आप कितने रईस हैं, भ्रम में जीते भारतीय मध्य वर्ग को नहीं पता असलियत

अगर आप यह लेख पढ़ रहे हैं, तो आपको भारत की आर्थिक स्थिति की वास्तविकता की पड़ताल करनी चाहिए।

Getty Images
Getty Images
user

योगेंद्र यादव

जिन दिनों मैं अध्यापन करता था, अक्सर अपने छात्रों के साथ एक खेल के बहाने देश की असली तस्वीर उन्हें दिखाता था। मैं उन्हें पूछता था कि अगर एक सौ पायदान की ऊंची सीढ़ी पर देश के हर व्यक्ति को उसकी आमदनी के हिसाब से खड़ा कर दिया जाए ताकि सबसे गरीब व्यक्ति पहली पायदान पर और सबसे अमीर व्यक्ति सौवीं पायदान पर खड़ा हो, तो उनका परिवार कौन से पायदान पर होगा। फिर उनका जवाब लेने के बाद मैं उन्हें वास्तविक आंकड़े दिखाता था। अक्सर मेरे विद्यार्थी भौंचक्के रह जाते थे। इससे शुरू होती थी उन विद्यार्थियों की 'भारत की खोज'। 

हाल ही में भारत सरकार ने वर्ष 2023-24 के लिए ग्रामीण और शहरी भारत की पारिवारिक आमदनी के आंकड़े ही प्रकाशित किए हैं। तकनीकी रूप से इसे घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण कहा जाता है। अर्थशास्त्रियों का अनुभव है कि लोगों से अगर उनकी आमदनी के बारे में पूछा जाए, तो लोग सही उत्तर या तो दे नहीं पाते हैं या फिर देना नहीं चाहते हैं। इसलिए उनकी आय का अनुमान लगाने के लिए उनसे उनके खर्चे के बारे में पूछें, तो सही उत्तर मिल जाते हैं।

पिछले कई दशकों से राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण संगठन ने लोगों से उनके दैनंदिन रसोई के खर्च से लेकर कपड़े, शिक्षा और अस्पताल या मनोरंजन जैसे हर छोटे-बड़े खर्चे की सूचना के आधार पर प्रति व्यक्ति प्रति माह खर्च का अनुमान लगा रहा है। विशाल सैंपल और विश्वसनीय तकनीक पर आधारित इस सर्वेक्षण को देश के सबसे विश्वसनीय स्रोत में माना जाता है और सरकार की अधिकांश नीतियां इस पर आधारित होती हैं।

आइए, इन आंकड़ों की मदद से ही हम 'भारत की खोज' वाला खेल खेलें। सबसे पहले कृष्णन साहब के घर चलते हैं जो  सरकारी बैंक में प्रमोट होकर ब्रांच मैनेजर बने हैं। उनका अपना मासिक वेतन 1.25 लाख है। पत्नी एक प्राइवेट स्कूल में अध्यापिका हैं। कुल 35 हजार प्रतिमाह पाती हैं। पहले किराये के घर में रहते थे। पिछले पांच साल से अपना फ्लैट ले लिया है और  दो बच्चे समेत उसमें रहते हैं। एक साधारण मॉडल की कार है, बेटे ने मोटरसाइकिल लिया है, बेडरूम में एसी है। यानी एक साधारण मिडल क्लास फैमिली से हैं।

उनके घर में काम करने कांता आती है। कई घरों में काम कर महीने में 8 हजार कमा लेती है। उसका पति सुरेश ड्राइवर है। महीने का 15 हजार वेतन है। इतने में पति-पत्नी और तीन बच्चे किराये के मकान में रह कर अपना गुजारा करते हैं। स्कूटर खरीदने की योजना है। यानी एक मेहनतकश परिवार।

कृष्णन साहब के बैंक में खन्ना साहब का अकाउंट है। खाता-पीता परिवार है। इनकी एक छोटी सी फैक्ट्री में छह लोग काम करते हैं। महीने में ढाई-तीन लाख की कमाई हो जाती है। घर में पत्नी और दो बच्चों के साथ बुजुर्ग मां भी रहती हैं। बड़ा  घर है। दो गाड़ियां हैं। एक बार विदेश भी घूम आए हैं। लेकिन कोठी में रहने वाले खानदानी रईस नहीं हैं।

