भारत की अजादी की लड़ाई में निरंतरता, साझेदारी और बलिदानों की कहानी, जरा याद करो कुर्बानी

बंगाल के विभाजन की घोषणा अंग्रेज सरकार ने की तो इसका जमकर विरोध हुआ। इसे धार्मिक और क्षेत्रीय स्तर पर लोगों को बांटने की साजिश के रूप में देखा गया। हिन्दु-मुसलमानों ने अपनी एकता के प्रतीक के रूप में एक दूसरे की कलाई पर राखी बांधी।

फोटो: सोशल मीडिया
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भारत डोगरा

बीसवीं शताब्दी का आरंभ भारत में ऐसे वक्त हुआ जब औपनिवेशिक शासन की लूट के कारण भारतवासियों की समस्याएं चरम पर पहुंच रही थीं। 1896 और 1900 के बीच के अकालों में 90 लाख से अधिक भारतवासी मारे गये। एक ओर लोगों की समस्यायें बढ़ रही थी और दूसरी ओर कांग्रेस के नरमपंथी नेताओं के तौर-तरीकों से कुछ विशेष हासिल नहीं हो रहा था। इससे अधिक उग्र आंदोलनों की ओर लोगों का झुकाव बढ़ने लगा। उस समय तिलक, विपिन चन्द्र पाल, लाला लाजपत राय और अरविन्द घोष जैसे नेताओं के विचार इन नई भावनाओं के अनुकूल थे।

इन नेताओं ने स्पष्ट घोषणा की कि राष्ट्रीय आंदोलन का लक्ष्य स्वराज्य या स्वाधीनता है। उन्होंने जनता के बीच कार्य करने और जनता की राजनीतिक कार्यवाही को अधिक महत्व दिया। इसी समय बंगाल के विभाजन की घोषणा अंग्रेज सरकार ने की तो इसका जमकर विरोध हुआ। इसे धार्मिक और क्षेत्रीय स्तर पर लोगों को बांटने की साजिश के रूप में देखा गया। हिन्दु-मुसलमानों ने अपनी एकता के प्रतीक के रूप में एक दूसरे की कलाई पर राखी बांधी। विशाल सार्वजनिक सभाओं और प्रदर्शनी के साथ-साथ विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं के प्रसार के उपाय अपनाये गये। विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई और विदेशी कपड़ा बेचने वाले दुकानों पर धरने दिये गये। अनेक स्वदेशी स्टोर और कारखाने खोले गये। स्वदेशी आंदोलन को देश के अनेक अन्य प्रान्तों में भी पहुंचाया गया।

स्वदेशी कार्यकर्ताओं को लंबी जेल सजायें दी गई, अनेक छात्रों को शारीरिक दंड़ दिये गये और उन्हें स्कूलों और कॉलेजों से निकाल दिया गया। प्रेस की स्वतंत्रता समाप्त कर दी गई। 1908 में बगांल के नौ प्रमुख नेताओं को सरकार ने प्रान्त बाहर कर दिया। इससे पहले पंजाब में लाला लाजपत राय और सरदार अजीत सिंह के विरुद्ध कार्यवाही की गई थी। 1908 में तिलक को 6 वर्ष जेल की सख्त सजा दी गई मद्रास में चिदंबरम पिल्लै और आंध्र में हरि सर्वोतम राव जैसे नेताओं को भी जेल की सलाखों के पीछे भेज दिया गया।

इन दिनों अनेक मुस्लिम नेताओं जैसे अब्दुर्रसूल, हसरत मोहानी, मौलाना आजाद आदि की सार्थक और साहसपूर्ण भूमिका सामने आई। मौलाना मुहम्मद अली, हकीम अजमल खान, हसन इमाम, मौलाना जफर अली खान, और मजहरूल हक के नेतृत्व में उग्र राष्ट्रवादी अहरार आंदोलन की स्थापना हुई।

1915-17 के दौरान तिलक के नेतृत्व में एक होम लीग ने होम रूल या स्वशासन का आंदोलन चलाया। एनीबेसेंट और सुब्रामन्य अय्यर के नेतृत्व में एक दूसरी होम लीग ने भी ऐसा ही आंदोलन चलाया।


