व्यवस्था तो पूरे देश को पीत दृष्टि से एक ही रंग में रंगना चाहती है, जबकि बसंत का पीलापन तो मौलिकता और नव अंकुरण है

प्रकृति एक रंग, एक रूप नहीं। प्रकृति का हर सृजन अपने आप में नायाब है। एक ही की तरह होना तो हृदयहीन, मौलिकता विहीन देखा-देखी कहलाएगी और यह उस दिव्य प्रकृति का अपमान भी होगा।

फोटोः सोशल मीडिया
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मीनाक्षी नटराजन

बसंत पंचमी का दिन वसंत ऋतु की दस्तक है। जैसे प्रकृति अपने हरकारे को वसंत के आगमन का संदेश लेकर भेजती है। पूरे चालीस दिन बाद वसुधा फूलों के दुशाले से महक उठती है। हर नव अंकुरण की शुरुआत पीले रंग से होती है। अतः पांच तत्वों में मिट्टी को पीले रंग से प्रस्तुत किया जाता है। पीला रंग नवाचार, मौलिकता, यौवन और उत्साह का प्रतीक रहा है। उसे वसंत का रंग माना गया है।

बसंत पंचमी वसंतोत्सव का दिन है। माघ महीने में सरसों के फूल से एक तरफ धरती लहलहा उठती है, तो आकाश रंग-बिरंगी पतंगों से थिरकता नजर आता है। शांति निकेतन में गुरुदेव ने बसंत को खूब चाव से मनाया, रंग खेला। यह सरस्वती की उपासना का दिन है। अरसे तक बसंत पंचमी के ही दिन लाहौर की छतों से पतंगें उड़ाई जाती थीं। अब हादसों की वजह से बंद हो गई हैं।

बसंत पंचमी हमारी गंगा-जमुनी तहजीब का अनूठा प्रतीक है। चिश्तिया परंपरा के हजरत निजामुद्दीन औलिया अपने भांजे के गम से उबर नहीं पा रहे थे। तब उनके शिष्य अमीर खुसरो ने बसंत पंचमी के दिन पीले फूलों, दुपट्टों से सजी-धजी महिलाओं को यमुना की ओर जाते देखा। उन्होंने स्वयं भी वैसा भी भेष बनाया और यह देख निजामुद्दीन औलिया हंस पड़े। हर साल उनकी दरगाह पर पीले फूल चढ़ाए जाते हैं। पूरा परिसर बसंती हो उठता है।

दिल्ली से थोड़ी दूर बसे ताज की नगरी आगरा में नजीर अकबराबादी रहा करते थे। वह लोक समाज के शायर थे। ‘आगरा बाजार’ के एक दृश्य में दो लोग फब्तियां कसते हुए यह कहते हैं कि कुछ लोग तो ककड़ी पर भी शेर कह सकते हैं। गोया कि यह टिप्पणी नजीर पर ही थी। वह वाकई तिल के लड्डू, रोटी, बलदेव जी और कंस के मेले पर लिखा करते, तो कृष्ण की लीलाओं पर भी लिखा करते थे। बसंत पंचमी पर भी तबियत से लिखा-

‘जहां में फिर हुई

ए! यारों आश्कार बसंत हुई

बहार के तौसन पै अब सवार बसंत

गुलों में डालियों के डाले बाग में झूले

समाते फूल नहीं पैरहन में अब फूले

दिखा रही है अजब तरह की बहार बसंत’

विगत कई सालों तक बसंत पंचमी के ही दिन उनकी जयंती का आयोजन आगरा में होता रहा है। आज उनके स्मृति स्थल की हालत दयनीय है। इस निजाम से उम्मीद भी नहीं की जा सकती। वह पहले तो चाहेगी कि ‘नजीर’ ‘अकबराबादी’ न होकर प्रयागराजी, वृंदावनी, काशीराजी आदि हो जाएं। व्यवस्था चाहती है कि पूरा भारत एक ही रंग में रंग दिया जाए। इस ख्याल को पीत दृष्टि ही कहना होगा। यह बसंत का पीलापन नहीं है। बसंत का पीलापन तो मौलिकता, नव अंकुरण और नवाचार का द्योतक है। प्रकृति एक रंग, एक रूप नहीं। प्रकृति का हर सृजन अपने आप में नायाब है। एक ही की तरह होना तो हृदयहीन, मौलिकता विहीन देखा-देखी कहलाएगी और यह उस दिव्य प्रकृति का अपमान भी होगा।

