संसद में सरकार द्वारा दिए गए जवाब भरोसे लायक नहीं
मोदी सरकार ने तथ्यों को बड़े परदों से ढकने की एक नई परंपरा आरंभ की है। होली पर मस्जिदों को ढका जा रहा है, ट्रम्प के भारत दौरे के समय अहमदाबाद-गांधीनगर की झुग्गी बस्तियों को ढका गया था, जी20 सम्मेलन के लिए मुंबई की गरीब बस्तियों को ढका गया था।

न्यूज़ीलैंड के वेलिंगटन स्थित विक्टोरिया यूनिवर्सिटी में पब्लिक हेल्थ एण्ड पॉलिसी की प्रोफेसर अन्ना माथेसन ने अपने एक लेख में बताया है कि सरकारों द्वारा जनता के लिए जो काम किए जाते हैं उनका आधार आँकड़े होते हैं, पर केवल आंकड़ों से समाज की जमीनी हकीकत और जनता की आवश्यकताएं नहीं समझी जा सकती हैं। कोई भी समाज केवल आंकड़ों के आधार पर विकास नहीं करता बल्कि इसके लिए समाज की जमीनी हकीकत को जानना जरूरी है। दुखद तथ्य यह है कि दुनिया की लगभग सभी सरकारें केवल आंकड़ों के आधार पर नीतियाँ तैयार करती हैं और इसका सांख्यिकीय विश्लेषण करती हैं। इन नीतियों में मनुष्य का अस्तित्व महज एक आंकड़ा होता है।
अन्ना माथेसन के अनुसार आंकड़े उपयोगी होते हैं पर इनके साथ हमेशा अनेक अस्पष्ट पहलू और पक्षपातपूर्ण रवैय्या जुड़ा होता है, इनमें समाज की गहराई नजर नहीं आती और वास्तविक दुनिया में होने वाले बदलावों का अभाव रहता है। आंकड़ों को एकत्रित करने में कितनी भी सावधानी बरती जाए, पर इनका उपयोग कौन करता है और इनका विश्लेषण किस प्रकार किया जाता है – इन दोनों संदर्भों से सटीक आँकड़े भी पक्षपातपूर्ण नीतियों का आधार बन जाते हैं। जहां सरकारी संस्थाएं अपनी ही सरकार के लिए आँकड़े जुटाती हैं वहाँ तो पक्षपात तय है, क्योंकि सरकारी आंकड़ों का महत्व सामाजिक विकास से अधिक अगला चुनाव जिताना रहता है।
अन्ना माथेसन ने अपने लेख में केवल समाज की जमीनी हकीकत और जुटाए गए आंकड़ों का ही जिक्र किए है, उन्हें अपने अगले लेख में भारत जैसे देशों का भी जिक्र करना चाहिए, जहां सत्ता के पास ना तो आंकड़े हैं और ना ही समाज की जमीनी हकीकत का ज्ञान। यहाँ एक ही विषय के आंकड़े अवसर और काल के साथ बदल जाते हैं और किसी भी आँकड़े का कोई आधार नहीं रहता। अनेक यूरोपीय देशों में संसद में गलत, अपुष्ट या भ्रामक जानकारी देना एक अपराध है और ऐसे जवाब देने वाले सांसद की सदस्यता भी छिन जाती है पर हमारे देश में संसद में सत्ता में बैठे सांसद लगातार ऐसे ही जवाब देते हैं। ऐसे ही जवाबों पर सत्ता के सांसद मेजें थपथपाते हैं, सभापति विपक्ष को कोसते हैं और प्रश्न पूछने वाले सांसद कोई प्रतिवाद नहीं करते। ऐसे ही जवाबों से देश का विकास हो रहा है, बेरोजगारी और महंगाई कम हो रही है, देश समृद्ध हो रहा है, मणिपुर शांति से लबरेज है और सामाजिक सौहार्द्य चरम पर है।
मोदी सरकार ने तथ्यों को बड़े परदों से ढकने की एक नई परंपरा आरंभ की है। होली पर मस्जिदों को ढका जा रहा है, ट्रम्प के भारत दौरे के समय अहमदाबाद-गांधीनगर की झुग्गी बस्तियों को ढका गया था, जी20 सम्मेलन के लिए मुंबई की गरीब बस्तियों को ढका गया था। इस सत्ता को अपनी चमक-दमक दिखाने के लिए देश को ढकना पड़ता है। यही हाल आंकड़ों और सामाजिक विकास का भी है। विकास का एक पक्ष दिखाने के लिए दूसरे पक्ष को ढकना पड़ता है। पर, तथ्यों को ढकने की आदत अब लत बन चुकी है और जहां नहीं जरूरत है वहाँ भी बहुत कुछ ढक दिया जाता है, परदे के पीछे कर दिया जाता है।
लोक सभा में 4 अप्रैल 2025 को विदेश मंत्रालय ने अरेखांकित प्रश्न 5702 का लिखित उत्तर दिया, जिसके अनुसार पिछले 5 वर्षों के दौरान 12 देशों में भारतीय छात्रों पर 91 हिंसक हमले किए गए, जिसमें से 7 देशों में 30 भारतीय छात्र मारे गए। इस उत्तर का दिलचस्प पहलू यह है कि इसमें कौन से 5 वर्षों का जिक्र है, यह नहीं बताया गया है – जाहिर है हम यही मानेंगे कि शायद वर्ष 2020 से 2024 तक के 5 वर्षों का आकलन है। इस जवाब के अनुसार कनाडा में भारतीय छात्रों पर 27 हमले किए गए, जिसमें 16 छात्रों की मौत हो गई। इसी तरह अमेरिका में 9 हमलों में 9 भारतीय छात्रों की मौत दर्ज की गई, यूनाइटेड किंगडम में 12 हमलों में 1 मौत, जर्मनी में 11 हमलों में 1 मौत, ऑस्ट्रेलिया में 4 हमलों में 1 मौत, चीन में 1 हमले में 1 मौत और कीरगिजस्तान में 1 हमले में 1 मौत दर्ज की गई। रूस में भारतीय छात्रों पर 15 हिंसक हमले किए गए पर कोई मौत नहीं हुई। आयरलैंड में 4 हमले, फ़िलिपींस में 3 हमले, इटली में 3 हमले एयर ईरान में 1 हमला दर्ज किए गया, पर इन हमलों में किसी भारतीय छात्र की मौत नहीं दर्ज की गई। ये सभी आँकड़े 4 अप्रैल 2025 को लोक सभा में दिए गए।
इससे पहले 1 अगस्त 2024 को भी राज्य सभा में ठीक ऐसे ही प्रश्न का विदेश मंत्रालय ने जवाब प्रस्तुत किया था। यह मामला अरेखाकित प्रश्न संख्या 1191 का है। इस जवाब के अनुसार वर्ष 2019 से 2024 के बीच के 6 वर्षों के दौरान विदेशों में केवल 5 देशों में हिंसक हमलों के बाद महज 18 भारतीय छात्रों की मौत हुई। इस उत्तर में ऑस्ट्रेलिया, चीन और यूनाइटेड किंगडम के आँकड़े तो वही हैं, हरेक देश में 1 मौत जो अप्रैल 2025 में भी बताया गया। पर, कनाडा में महज 9 मौत और अमेरिका में 6 मौत ही बताया गया है। इस जवाब में जर्मनी और कीरगिजस्तान का नाम भी नहीं है।
यह सरकार के मंत्रालयों में की जाने वाली आंकड़ों की बाजीगरी का हालिया उदाहरण है। दूसरी तरफ संसद के बाहर भी हरेक मंत्री-संतरी बिना किसी आधार के ही कोई भी आंकड़ा जनता के बीच सुना सकते हैं। हाल में ही उत्तराखंड के बड़बोले मुख्यमंत्री ने बिना किसी रेफ्रन्स के ऐलान किया कि मोदी सरकार ने पिछले 10 वर्षों में 30 करोड़ लोगों को गरीबी की रेखा से बाहर किया। मैन्स्ट्रीम मीडिया में हरेक जगह इस वक्तव्य को प्रमुखता से प्रचारित किया पर किसी ने भी इन आंकड़ों पर कोई पेयशन नाहें किया और ना ही इसके संदर्भ के बारे में सवाल उठाया।
आंकड़ों के बारे में तो प्रयागराज के कुम्भ के दौरान भी सरकारी तौर पर अनेक हास्यास्पद बातें कही गईं। दुर्घटना में मरने वालों की संख्या के बारे में योगी सरकार ने खूब लीपापोती की और संसद में प्रधानमंत्री के वक्तव्य में तो यह संदर्भ ही गायब रहा। पानी की गुणवत्ता के बारे में जिस सेंट्रल पोलयूषन कंट्रोल बोर्ड की जी-भर आलोचना की गई, बाद में उसे संस्थान की दूसरी रिपोर्ट को योगी सरकार से लेकर संसद तक में सरकार ने अपना ढाल बना लिया। आंकड़ों का आलम यह रहा कि दुर्घटना के ठीक बाद के मुख्य स्नान में सबसे अधिक श्रद्धालुओं की संख्या बताई गई, जिससे दुनिया को यह स्पष्ट हो कि सब कुछ बहुत अच्छा था।
अन्ना माथेसन का आंकड़ों पर लेख बहुत अच्छा है, पर इसे सम्पूर्ण बनाने के लिए उन्हें भारत जैसे देशों में आंकड़ों के स्तर पर भी कुछ कहना चाहिए। भारत एक ऐसा देश है जहां आकड़ों के साथ ही सत्ता और मीडिया को समाज की जमीनी हकीकत भी नहीं पता है। मोदी सरकार और मीडिया के पास भारत से अधिक जानकारी तो पाकिस्तान और बांग्लादेश की है।
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