प्रजा नंगी और राजा चंगा: भूखी प्रजा का मजाक उड़ाती पूंजीवादी सत्ता!

सत्ता पर, राजनीति पर और सत्ता से जुड़े संस्थानों पर पूंजीवाद का कब्ज़ा है, जिसके लिए सामान्य आदमी का सांस लेना और मुफ्त के मुट्ठीभर अनाज पर गुजारा ही विकास है।

फोटो: सोशल मीडिया
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महेन्द्र पांडे

हाल में ही नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) ने हाउसहोल्ड कंजम्पशन एक्स्पेंडीचर सर्वे के माध्यम से बताया है कि वर्ष 2022-2023 में औसत ग्रामीण व्यक्ति ने प्रति महीने 3773 रुपये और औसत शहरी नागरिक ने 6459 रुपये प्रति महीने खर्च किया। इस राशि को आप आबादी की औसत आमदनी भी मान सकते हैं। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि शहरी क्षेत्रों में लोगों की आमदनी ग्रामीण क्षेत्रों के आबादी की तुलना में 1.7 गुना अधिक है। इसके बाद नीति आयोग के सीईओ ने वक्तव्य दिया कि इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि देश की आबादी समृद्धि की तरफ बढ़ रही है। वैसे भी सरकार ने अर्थव्यवस्था को जीडीपी में 7.5 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि और 5 खरब डॉलर वाली अर्थव्यवस्था के झांसों में समेट दिया है। देश की भूखी और बेरोजगार आबादी भी 5 ख़रब डॉलर और सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के नशे में मदमस्त है।

नीति आयोग के सीईओ को यदि ऐसे आंकड़ों में समृद्धि नजर आती है, तब उन्हें कुछ महीने 6459 रुपये प्रति महीने के वेतन पर काम करके देखना चाहिए और समृद्धि का अहसास करना चाहिए। दरअसल सत्ता पर, राजनीति पर और सत्ता से जुड़े संस्थानों पर पूंजीवाद का कब्ज़ा है, जिसके लिए सामान्य आदमी का सांस लेना और मुफ्त के मुट्ठीभर अनाज पर गुजारा ही विकास है। एक तरफ तो सत्ता और संसद में पहुंचने का रास्ता ही पूंजीवाद से होकर जाता है, तो दूसरी तरफ हमारे सांसद स्वयं पूंजीपति हैं, उन्हें सामान्य जनता की समस्याओं की कोई जानकारी नहीं है। स्कूलों में पढ़ाया जाता है कि सांसद जनता के प्रतिनिधि होते हैं, नीति आयोग को यह सुझाव तो देना ही चाहिए कि जनता के प्रतिनिधियों का भी वेतन उतना ही होना चाहिए जितना आम जनता का है।

एसोसिएशन ऑफ़ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने सितम्बर 2023 में एक रिपोर्ट प्रकाशित कर बताया था को हमारे देश के सांसदों (लोकसभा और राज्यसभा) में प्रत्येक की औसत संपत्ति 38.33 करोड़ रुपये है और इनमें से 7 प्रतिशत से अधिक सांसद अरबपति हैं। लोकसभा के सदस्यों की औसत संपत्ति का मूल्य 20.47 करोड़ रुपये है। हमारे राज्य सभा तो पूंजीपतियों का अड्डा है, यहां हरेक सांसद की औसत संपत्ति 79.54 करोड़ रुपये है। हरेक करोड़पति और अरबपति सांसद जनता को अपनी गरीबी के किस्से सुनाता है। यही नहीं, देश के किसानों की आमदनी सामान्य जनता से भी कम है और अरबपति सांसद अपने आप को किसान या किसान का बेटा ही बताता है।

एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार देश के 40 प्रतिशत से अधिक सांसदों पर आपराधिक मामले चल रहे हैं और 25 प्रतिशत पर संगीन आपराधिक मामले हैं। आपराधिक छवि वाले सांसद तो सामान्य सांसदों से भी अधिक अमीर हैं। एक स्वच्छ छवि वाले सांसद की औसत संपत्ति 30.50 करोड़ रुपये है, पर आपराधिक छवि वाले सांसदों की औसत संपत्ति 50.03 करोड़ रुपये है। जाहिर है कि सत्ता में बैठे लोग पूंजीपति हैं और पूंजीपतियों के हित के लिए काम करते हैं। पूंजीवाद ने तो अब विकास परियोजनाओं को भी सौगात घोषित कर दिया है और गरीबों को मुफ्त अनाज देकर विकसित भारत का नारा दिया है। प्रधानमंत्री जी हवा में हाथ लहराते हुए हरेक मंच से “आयुष्मान भारत” से गरीबों के मुफ्त इलाज की बात करते हैं। एनएसएसओ की फैक्टशीट के अनुसार ग्रामीण इलाकों में जनता महीने में होने वाले कुल खर्च का 7.13 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 5.91 प्रतिशत खर्च दवाओं और स्वास्थ्य सेवाओं पर करती है। देश के अधिकतर गरीब ग्रामीण क्षत्रों में हैं, जिन्हें प्रधानमंत्री मुफ्त इलाज का ख़्वाब दिखा रहे हैं, फिर वे कौन से लोग है जो ग्रामीण क्षेत्रों में रहने के बाद भी एक शहरी से अधिक खर्च दवाओं और स्वास्थ्य सुविधाओं पर कर रहे हैं?

प्रधानमंत्री जी उज्ज्वला योजना का भी खूब बखान करते हैं, पर एनएसएसओ का सर्वेक्षण इसकी भी विफलता बयां करता है। शहरी आबादी इंधन पर अपनी मासिक खर्चे का 6.26 प्रतिशत खर्च करती है, जबकि उज्ज्वला योजना के तमाम दावों के बीच ग्रामीण आबादी के लिए यह प्रतिशत 6.66 है। यही हाल मुफ्त अनाज और दाल के सरकारी दावों का भी है, ग्रामीण आबादी इसपर शहरी आबादी से अधिक खर्च करती है। इस सर्वेक्षण के आंकड़े सत्ता की नाकामयाबी का बहुत कुछ बखान करते हैं। संभवतः इस रिपोर्ट की बारीकियों का अध्ययन सत्ता ने किया ही नहीं है, बल्कि केवल यह देखा है कि लोगों की क्रय शक्ति बढ़ी है। बारीकी से सत्ता ने इसे देखा होता तो निश्चित तौर पर इस रिपोर्ट का हश्र वही होता, जैसा वर्ष 2017-2018 में हुआ था जब सरकार ने अपनी ही रिपोर्ट को यह कहते हुए नकार दिया था कि इसके आंकड़े ठीक नहीं हैं।

देश में गरीबी कम करने के बदले अब प्रधानमंत्री जी, उनके बडबोले मंत्रियों की फ़ौज और नीति आयोग जैसी संस्थाओं के साथ ही मेनस्ट्रीम मीडिया भी गरीबों और गरीबी का मजाक उड़ाने लगा है, और उनके आंकड़ों में अपनी मर्जी के अनुसार फेर-बदल करने लगा है। केंद्र सरकार वर्ष 2020 से देश के 81.35 करोड़ लोगों को गरीब बताकर उन्हें मुफ्त अनाज दे रही है। यह एक आश्चर्य और शोध का का विषय है कि हरेक मामले में आंकड़े सुविधानुसार बढाने वाले प्रधानमंत्री जी और मेनस्ट्रीम मीडिया लगातार इस संख्या को 80 करोड़ प्रचारित क्यों करती रही है, यहाँ तक कि डीएवीपी द्वारा प्रचारित हरेक पोस्टर में भी केवल 80 करोड़ ही बताया गया है। जाहिर है, सरकार के लिए शेष 1.35 करोड़ आबादी नगण्य है।

वर्ष 2020 से प्रधानमंत्री जी हरेक मंच से, संसद से और यहाँ तक कि फ़ूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाईजेशन के समारोह से भी लगातार 80 करोड़ “गरीबों” को मुफ्त अनाज देने की चर्चा करते रहे हैं। नीति आयोग ने जुलाई 2023 में एक रिपोर्ट प्रकाशित कर बताया कि वर्ष 2015-2016 से 2019-2021 के बीच के 5 वर्षों में 13.5 करोड़ लोग गरीबी की रेखा पार कर चुके हैं। इसके बाद प्रधानमंत्री जी के भाषणों में और रोड के किनारे लगे पोस्टरों में गरीबी से बाहर आ चुके लोगों की सख्या बताई गयी, मोदी जी को धन्यवाद दिया गया, पर फिर भी देश में मुफ्त अनाज के 80 करोड़ लाभार्थियों को “गरीब” ही कहा गया। 29 नवम्बर 2023 को वर्ष 2028 तक मुफ्त अनाज के ऐलान के बाद भी प्रधानमंत्री और उनके मंत्री 80 करोड़ लोगों को “गरीब” बताते रहे।