कुछ राष्ट्रवादी युवकों ने बेहद बदनाम और अन्याय और जुल्म के प्रतीक बन चुके ब्रिटिश अधिकारियों के विरूद्ध सीधी हिंसक कार्यवाही भी की। इनमें से कुछ कार्यवाहियां छिटपुट किस्म की थी पर कुछ का अच्छा संगठनात्मक आधार था। अनुशीलन समिति के ढाका खंड की ही 500 शाखायें थी। इस समिति ने पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करने के साथ हर तरह की असमानता दूर करने के लक्ष्य की घोषणा की।

इस बीच अनेक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी विदेश में विशेषकर यूरोप और अमरीका में पहुंचकर वहां भी भारतीय स्वतंत्रता के प्रचार का प्रसार कर रहे थे और इस विषय पर जनमत बना रहे थे। इनमें से कुछ व्यक्ति थे हरदयाल, अजीत सिंह, श्याम कृष्ण वर्मा, वीर सावरकर, मोहम्मद बरकतुल्लाह, सोहनसिंह भखना, भीकाजी कामा, तारकनाथ दास, शैलेन्द्र घोष, महेन्द्रप्रताप सिंह आदि।

अमेरिका और कनाडा से कार्य कर रहे कुछ स्वतंत्रता सेनानियों ने भारत में सशस्त्र विद्रोह के लिए गदर पार्टी का गठन किया। मैक्सिको, जापान, चीन, फिलीपिन्स, सिंगापुर आदि में बसे भारतीय भी इस पार्टी के सदस्य बने। साथ ही गदर पार्टी ने आर्थिक समानता, हिन्दू-मुस्लिम एकता और विश्व बंधुत्व पर जोर दिया।

अमेरिका में बसे कुछ भारतीयों ने भारतीय स्वतंत्रता के लिए मुक्त हृदय से दान दिये और भारत चलकर जीवन बलिदान करने को भी तैयार हो गये। जर्मनी की कुछ सहायता ली गई और भारत के स्वतंत्रता सेनानियों से भी सम्पर्क स्थापित किया गया। भारतीय सेना (अन्य एशिया के देशों में तैनात भारतीय सेना भी) के सदस्यों से भी सम्पर्क स्थापित किया गया। भारत में अमरीका से आये पंजाबी युवक करतार सिंह सराभा ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

21 फरवरी 1915 को सशस्त्र विद्रोह की तिथि निश्चित हुई थी पर ब्रिटिश सरकार को इस बारे में पता चल गया और उसने अनेक प्रमुख व्यक्तियों की गिरफ्तार कर ली जिससे यह योजना विफल हो गई। करतार सिंह, सराभा सिंह सहित गदर पार्टी के 42 सदस्यों की फांसी हुई , 114 को उम्र कैद की सजा दी गई और बहुतों को लंबी जेल सजायें दी गई। जेल से छूटकर इनमें से अनेक नेताओं ने कम्युनिस्ट विचारों और मजदूर आंदोलन को आगे बढ़ाया।

गदर पार्टी से प्रेरित होकर सिंगापुर में 700 सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। वे बड़ी बहादुरी से लडे़ पर अंत में विद्रोह दबा दिया गया। 37 व्यक्तियों को फांसी दी गई। जतिन मुखर्जी नामक क्रान्तिकारी बालसोर में नदी किनारे अपने चार साथियों के साथ बाहर से मंगाये हथियारों का इंतजार कर रहे थे कि उन्हें पुलिस ने घेर लिया और वे पुलिस के साथ बहादुरी से लड़ते हुए मारे गये। उन्होंने भी बहुत साहस और अथक परिणाम से अनेक वर्षों में आजादी के लिए प्रयास किए।

