन और इतिहास-लेखन की बहुआयामी परंपराएं प्राचीन काल से मध्य युग होते हुए आधुनिक दौर तक चली आती रही हैं। साहित्यिक परंपराएं न केवल संस्कृत, तमिल और फारसी- जैसी शास्त्रीय भाषाओं में देखने को मिलती हैं, बल्कि मध्यकाल से विभिन्न देशज या क्षेत्रीय भाषाओं- कन्नड़, बांग्ला, मराठी, हिंदी और उर्दू इत्यादि में भी पाई जाती हैं।

यह जानी हुई बात है कि ऐतिहासिक साहित्य- चाहे भाषा के आधार पर विभाजित हो या नाना प्रकार की शैलियों में फैला हुआ हो, कालांतर में यह महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोत का रूप ग्रहण कर लेता है। लेकिन इन स्रोतों की तथ्यात्मकता और साक्ष्य के रूप में उनके बहुमूल्य उपयोग भर की बात नहीं है, अपितु, इस साहित्य का बहुत बड़ा भाग लेखन-शैली के आधार पर अपने आप में इतिहास की हैसियत रखता है। इतिहास, पुराण, वंशावली, चरित, बुरंजी, बाखर और तारीख आदि शैलियों में पेश किए गए लेख शायद मिथकों से भरे पड़े हों, तथ्यों की सत्यात्मकता की कसौटी पर पूरी तरह खरे न उतरें या उनका विवरण सटीक काल-क्रमानुसार न हो, फिर भी वह भारत में इतिहास-बोध और ऐतिहासिक परंपराओं की प्रचुर मिसाल पेश करते हैं। सिर्फ इसलिए कि वह आधुनिक काल की पाश्चात्य ऐतिहासिक पद्धति से कुछ हद तक अलग हैं, हम उनके महत्व को सिरे से नकार नहीं सकते।

हां, देशज भाषाई इतिहास की यह बड़ी समस्या जरूर है कि धर्म, जात-पात, क्षेत्रीयता या भाषायी पहचान की राजनीति और संघर्ष में उनका इस्तेमाल एक हथकंडे के रूप में किया जाता है। संवेदनाएं मामूली और कमजोर होती हैं और उनके ठेकेदार बाहुबलि। वे तय करते हैं कि ऐतिहासिक अनुसंधान से निकलकर आने वाली आवाज को कुचल देना है, ताकि समाज परंपरागत मान्यताओं और विश्वास के मायाजाल में फंसा रहे। नतीजतन, साक्ष्यों और ऐतिहासिक तथ्यों पर सामाजिक और ऐतिहासिक स्मृतियों को तरजीह दी जाती है, तथ्यों की व्याख्या में पक्षपात और पूर्वाग्रह की समस्या उभर कर सामने आ जाती है और ज्ञान-रूपी गंगा को संवेदनशील भावनाओं की गंदी राजनीति से मैली कर दिया जाता है। यह सब दरअसल सत्ता की होड़ में इतिहास के दुरूपयोग की निशानी है।


दूसरी ओर, राजनीतिक विचारधाराओं और ऐतिहासिक यथार्थ के बीच के अंतर्विरोध और अन्य तमाम कठिनाइयों के बावजूद विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों और अकादमिक पत्रिकाओं से निकलकर आने वाला पेशेवर इतिहास अपने बुनियादी उसूलों और रूपरेखा के साथ नए आयाम तलाशता रहा है। भूतकाल से जुड़े प्रासंगिक ऐतिहासिक प्रश्नों का विश्लेषण साक्ष्यों और तथ्यों की प्रामाणिकता के आधार पर किया जाता है। हालांकि, इतिहासकारों के सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ, साहित्यिक भाषा, सैद्धांतिक प्रतिपादन और अवधारणाएं, ऐतिहासिक व्याख्या और विवरण को प्रभावित करते हैं।

एक अच्छे इतिहासकार से यह उम्मीद की जाती है कि वह अपने ऐतिहासिक विवेचन में वस्तुनिष्ठता और निष्पक्षतावाद का परिचय दें। इन्हीं मापदंडों के आधार पर उनके कार्यों की समीक्षा और कद्रदानी होती है, अन्यथा प्रोफेसर तो बहुत बनते हैं लेकिन इतिहास-लेखन के इतिहास में सबको जगह नहीं मिलती। शैक्षणिक संस्थान अपने इर्द-गिर्द की सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों से पूरी तरह कटकर नहीं रह सकते। इसलिए शिक्षण और शोध के विषय अपने समकालीन संदर्भ से प्रभावित होते रहते हैं। फिर भी, सार्वजनिक ज्ञान-क्षेत्र के भारतीय भाषायी इतिहास और पेशेवर अकादमिक इतिहास के बीच एक बहुत बड़ी खाई है जिसे पूरी तरह पाटना तो मुश्किल है लेकिन उनके बीच के फासले को कम करके ऐतिहासिक शोध को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाना जरूरी है।

राजभाषा के नाम पर सरकार प्रति वर्ष करोड़ों रुपये खर्च करती है और गैर हिंदी भाषी प्रदेशों में हिंदी थोपने का मुद्दा गाहे-बगाहे उभरता रहता है। लेकिन, काम कागजी है या सिरे से नदारद। हिंदी की सौतेली बहन उर्दू का मामला भी जग-जाहिर है- बड़े मियां तो बड़े मियां, छोटे मियां सुबहानल्लाह !

