स्वामी विवेकानंद भारत को एक ऐसे आध्यात्मिक संगम के तौर पर देखते थे, जिसका मानस वेदांत अद्वैत का हो और काया इस्लामी

आज यदि वो जीवित होते तो गरीबी, शिक्षा और आरोग्य सेवा के लिए प्रयत्न को ही वास्तविक हिन्दू धर्म के तौर पर देखते। मंदिर और काशी कॉरीडोर का समर्थन कतई नहीं करते। रामेश्वरम की सभा मे बोलते हुए उन्होंने कहा- ’’धर्म रीति रिवाजों पर नहीं, प्रेम पर आधारित होता है।

फोटो : सोशल मीडिया
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मीनाक्षी नटराजन

शिकागो में 1893 में हर मान्यता, आस्था, धर्म के मानने वाले आध्यात्मिक अभ्यर्थियों की एक सभा आयोजित की गई। उस जमाने मे यह एक नई बात थी। विभिन्न धर्मो के दृष्टिकोण को करीब से जानने सुनने का पहला पहल मौका। यह ’’संसद’’ एक तरह का संगम था। उस संसद मे एक युवा संत ने बड़ी गर्मजोशी से अपना उद्बोधन शुरु किया। उनका तो संबोधन भी निराला था। उन्होने ’’अमेरिका के भाईयों बहनों’’ कहकर अपनी बात आरंभ की थी। जबकि ऐसे मंचो पर ’’देवियों, सज्जनों’’ जैसे औपचारिक संबोधन की परंपरा थी। अपने भाषण मे उन्होंने एक अद्भुत कहानी सुनाई।

उन्होंने कहा कि कुएं मे एक मेंढक रहता था। वो कुआं ही उसका संसार था। उसे उस कुएं के बाहर की दुनिया का तो जैसे एहसास ही नही था। एक दिन सागर में रहने वाला मेंढक उस कुएं मे आकर गिरा। उस मेंढक को कुएं के अंधकार, उसके संकुचित दायरे मे घुटन महसूस होती। यह मेंढक कुएं वाले मेंढक को सागर की विशालता के बारे में बताना चाहता था। मगर कुएं वाला मेंढक समझ ही नही पाता। सागर बहुत बड़ा और गहरा है। यह कहने पर वो पूछता कि अच्छा, क्या इस कुएं जितना ही बड़ा है? मेंढ़क के लिए कुआं ही सत्य था। उसकी सोच आगे बढ़ती ही नही थी।

कहानी सुनाने के बाद उस युवा संत ने कहा कि हिन्दू, मुसलमान, ईसाई ऐसे ही कुएं मे रहते है। उसी को सच मानते है। जबकि सत्य अथाह है। हर मान्यता अपने आप मे खूबसूरत है।

ऐसा मुक्त विचार रखने वाले वह युवा वक्ता स्वामी विवेकानंद थे। 12 जनवरी को उनकी जन्म जयंती है। आज जो संगठन उनको अपना हमख्याल बताता है, काश कि वो उनके विचारों को समझता और उसका पालन भी करता।

स्वामी विवेकानंद धर्म को संकुचित दायरों से मुक्त, मानव मूल्य के तौर पर देखते थे। मजहबी तकरार, भेद और मजहब की आड़ मे दोगले व्यवहार और कट्टरता के मुखर आलोचक थे। स्वामी विवेकानंद ’’अद्वैत’’ को मानते थे। वे रामकृष्ण परमहंस के शिष्य थे। रामकृष्ण परमहंस हर धर्म को सत्य के स्रोत के रुप मे देखते थे। निरक्षर होने पर भी उनका ज्ञान विलक्षण था।

शिकागो के धर्म संसद से स्वामी विवेकानंद की प्रतिष्ठा और बढ़ी। वे उपनिषदों का हवाला देकर कहते थे कि जैसे पानी का हर स्रोत नदी, झील, झरना, ताल सरोवर बहकर सागर मे ही समाता है। वैसे ही विभिन्न धार्मिक मान्यताएं सत्य और ईश्वर को समर्पित होती है। उन्होंने कर्मकांडो की कड़ी आलोचना की और धर्म को उससे मुक्त रखने के प्रयास को सराहा।