1910 में बस्तर में और 1913 में दक्षिण आंध्र प्रदेश में आदिवासियों ने वन अधिकारों के हनन के विरूद्ध विद्रोह किये। उड़ीसा के खोंड आदिवासियों का एक विद्रोह 1915 के आसपास हुआ जिसे कुचलने के लिए ब्रिटिश सरकार ने यहां के अनेक गांवों को जला दिया। प्रथम विश्व युद्ध के मोर्चे के लिए सस्ते मजदूर ले जाने के सरकारी प्रयासों के विरोध में मयूरभंज और मणिपुर में 1917 के आसपास विद्रोह हुई। दो वर्षो तक छापामार युद्ध चलता रहा। दक्षिण राजस्थान में गोविन्द गुरु के समाज सुधार प्रयासों ने 1913 में एक जन विद्रोह का रूप ले लिया। मनगढ़ के पहाड़ पर 4000 भीलों ने अंग्रेजी फौज का डटकर सामना किया। 12 आदिवासी मारे गये और 900 गिरफ्तार हुए।

मेवाड़ की बिजोलिया जागीर में किसानों के 86 तरह के कर या भुगतान देने पड़ते थे। इसके विरूद्ध एक साधु सीताराम दास के नेतृत्व में एक विद्रोह हुआ। बाद में विजय पथिक और मणिक लाल वर्मा ने इसे कर देने से इन्कार करवाने के आंदोलन के रूप में आगे बढ़ाया।

इस बीच दक्षिण अफ्रिका से लौट कर महात्मा गांधी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय हो गये थे। सन 1917 में वे राजेन्द्र प्रसाद, मजहरूल हक आदि के साथ चम्पारण गए जहां नील के किसानों पर बहुत अत्याचार हो रहा था। यहां के किसानों के आंदोलन के फलस्वरूप सरकार उनकी समस्याओं को कम करने के लिये बाध्य हुई।

अगले साल गुजरात के खेड़ा जिले में फसल खराब होने के बावजूद लगान वसूल की जाने लगी, तो गांधी के नेतृत्व में हुए प्रयासों से लगान में छूट मिली। सरदार पटेल भी यहां गांधीजी से जुड़े। महात्मा गांधी ने आरंभ से ही अहिंसा के तौर-तरीकों और सत्याग्रह पर जोर दिया उन्होंने हिन्दू- मुस्लिम एकता, छुआछूत के विरोध और स्वदेशी को सदा महत्व दिया।

भारतीयों के लोकतांत्रिक अधिकारों को हनन करने वाले रौलेक्ट एक्ट के विरूद्ध गांधी ने 1919 में एक सत्याग्रह सभा बनाई जिसमें सदस्यों ने इस कानून का पालन न करने की शपथ खाई। इस वर्ष देश में जबरदस्त राष्ट्रवादी उभार आया। उधर सरकार ने अपनी दमनकारी नीतियों को तेज किया। 13 अप्रैल को अमृतसर मे जलियांवाला बाग में शान्तिपूर्ण विरोध प्रदर्शन कर रहे निहत्थे लोगों पर अंग्रेज फौजी अफसर डायर ने मशीनगनों और राईफलों से तब तक गोलियां बरसाई जब तक गोलियां खत्म नहीं हो गई। लगभग 1000 लोगों की मृत्यु हुई और बहुत बड़ी संख्या में लोग घायल हुए। इसके बाद भी दमन चक्र जारी रखा गया। लोगों को सार्वजनिक रूप से कोड़े मारे गये और उन्हें पिंजरों में कैद किया गया।

इसी वर्ष हिन्दू-मुस्लिम एकता पर जोर देता हुआ खिलाफत आंदोलन आरंभ हुआ। यह भी असहयोग आंदोलन के साथ चला। इसने 1921-22 में बहुत जोर पकड़ा। महिलाओं ने भी आगे बढ़कर हिस्सा लिया। पूरे देश मे विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई। खादी स्वतंत्रता का प्रतीक बन गयी। संयुक्त प्रान्त में बटाईदारों ने जमींदारों की अनुचित मांगे पूरी करने से इंकार कर दिया। असम के चाय बगानों के मजदूरों ने हड़ताल की किन्तु जब आंदोलन जोर पकड़ रहा था तभी आंदोलनकारियों द्वारा चैरी-चैरा, गोरखपुर में पुलिस की गोली के जबाव में 22 पुलिसकर्मियों को मार दिया गया। इसे हिंसा की कार्यवाही मानते हुए अहिंसा पर बहुत जोर देने वाले महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन की वापिस ले लिया। उफान पर जा रहे आंदोलन को रोकने पर बहुत से लोगों की निराशा हुई।