हिंदी में गुणात्मक, स्तरीय और अकादमिक ग्रंथों की कमी कोई ढकी-छुपी बात नहीं है। पाठ्य-पुस्तकें तीस-चालीस साल पुराने शोध को बैलगाड़ी की चाल से ढोती हैं। अच्छे मौलिक शोध-प्रपत्र हिंदी में नहीं लिखे जाते हैं। ऐतिहासिक शोध-पत्रिकाएं या तो नहीं के बराबर हैं या उनका स्तर घटिया दर्जे का है। वहीं इतिहासकारों और शोधकर्ताओं को कम-से-कम दो से तीन भाषाओं में महारत होनी चाहिए- ऐसे विद्वान कम ही मिलते हैं। आमतौर पर, साहित्य वाले नया इतिहास नहीं पढ़ते और इतिहासकार अभी भी साहित्य को पूरी तरह मनगढ़ंत समझकर उनके महत्व को नजरअंदाज कर जाना चाहते हैं। यह एक नासमझी है। वैसे, इसे हाल के वर्षों में थोड़ी- बहुत सफलता के साथ दूर करने की कोशिश की गई है।

हिंदी में इतिहास-लेखन और शिक्षण से जुड़ी समस्याओं के निदान के मद्देनजर कुछ काम किए जा सकते हैं। पहला, अंग्रेजी की अच्छी किताबों और अधिकृत पाठ्य-पुस्तकों का अनुवाद आसान जबान में निरंतर होता रहना चाहिए। इसके अलावा हिंदी में भी मौलिक पाठ्य-पुस्तकों का लेखन और प्रकाशन जारी रहे। हिंदी में ऐतिहासिक शोधकार्य को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए।


यह विडंबना ही है कि प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों और संस्थानों के शोधकर्ता अपना शोध-ग्रंथ, जिसके लिए उन्हें पीएचडी की उपाधि मिल सके, हिंदी में नहीं लिख सकते, लेकिन सरकारी बोर्ड हिंदी में अवश्य लिखे होने चाहिए। स्तरीय प्रकाशन को बढ़ावा देने के लिए हिंदी में ऐतिहासिक जरनल या पत्रिकाएं सुचारू रूप से निकाले जाने की जरूरत है। यहां भी सरकारी संस्थानों और वित्तीय योगदान की जरूरत है। हम अकादमिक संस्थानों में घोटालों की बात नहीं करते। यहां समस्या और भी जटिल है। यहां बात सिर्फ प्रायोरिटी (प्राथमिकता) और ग्लैमर (अंग्रेजी की चमक-झमक) की भी नहीं है बल्कि विभिन्न प्रसंगों में स्वार्थ और नीयत की भी है।

यह भी विडंबना ही है कि भारतीय भाषायी साहित्य निम्नवर्गीय इतिहास और महत्वाकांक्षाओं की भी अक्कासी करता है, वहीं अकादमिक संस्थानों में ब्रिटिश औपनिवेशिक काल से उच्च तबकों के सामंती लोग आधुनिकता का चोला ओढ़कर अपनी पैठ बनाए बैठे हैं। परिणाम स्वरूप, पिछड़े वर्गों से उठकर आने वाले न जाने कितने कबीर-दबीर का गला घोंट दिया जाता है। इसके अलावा, नए शोध को आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता है। पब्लिक डोमेन में न्याय की बात उठाना राजनीतिक प्रोपगंडे का रूप धारण कर लेता है। इसके बरअक्स, अकादमिक संस्थानों में गुरु-चेला, जात-पात, क्षेत्रीयता और धार्मिक सांप्रदायिकता को विचारधारा और सिद्धांत-रूपी विद्वत जामा पहनाकर ऐतिहासिक अनुसंधान और ज्ञान-विज्ञान की बात की जाती है।

किसी समाज के निरंतर नव-निर्माण में उसके ऐतिहासिक धरोहरों का ज्ञान और उपयोग बहुत बड़ी भूमिका अदा करते हैं। चालीस-पचास साल पहले लिखी गई किताबों को लेकर हम बैठ जाएं, तो पुरानी लकीर के फकीर ही बने रहेंगे जबकि दुनिया कहां से कहां जा चुकी होगी। दुनिया की वही कौमें तरक्की करती हैं जो इतिहास की दिखाई हुई रोशनी में दूर तक निकल जाती हैं। शैक्षणिक संस्थान इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण कड़ी का काम करते हैं। लेकिन मौजूदा दौर में सारा जोर या तो डिग्रियों या उपाधियों पर है या ज्ञान से जुड़ी सत्ता की राजनीति पर। फलस्वरूप, शिक्षा से जुड़े लोगों का, न सिर्फ छात्रों बल्कि शिक्षकों का भी, मानसिक पुनर्गठन नहीं हो पा रहा है। दकियानूसी एक ऐतिहासिक यथार्थ है।

(लेखक रज़ीउद्दीन अकील दिल्ली विश्वविद्यालय इतिहास विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। इस लेख में व्यक्त विचार उनके अपने हैं और इनसे नवजीवन का सहमत होना आवश्यक नहीं है)

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