उन दिनों हिन्दू धर्म के मानने वाले समुद्र यात्रा का निषेध रखते थे। स्वामी जी ने इन तमाम ढकोसलों को दरकिनार कर विदेश यात्रा की और शिकागो पहुंचे। वो मानते थे कि जैसे भोजन बनाते समय पूरी सावधानी सफाई बरती जाती है ताकि खाना खराब न हो जाये। वैसा ही व्यवहार अपनी आस्था के प्रति रखना संकीर्णता है। धर्म को भोजन पात्र बनाना सबसे बड़ी गलती होगी। वो इसे ’’मत छुओ-वाद’’ कहते थे। उनका स्पष्ट विश्वास था कि यह ’’मतछुओ-वाद’’ आस्था को बौना कर देता है। जब तक भूख है, गरीबी है, तक तक उसको मिटाने का प्रयास करते रहना ही वास्तविक अध्यात्म है। ’’भूख से तड़पते लोगों के बीच धर्म चर्चा, उनका अपमान है।’’

उनके लिए देशभक्ति का मतलब था देश की गरीबी, भुखमरी अशिक्षा को खत्म करने का प्रयास। वो कहते थे कि यदि गरीबी और अशिक्षा आपको बेचैन करती है, नींद उड़ा देती है, यश, परिवार, संपदा सब कुछ भूला देने पर मजबूर करती है, तो वह देशभक्ति की पहली सीढ़ी है। फिर समाज द्वारा निर्मित हर बाधा से लड़ने-भिड़ने की चाह और साहस उसका दूसरा तीसरा चरण है।

भारत के भविष्य पर वे कहते थे कि हमे भविष्य मे हर एक पंथ, मत के मानने वालों के बीच भेद को मिटाना है। विशेष अधिकार के चलन का समय लद गया। उनके लिए भारत का मतलब था चैतन्य विकास। वैश्विक समस्याओं के लिए जहां उपभोग पाश्चात्य जगत का उपाय है, वहीं भारत की बुनियाद मे त्याग है। शिकागो की धर्म संसद मे उन्होने कहा कि -’’विभिन्नता मे एकता प्रकृति की योजना है। हिन्दू उसे पहचानता है।’’ हर धर्म एक तय स्थाई सिद्धान्त अध्यात्म स्थापित करता है और उसे सब पर थोपता है। मगर एक कोट सबको फिट नही हो सकता। अतः ’’हिन्दू’’ अनन्त तक पहुंचने के लिए अनेक छवि, तरीके का उपयोग करता है। कोई एक खाका अनिवार्य नही करता। हर एक व्यक्ति के लिए भिन्न जरुरतों को महसूस करता है। स्वामी जी ’’हिन्दू’’ को रुढ़ि बनाने के कतई पक्षधर नही थे। आज जब हम अनेक बार अनेक संगठनो द्वारा ऐसा होते देखते है, तब स्वामी विवेकानंद का व्यापक दृष्टिकोण याद हो आता है।


स्वामी विवेकानंद द्वारा 10 जून 1898 को अपने मित्र मोहम्मद सरफराज हुसैन को लिखा पत्र सौहार्द्र और भाई चारे का सुन्दर उदाहरण है। वो अद्वैत और इस्लाम के बीच साम्य देखते थे। वो लिखते है कि -’’अद्वैत ही हमें हर धर्म और संप्रदाय के प्रति प्रेम का नजरिया देता है। हम मानते हैं कि यही भविष्य है, चैतन्य मानवता का धर्म।’’ ’’मगर हम मानते हैं कि यदि किसी भी धर्म के अनुयायी उस आत्मिक एकता के नजदीक पहुंचे हैं, तो वो केवल इस्लाम को मानने वाले हैं।’’

स्वामी विवेकानंद भारत को आध्यत्मिक संगम के तौर पर देखते थे, जिसका मानस वेदांत अद्वैत का हो और काया इस्लामी फलस्फे का हो। उन्हें छुआछूत और भेद कतई मंजूर नही था। वे मानते थे कि ज्ञान और चेतना आनुवांशिक गुण नही है। धर्म मुक्ति का मार्ग है।

आज यदि वो जीवित होते तो गरीबी, शिक्षा और आरोग्य सेवा के लिए प्रयत्न को ही वास्तविक हिन्दू धर्म के तौर पर देखते। मंदिर और काशी कॉरीडोर का समर्थन कतई नहीं करते। रामेश्वरम की सभा मे बोलते हुए उन्होंने कहा- ’’धर्म रीति रिवाजों पर नहीं, प्रेम पर आधारित होता है।

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