1922 और 1924 के बीच आंध्र के राम्पा क्षेत्र में सीताराम राजू के नेतृत्व में आदिवासियों ने बेगार और शोषण के विरूद्ध विद्रोह किया। मेवाड़ में मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में भीलों ने विद्रोह किया। बिजोलिया का संघर्ष भी आगे बड़ा। अलवर में नीमूचना में 50 प्रतिशत लगान वृद्धि का विरोध कर रहे किसानों पर गोली चलाई गई जिसमें 156 लोग मारे गये और 600 घायल हुए।

वर्ष 1927 के आसपास कांग्रेस में दो युवा नेताओं जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस का उभार देखा गया और इन दोनों ने कांग्रेस में समाजवादी विचार फैलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। विशेषकर युवा वर्ग में जोश आ रहा था और वे वामपंथी राजनीति की ओर आकर्षित हो रहे थे। मानवेंद्र नाथ राय कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के एक नेता के रूप में चुने गये। 1925 में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई। अनेक अन्य मजदूर-किसान पार्टियां भी बनी। 1934 में आचार्य नरेन्द्रदेव और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में कांग्रेस समाजवादी पार्टी की स्थापना हुई।

1928 में बारदोली में सरदार पटेल के नेतृत्व में टैक्स न देने का आंदोलन किसानों ने चलाया और उन्हें सफलता भी मिली। इसी वर्ष मजदूरों की अनेक हड़तालें हुई जिनमें लगभग 5 लाख मजदूरों ने भाग लिया। बंबई की कपड़ा मिलों में कम्युनिस्ट नेतृत्व में ड़ेढ़ लाख मजदूरों की हड़ताल 5 महीनों तक चली। 1929 में 31 प्रमुख मजदूर और कम्युनिस्ट नेताओं को मेरठ षड़यंत्र केस के अन्तर्गत गिरफ्तार कर लंबी जेल सजायें दी गई।

1929 को जवाहरलाल की अध्यक्षता में हुई कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य को कांग्रेस का लक्ष्य घोषित किया गया। नागरिक सवज्ञा आंदोलन 1930 में प्रसिद्ध दांडी मार्च से आरम्भ हुआ 6 अप्रैल को दांडी पहुचकर महात्मा गांधी ने समुद्री तट से मुठ्ठी भर नमक उठाया और इस प्रकार नमक-कानून को तोड़ा। देश के अन्य भागों में भी नमक कानून तोड़ा गया। फिर कुछ भागों में जंगल कानून तोड़ा गया। अनेक जगह पर लगान और अन्य कर देने से लोगों ने इंकार कर दिया। विशेषकर विदेशी वस्त्र और शराब के विरोध में स्त्रियों की बहुत उत्साही भूमिका देखी गई।

उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रान्त में ’सीमांत गांधी‘ या खान अब्दुल गफ्फार खान के नेतृत्व में पठान लाल कुत्र्ती वाले सत्याग्रहियों (खुदाई खिदमतगारों) ने बहुत उत्साहवर्धक भूमिका निभाई। चन्द्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में गढ़वाली सैनिकों ने अपने इन पठान भाईयों पर गोली चलाने से इन्कार कर दिया। नागालैंड में रानी गिडालू ने बहुत साहसपूर्ण संघर्ष किया।

लाठी-गोली से निर्मम दमन करते हुए सरकार ने लगभग एक लाख सत्याग्रहियों को गिरफ्तार कर लिया। सैंकडों लोग मारे गये और हजारों घायल हुए। दक्षिण भारत में विशेष रूप से अधिक दमन हुआ। आंध्र में एलोरा नामक स्थान पर पुलिस की गोलियों से अनेक लोग मारे गये। 1932-34 मे सविनय अवज्ञा के दूसरे दौर मे फिर इतनी ही गिरफ्तारियां और दमन हुए।

1936 में स्वामी सहजानंद सरस्वती की अध्यक्षता में अखिल भारतीय किसान सभा के नाम का पहला राष्ट्रीय स्तर का किसान संगठन बना। विभिन्न रजवाड़ो मे भी राजनीतिक जागृति फैल रही थी। इसमें समन्वय के लिए 1927 में ऑल इंड़िया स्टेटस पीपल्स कांग्रेस की स्थापना की गई थी। जयपुर, राजकोट, कश्मीर, हैदराबाद और ट्रावनकोर में जन-संघर्ष चलाये गये।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 8 अगस्त 1942 को बंबई में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की एक मीटिंग में भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव पास किया गया। 9 अगस्त को गांधी और अन्य प्रमुख कांग्रेस नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया और कांग्रेस को गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया।

