भारतीय राज्य यानी इंडियन स्टेट का चरित्र बदल गया है, इस तथ्य को ही तो बयान कर रहे थे राहुल गांधी

भारतीय राज्य का चरित्र बदल गया है। यह कहने से किसी को बुरा क्यों लगना चाहिए? क्या निंदा करने वाले इसे नहीं जानते और मानते?

नई दिल्ली में कांग्रेस पार्टी के नए मुख्यालय के उद्घाटन के मौके पर राहुल गांधी (फोटो : @INCIndia)
नई दिल्ली में कांग्रेस पार्टी के नए मुख्यालय के उद्घाटन के मौके पर राहुल गांधी (फोटो : @INCIndia)
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अपूर्वानंद

क्या राहुल गांधी शिकायती और निराशावादी हैं? जब उन्होंने अपनी पार्टी के सहकर्मियों को कहा कि उनका मुकाबला सिर्फ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से नहीं बल्कि पूरे राज्य से है, तो क्या वह अतिशयोक्ति कर रहे थे? क्या वह इस प्रकार की बातें इसलिए करने लगे हैं क्योंकि चुनाव नहीं जीत पा रहे हैं? और अपनी कमजोरी छिपाने के लिए अब पूरी राज्य मशीनरी पर आरोप लगाने लगे हैं?

पहले संदर्भ जान लें। राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी के मुख्यालय के उद्घाटन के मौक़े पर अपनी पार्टी के सदस्यों को संबोधित कर रहे थे। वह उन्हें यह बता रहे थे कि पार्टी किन परिस्थितियों में काम कर रही है। उसके सामने चुनौतियां किस किस्म की हैं? उन्होंने कहा कि भारतीय जनतंत्र की जमीन बदल चुकी है। राजनीतिक संघर्ष अब न्यायसंगत तरीके से नहीं हो रहा। कांग्रेस पार्टी अब मात्र भारतीय जनता पार्टी या आरएसएस से नहीं लड़ रही। उसके खिलाफ राज्य की तकरीबन सारी संस्थाओं का इस्तेमाल हो रहा है। इसलिए यह अब सामान्य जनतांत्रिक संघर्ष नहीं रह गया है।

क्या राहुल गांधी गलत कह रहे थे? क्या उनकी इस बात में कोई तथ्य नहीं है कि अब विपक्ष को बीजेपी के साथ राज्य के विरोध का सामना करना पड़ रहा है? राज्य से राहुल गांधी का तात्पर्य क्या है? राज्य का मतलब है नौकरशाही, पुलिस, दूसरी जांच एजेंसियां, फौज, चुनाव आयोग या अन्य आयोग जैसी संस्थाएं। शिक्षा संस्थान भी। इस सूची में आप अदालतों को भी शामिल कर लें।

जनतंत्र सुचारु रूप से तभी चल सकता है, जब ये सारी संस्थाएं स्वतंत्र तरीके से काम करें और खुद को राजनीतिक सत्ता से नत्थी न कर लें। अपेक्षा की जाती है कि वे शासक दल के हितरक्षक और प्रचारक की तरह काम नहीं करेंगी। आप चाहें तो इसमें मीडिया को भी जोड़ लें। अगर हमें यथार्थवादी होना है, तो उद्योग जगत को भी जिसे हम आज कॉरपोरेट दुनिया कहते हैं। सिविल सोसाइटी की भूमिका कम महत्वपूर्ण नहीं है। उसका सक्रिय रहना जनतंत्र के लिए जरूरी है और वह सरकार और विपक्ष, दोनों का सहयोग करती है।


क्या इसके लिए उदाहरण देने की जरूरत है कि पिछले 10 वर्षों से ये संस्थाएं स्वायत्त नहीं रह गई हैं और एक तरह से बीजेपी के विभागों की तरह काम कर रही हैं? क्या हम ऐसे अनगिनत मामलों को नहीं जानते जिनमें जांच एजेंसियों ने विपक्षी दलों के नेताओं पर छापे मारे, उन पर मुकदमे दायर किए और जैसे ही वे बीजेपी में शामिल हुए, अपनी गिरफ़्त ढीली कर दी या उनके ख़िलाफ मामले बंद कर दिए? ऐसा करने की कोई मजबूरी इन एजेंसियों को न थी। हमें यह नहीं कहना चाहिए कि ये किसी दबाव में काम कर रही हैं। वे जो कर रही हैं, वह उनका फैसला है। उनके पास पूरा अधिकार है कि इस संबंध में वे निर्णय लें या न लें। अगर वे राजनीतिक सत्ता के इशारे पर भी काम कर रही हैं, तो भी यह उन्हीं का फैसला है और वे इसके लिए जिम्मेवार हैं।

यही बात पुलिस और नौकरशाही के बारे में कही जा सकती है। अगर वे विपक्ष और सरकार के आलोचकों के साथ दुश्मनों की तरह पेश आ रहे हैं, तो इसका अर्थ हुआ कि उन्होंने तय किया है कि वे विपक्ष को काम नहीं करने देंगे।

अगर आज सेनाध्यक्ष बीजेपी सरकार के मंत्री के साथ सार्वजनिक तौर पर हिन्दू भेस में पूजा कर रहे हैं, अगर सेना के अधिकारी सार्वजनिक तौर पर ऐसे बयान देते हैं जो सरकारी दल की विचारधारा के अनुरूप है, तो वे अपने पद की जरूरत के मुताबिक़ काम नहीं कर रहे। बीजेपी के सहयोगी की भूमिका निभा रहे हैं।