इसके बाद 7 फरवरी को राज्य सभा में प्रधानमंत्री ने कहा कि पिछले 9 वर्षों में 25 करोड़ गरीब, गरीब नहीं रहे बल्कि मध्यम आय वर्ग में शामिल हो गए हैं, फिर भी 80 करोड़ “गरीबों” को मुफ्त अनाज अगले 5 वर्षों तक मिलता रहेगा। दरअसल, प्रधानमंत्री जी जिस स्त्रोत के अनुसार 25 करोड़ का दावा कर रहे हैं, उसमें वास्तविक सख्या 24.82 करोड़ बताई गयी है। अब तो पिछले 9 वर्षों में 25 करोड़ आबादी के गरीबी-मुक्त होने के बड़े-बड़े पोस्टर भी चारों तरफ लगे हुए हैं, और इसपर सरकारी विज्ञापन भी प्रकाशित किये जा रहे हैं। यह एक गूढ़ रहस्य है कि हमारे प्रधानमंत्री जी गरीबों को मध्यम आय वर्ग तक पहुंचाने का दावा करते हैं, पर मध्यम आय वर्ग में पहुँचने वालों को “गरीब” ही बताते हैं। अगले पांच वर्षो तक इन मध्यम वर्गीय परिवारों को जिस योजना के तहत मुफ्त अनाज मिलेगा, उसके नाम में भी “गरीब” शामिल है – प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना।

गरीबों और मध्यम वर्ग की हंसी उड़ाने वाले केवल प्रधानमंत्री जी ही नहीं हैं, देश का नीति आयोग भी ऐसा ही है। नीति आयोग के सीईओ बी वी आर सुब्रह्मण्यम ने 17 जुलाई 2023 को बताया कि वर्ष 2019-2021 तक देश की 14.96 प्रतिशत आबादी गरीब थी और वर्ष 2015-2016 के बाद के 5 वर्षों में 13.5 करोड़ आबादी गरीबी से बाहर आ गयी। हालां कि देश में कोविड-19 के दौरान गरीबों और श्रमिकों की स्थिति देखकर इन आंकड़ों पर भरोसा करना कठिन है।

इसके बाद अगले 6 महीने के भीतर ही, यानि जनवरी 2024 के शुरू में, नीति आयोग ने एक डिस्कशन पेपर प्रकाशित कर दावा किया कि वर्ष 2022-2023 तक देश में गरीबों की सख्या 11.28 प्रतिशत ही रह गयी और पिछले 9 वर्षों में 24.82 करोड़ आबादी गरीबी मुक्त हो गयी है। जाहिर है, नीति आयोग के दावों के अनुसार वर्ष 2019-2021 से वर्ष 2022-2023 के बीच के एक वर्ष के भीतर ही देश में 5.142 करोड़ आबादी गरीबी से मुक्त हो गयी।

नीति आयोग के आंकड़ों की बाजीगरी यहीं थमी नहीं, बल्कि जनवरी 2024 ने देश की 11.28 प्रतिशत आबादी को गरीब बताने वाले सीईओ बी वी आर सुब्रह्मण्यम ने अगले ही महीने यानि फरवरी 2024 में यह ऐलान कर दिया कि देश में केवल 5 प्रतिशत ही आबादी गरीब है। नीति आयोग के सीईओ की मानें तो एक महीने के भीतर ही देश में गरीबो की संख्या लगभग 8 करोड़ कम हो गयी।

इस नए दावे के बाद, संभव है लोकसभा चुनावों के ऐलान से पहले ही देश को यह बताया जाए कि अब देश में कोई गरीब ही नहीं है, फिर भी देश अगले 5 वर्षों तक केंद्र सरकार 81.35 करोड़ “गरीब” लोगों को मुफ्त अनाज देती रहेगी। मुफ्त अनाज भी निश्चित तौर पर पीएम रिलीफ फण्ड जैसा एक बड़ा घोटाला है, जिसकी विस्तृत जानकारी कभी सरकार नहीं बतायेगी। यह देश के गरीबों का सरकारी स्तर पर भद्दा उपहास भी है क्योंकि 7 फरवरी को प्रधानमंत्री राज्य सभा में 25 करोड़ का आंकड़ा बताते हैं और 25 फरवरी को नीति आयोग इस आंकड़े को लगभग 33 करोड़ तक पहुंचा देता है। देश की सत्ता बौद्धिक तौर पर अत्यधिक गरीब है।

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