इसके विरोध में पूरे देश में हड़ताल हुई, विरोध प्रदर्शन हुए, ब्रिटिश शासन के प्रतीक स्थानों जैसे पुलिस स्टेशनों पर हमले हुए। म्रदास और बंगाल सबसे अधिक प्रभावित हुए। अनेक स्थानों पर विद्रोहियों का अस्थाई कब्जा हो गया। बलिया, मिदनापुर, सतारा इन जिलों के कुछ भागों में तो समानांतर सरकार तक बना ली गई।

सरकार ने घोर दमन चक्र चलाया। मशीनगनों के उपयोग के अतिरक्त हवाई बमबारी भी की गई। पुलिस और सेना की गोलीबारी में 10000 से अधिक लोग मारे गये। गांववासियों पर कोड़े बरसाये गये और अनेक गांवों पर विद्रोह के लिये भारी जुर्माने लगाये गये।

इस दौरान स्वतंत्रता की लड़ाई की केवल एक लहर नहीं थी और कुछ अन्य लहरों पर आगे बढ़ते हुए शहीद भगतसिंह और सुभाष चन्द्र बोस जैसे वीर विशेष रूप से भारतवासियों की आंख के तारे बने। विशेषकर शचिन्द्रनाथ सान्याल के प्रयासों से क्रान्तिकारियों ने वर्ष 1923 में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन नाम से एक अखिल भारतीय पार्टी की स्थापना की थी। इस संगठन को शीघ्र ही एक बड़ा धक्का लगा जब काकोरी केस में अनेक प्रथम पंक्ति के नेता गिरफ्तार हो गये। रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाकुल्लाह और दो अन्य क्रान्तिकारियों को फांसी की सजा दी गई और अन्य को लंबी जेल सजायें दी गई।

इसके बावजूद विशेषकर कानपुर और लाहौर में क्रान्तिकारियों ने अपने संगठन के प्रयास जारी रखे। लाहौर में भगतसिंह, सुखदेव और भगवतीचरण वोहरा ने और कानपुर में राधामोहन गोकुल और हसरत मोहानी आदि नेताओं ने न केवल संगठन को मजबूत किया अपितु उसके समाजवादी रूझान को और स्पष्ट किया। उन्होंने काकोरी के फरार विख्यात क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद और अन्य क्षेत्रों के क्रान्तिकारियों से मिलकर भारतीय स्तर का संगठन बनाने के प्रयास भी किये। कानपुर के जनप्रिय नेता गणेश शंकर विधार्थी ने उन्हें सहायता की और साथ ही उनमें और कांग्रेस के राष्ट्रीय आंदोलन के बीच एक पुल की तरह काम भी किया। सितंबर में दिल्ली में चार प्रान्तों के क्रान्तिकारियों की बैठक के बाद हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी का गठन किया गया।

जनवरी 1929 में सेंट्रल असेम्बली में लोकतंत्र विरोधी और मजदूर विरोधी बिल पेश होने थे। तय किया गया कि भगतसिंह और बटुकेशवर दत्त इस मौके पर असेम्बली में इस तरह से और इस किस्म के बम फेंकेंगे जिससे किसी के जीवन की क्षति न हो और फिर गिरफ्तारी देकर अदालत के मुकदमे के माध्यम से अपनी बात को देश की जनता तक पहुंचायेगें।

यह कार्य तो योजनाबद्ध तरीके से हो गया, पर बाद में अनेक अन्य साथी भी पकड़ लिये गये। उन्होंने तब भी हार न मानकर अदालत और यहां तक की जेल से भी बड़े साहस और चतुराई से अपने संदेश को जनता तक पहुंचाया। ये युवक भारतीय जनता के लाड़ले बन गये। उनकी लम्बी और कष्टदायक भूख हड़ताल ने पूरे देश को चिन्तित किया। 63 दिन की ऐतिहासिक भूख हड़ताल के बाद क्रांतिकारी जतीन्द्रनाथ दास शहीद हुए। 23 मार्च 1931 को जब भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी दी गई तो जनता पर इसकी व्यापक और गहरी प्रतिक्रिया हुई। इन क्रांतिकारियों के बलिदान ने विशेषकर युवा वर्ग को बहुत प्रेरणा दी और आजादी की लड़ाई को एक नई ऊर्जा दी।