खैर, ‘रंग दे बसंती चोला’ 1965 की ‘शहीद’ फिल्म का प्रसिद्ध गीत है। फिल्म भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारियों के जीवन पर बनी। यह गीत रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां आदि द्वारा जेल में ही गुनगुनाया गया था। बसंत के महीने में क्रांतिकारियों ने अपने चोले को बसंती रंग में रंगने का ख्वाब सजाया। उसे अल्फाज दिए। बसंत का पीला रंग क्रांतिवीरों की तरुणाई को शुभंकर प्रतीत होता था। गुलामी की पीत व्यवस्था से लड़ने के लिए वासंती पीतांबर की कल्पना कर डाली। मूल गाने की कुछ पंक्तियां इस तरह थीं-

‘मेरा रंग दे बसंती चोला

इसी रंग में गांधी जी ने, नमक पर धावा बोला

इसी रंग में वीर शिवा ने, मां का बंधन खोला

इसी रंग में भगत, दत्त ने, छोड़ा बम का गोला

इसी रंग में पेशावर में, पठानों ने सीना खोला

इसी रंग में बिस्मिल, अशफाक ने, सरकारी खजाना खोला

इसी रंग में वीर मदन ने, गवर्नमेंट पर धावा बोला

इसी रंग में पद्धकांत ने, मार्डन पर धावा बोला’

‘भगत सिंह का अंतिम गीत’ नाम से 1931 में ‘साप्ताहिक अभ्युदय’ के अंक में यह प्रकाशित हुआ।


यह बसंत पंचमी स्वतंत्रता के पचहत्तरहवें साल में है। हमारा पीत दृष्टिकोण गांधी, भगत, सुभाष, पटेल को एक दूसरे के साथ नहीं देख सकता। मतांतर के बावजूद सम्मान और गरिमा के व्यवहार को भुला बैठी यह पीढ़ी उन महान क्रांतिकारियों के आपसी संबंध की शुचिता की थाह नहीं पा सकती। मगर प्रश्न यह है कि किन्हीं दो व्यक्तियों के निजी दृष्टिकोण का पृथक होना क्या उन्हें शत्रु बना देता है? क्या उन्हें एकमत दिखाने से ही उन दोनों के प्रति आदर प्रदर्शित किया जा सकता है? क्या उनमें चुनाव करना जरूरी है? क्या मतभिन्नता आदर के योग्य नहीं होती? क्यों किसी का एकमत होना उनके सही होने के समतुल्य माना जाता है। स्वतंत्रता के पचहत्तरहवें साल में हमें इतना परिवक्व तो हो ही जाना चाहिए था कि हम मतभिन्नता को प्रतिस्पर्धा या रिपुता न मानते।

आखिर प्रकृति हमें यही तो सिखाती है। वसंत में खिले कोई फूल एक से नहीं होते। उसी से उनका सौंदर्य है। वे एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी भी नहीं होते। प्रकृति में प्रतिस्पर्धा है, तो सौहार्द भी है। सौहार्द कहीं अधिक है। बसंत पंचमी संक्रांति के बाद आती है। पचहत्तरहवें साल में हम भी एक संक्रांति काल से गुजर रहे हैं। ऐसे में याद रखना होगा कि भगत सिंह ने बसंती चोला पहनकर केवल अंग्रेजी अधिनायकत्व से ही लड़ना तय नहीं किया था। वह सामाजिक, आर्थिक, तहजीबी संप्रभुत्व संपन्न वर्ग के अधिनायकत्व से लड़ रहे थे। आज भी वह लड़ाई शेष है। बसंती चोला पहनकर वह लड़ाई जारी रखना हमारी इस पीढ़ी की क्रांति होगी। वसंतागन का सही स्वागत।

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