तकरीबन सभी शिक्षा संस्थाओं ने बीजेपी और आरएसएस के प्रचार और विस्तार तंत्र की तरह काम करने का फैसला कर लिया है। मीडिया सिर्फ सरकार और बीजेपी का समर्थक नहीं है। वह विपक्ष को बदनाम करने और उसके खिलाफ नफरत फैलाने का काम सक्रिय रूप से और स्वेच्छा से कर रहा है।

संसदीय जनतंत्र तभी चल सकता है जब चुनाव कायदे से कराए जाएं जिनमें सरकारी दल को सत्ता का लाभ न मिले। यह निश्चित करना चुनाव आयोग का काम है। लेकिन वह क्या कर रहा है, सब जानते हैं।


अभी ही दिल्ली का हाल देख लीजिए। चुनाव की तैयारी चल रही है। बीजेपी के नेता और उम्मीदवार पिछले एक महीने में खुलेआम पैसे, साड़ियां, जूते बांट रहे हैं। इस पर चुनाव आयोग ने कुछ किया हो, इसका कोई सबूत नहीं। बीजेपी की ढिठाई बढ़ती जा रही है। पिछले चुनावों में, वे चाहे विधानसभा के हों या लोकसभा के, बीजेपी और उसके नेताओं ने चुनाव आचार संहिता की खुल कर धज्जी उड़ाई। आयोग ख़ामोश रहा।

प्रधानमंत्री से लेकर बीजेपी के लगभग सारे नेताओं ने बेधड़क धार्मिक आधार पर घृणा फैलाते हुए वोट मांगे। आयोग चुप रहा। आयोग पर आरोप लगे कि उसने मतदाताओं की संख्या में हेर-फेर किया है। ये आरोप कई तरफ़ से लगाए गए। सबसे ताजा इल्जाम महाराष्ट्र में मतदाताओं की संख्या में असामान्य इजाफे का था। उसी तरह लगभग हर राज्य में मतदाताओं के नाम काटे जाने के कई मामले सामने आए हैं। यह सब कुछ भाजपा के इशारे पर किया गया है।

आयोग ने ढीठ चुप्पी साध रखी है। आम आदमी पार्टी दिल्ली में मतदाता सूची में हेर-फेर के प्रमाण दे रही है। चुनाव सुधार पर काम करनेवाली एडीआर जैसी संस्था पूछ रही है कि ईवीएम में डाले गए वोटों और कुल गिने गए वोटों की संख्या में अंतर क्यों है? इन सारे सवालों के जवाब में आयोग चुप है। आयोग का दावा है कि वह निष्पक्ष है और उस पर सवाल क्यों उठाया जा रहा है लेकिन अब तो मतदाता भी यह नहीं मानते।

यह भी देखा ही गया कि इन सारी तिकड़मों के बावजूद अगर विपक्ष चुनाव जीतकर सरकार बना भी ले, तो बीजेपी किसी न किसी तरह उसे गिरा देती है। अदालत सब कुछ खामोशी से देखती रहती है। ऐसा पिछले 10 सालों में कई बार किया गया। इसका अर्थ यह है कि जनादेश कुछ भी हो, बीजेपी जोड़-तोड़ कर अपनी सरकार बना लेगी। ऐसी हालत में चुनाव अप्रासंगिक हो जाते हैं। मतदाता भी देखते हैं कि वे कुछ भी करें, सरकार बीजेपी ही बना लेगी। इससे उनके भीतर असहायता का बोध उपजता है। चुनावी चंदे के मामले में चुनावी बांड को अदालत ने ग़ैर कानूनी करार दिया लेकिन तब जब बीजेपी उससे हजारों करोड़ जुटा चुकी।

बीजेपी की इस तिकड़मबाज़ी और ढिठाई को मीडिया उसका कारनामा बतलाता है और विपक्ष की खिल्ली उड़ाता है।

सिविल सोसाइटी को पूरी तरह तोड़ दिया गया है। यह समाज के भीतर नागरिकता का बोध जीवित रखने का काम करती है। पिछले 10 सालों में उसे पूरी तरह निष्क्रिय कर दिया गया है।

ऐसी स्थिति में विपक्ष से उम्मीद करना कि वह बीजेपी से बराबरी का राजनीतिक संघर्ष कर पाएगा, मूर्खता के अलावा और कुछ नहीं।


राहुल गांधी ने यह बात कोई आज कही हो, ऐसा नहीं। वह पिछले कई वर्ष से कहते आ रहे हैं कि विपक्ष के खिलाफ सिर्फ बीजेपी नहीं, आरएसएस का विशाल तंत्र है। लेकिन उससे भी अधिक राज्य की सारी संस्थाएं उसके ख़िलाफ़ हैं।

जो बात आज राहुल गांधी आज कह रहे हैं, वह भारत के मुसलमान और ईसाई काफी पहले से कहते आ रहे हैं। उन्हें सिर्फ बीजेपी या आरएसएस के हमले का सामना नहीं करना पड़ता। राज्य भी उन पर हमला करता है। पुलिस और नौकरशाही स्वेच्छा से और इरादतन उनके खिलाफ हिंसा करती है। संभल सबसे ताजा उदाहरण है। इस राजकीय तंत्र से वह मुक़ाबला कैसे करें? वह उस न्यायपालिका में न्याय की लड़ाई कैसे लड़ें जिसके न्यायाधीश खुलेआम मुसलमानों के खिलाफ घृणा प्रचार करते हैं?

राहुल गांधी मात्र एक तथ्य बयान कर रहे थे। भारतीय राज्य का चरित्र बदल गया है। यह कहने से किसी को बुरा क्यों लगना चाहिए? जो इसके कारण उनकी निंदा कर रहे हैं, क्या वे ख़ुद इस बात को नहीं जानते और मानते?

अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं। साभारः thewirehindi.com

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