चन्द्रशेखर आजाद इलाहाबाद के एक पार्क में अंतिम समय तक लड़ते हुए पुलिस द्वारा मारे गये। बंगाल में सूर्यसेन ने चटगांव क्षेत्र में क्रांतिकारियों के व्यापक स्तर के संगठन प्रयास किये। उन्हें कुछ महत्त्वपूर्ण सफलतायें भी मिली पर बाद में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और फांसी दी गई।

1939 में विशेष परिस्थितियों में कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने के बाद सुभाष चन्द्र बोस और उनके अनेक वामपंथी समर्थकों ने फारवर्ड ब्लाक की स्थापना की। 1941 में वे भारत की आजादी के लिए विदेश से प्रयास करने के लिए देश से बाहर चले गये। उन्हें सोवियत संघ से पहली उम्मीद थी पर बाद में मजबूरी में उन्हें जर्मनी और जापान से सहायता लेनी पड़ी। उन्होंने सिंगापुर में क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस की सहायता से आजाद हिन्द फौज की स्थापना की। इसका आरभ्भिक कार्य जनरल मोहन सिंह ने किया था। अनेक एशियाई देशों में रहने वाले भारतीय और भारतीय सैनिक इसमें सम्मिलित हुए। साहस और शौर्य की अनेक गाथाओं के बावजूद इस जल्दबाजी में तैयार की गई सेना के लिए ब्रिटिश सेना को हराना संभव नहीं था, विशेषकर जब जापन स्वंय हार चुका था। फिर भी इन शौर्यगाथाओं ने भारत की आजादी की लड़ाई को बहुत प्रेरणा दी। जब आजाद हिंद सेना के गिरफ्तार सैनिकों पर मुकदमे चलाये गये तो पूरे देश में उनके समर्थन की जैसे बाढ़ आ गई। कलकत्ता में उनके समर्थन में लाखों लोग सड़कों पर आ गये और सरकार कुछ करने में असमर्थ थी।


उधर फरवरी 1942 में बंबई में भारतीय नौसेना के जहाजियों ने विद्रोह कर दिया और बड़ी बहादुरी से लड़े। वायुसेना में भी हड़तालें हुई। बंबई में उनके समर्थन में बड़े व्यापक प्रदर्शन और हड़तालें हुई। सरकार को सेना बुलानी पड़ी और दो दिनों में 250 से अधिक लोगों को गोली से मारा गया।

पर इन घटनाओं से स्पष्ट हो गया कि कितना ही दमन हो अब भारत में ब्रिटिश साम्राज्य अधिक दिन नहीं टिक सकता है। पर भारत से जाते-जाते भी ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन ने दो काली करतूतें कर दी। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बंगाल में अकाल की स्थिति की न माफ की जा सकने वाली उपेक्षा की गई जिसके कारण कुछ ही महीनों में लगभग तीस लाख लोगों की मौत हुई। दूसरी त्रासदी यह हुई कि अनेक दशकों से अंग्रेज शासक जिस सांप्रदायिकता को तरह-तरह से फैला रहे थे और प्रोत्साहित कर रहे थे उसने अंत में देश का बंटवारा ही करवा दिया। इस कारण लाखों परिवार विस्थापित हुए और बहुत बड़ी संख्या में लोग मारे गये।

इन दो महान आपदाओं के कारण भारतीय स्वाधीनता का रंग कुछ फीका पड़ गया था। फिर भी इसमें कोई शक नहीं है कि 15 अगस्त 1947 को भारत की स्वाधीनता का दिन एक महान ऐतिहासिक दिन था, जब हम लगभग दौ सौ वर्षों के विदेशी शासन से मुक्त हुए और अपने भाग्य के निर्धारक स्वंय बने।

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