Getty Images
Getty Images
Subhendu Sarkar

शहरी समाज की प्रचलित भाषा में कृष्णन साहब को मध्यम वर्गीय परिवार बताया जाएगा। खन्ना साहब को अपर मिडल कहा जाएगा और कांता को गरीब समझा जाएगा। अगर 100 पायदान पर उनकी जगह बताने को कहा जाता है, तो हम शायद कान्ता को 20वीं पायदान पर रखेंगे, कृष्णन को 50-60 के करीब और खन्ना साहब को 80-90 के बीच। यही हमारी समझ का खोट है।  

अब इस समझ की जांच प्रामाणिक आंकड़ों से कीजिए। नवीनतम आंकड़ों के हिसाब से शहरों में रहने के बाद मध्यम वर्ग (यानी जो 40वीं और 60 वीं पायदान के बीच में हैं) का औसत मासिक खर्च 4,000 हजार रुपये से कम है। यानी की बीस-पच्चीस हजार में चार लोगों का परिवार चलाने वाले कान्ता और सुरेश वास्तव में शहरी भारत की सच्चे मध्यमवर्गीय परिवार हैं। शहरी निचली 20 पायदान पर वह परिवार हैं जो हर महीने हर व्यक्ति पर 3,000 रुपये भी खर्च नहीं कर पाते हैं ।

पिछले साल के आंकड़ों के हिसाब से जो परिवार प्रति व्यक्ति प्रति माह 20 हजार रुपये से अधिक खर्च करता है, वह शहरी लोगों  के सर्वोच्च 5 प्रतिशत में है। प्रति व्यक्ति प्रति माह में 30 हजार रुपये से अधिक खर्च करने वाला हर परिवार शहरी लोगों के शीर्षस्थ एक प्रतिशत परिवारों में से है। यानी उन्हें भले ही विश्वास न हो, कृष्णन 95वीं और खन्ना सबसे ऊपरी सौवीं पायदान पर खड़े हैं।

Getty Images
Getty Images
Monique Jaques

जाहिर है ग्रामीण इलाकों में स्थिति और भी विकट है। गांव में ही बसर करने वाला जो भी परिवार प्रति व्यक्ति प्रति माह 7 हजार रुपये खर्च करने की हैसियत रखता है (यानी पांच लोगों के जिस ग्रामीण परिवार को 35 हजार से अधिक आय है) वह ग्रामीण भारत की सर्वोच्च 10 प्रतिशत वर्ग का हिस्सा है। ग्रामीण मध्यम वर्ग उन परिवारों को कहा जाएगा जहां पांच लोगों के परिवार में महीने में 20 हजार रुपये में काम चलाना होता है। ग्रामीण इलाकों के दरिद्रतम परिवार वे हैं जहां परिवार के छह लोग आज भी एक महीने में 10 हजार रुपये के भीतर गुजारा करते हैं।

यह तो पूरे देश की औसत है। अगर इस औसत को अलग अलग राज्यों के हिसाब से देखें, तो पूर्वी भारत (छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, ओडिशा, बंगाल, असम और पूर्वी उत्तर प्रदेश) की स्थिति सबसे दयनीय है। वहां तो महीने में 15 हजार खर्च करने की हैसियत वाले परिवार आधे से कम होंगे।


मैंने 'भारत की खोज' वाला यह खेल न जाने कितनी बार खेला है। हमेशा एक ही बात सामने आई है - देश के आर्थिक पायदानों के बारे में भी हमारी दृष्टि बहुत टेढ़ी है। अपेक्षाकृत संपन्नता के बुलबुले में रहने वाले शहरी भारतीय को पता ही नहीं है कि एक साधारण भारतीय किस अवस्था में रहता है। जो सचमुच गरीब है, वह हमारी दृष्टि से ओझल है। जो मध्यम वर्गीय है, उसे हम गरीब समझते हैं, और जो शीर्ष पर काबिज हैं, उन्हें हम मिडल क्लास कहते हैं। कब इस खुशफहमी से मुक्त होगा इस देश का शासक वर्ग?

(साभारः नवोदय टाइम्स)

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia