शी जिनपिंग की तीसरी बार चीन के राष्ट्रपति के रूप में ताजपोशी, भारत के लिए बड़े खतरे की घंटी!

चीन में सबकुछ शी जिनपिंग की मर्जी का हुआ है। सीपीसी ने उन्हें तीसरी बार चीन के सैन्य और असैन्य शासन की कमान सौंप दी है। चीन के साथ तनातनी देखते हुए भारत के लिए यह चिंता की बात है

फोटो : सोशल मीडिया
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सरोश बाना

चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) की 20वीं कांग्रेस के समापन पर शी जिनपिंग की तीसरी बार चीन के राष्ट्रपति के रूप में ताजपोशी हुई। हालांकि इसमें हैरानी की कोई बात नहीं लेकिन इसमें दो राय नहीं कि जिनपिंग की यह ऐतिहासिक पारी भारत के लिए चुनौतीपूर्ण रहने वाली है।  

69 वर्षीय जिनपिंग भारत के लिए हौआ ही रहे हैं। जिनपिंग के राष्ट्रपति बनने के बाद से सीमा पर तनातनी बढ़ी है। खास तौर पर मई, 2000 के बाद पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के लगभग 50,000 सैनिकों ने वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) का उल्लंघन किया और केन्द्र शासित प्रदेश लद्दाख के बड़े इलाके पर कब्जा कर लिया। इसके एक माह बाद झड़प में 20 भारतीय सैनिक शहीद हो गए।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कंजरवेटिव पार्टी के भारतीय मूल के नेता ऋषि सुनक को ब्रिटेन के नए प्रधानमंत्री के रूप में नामित किए जाने पर तो बधाई दी लेकिन न तो उन्होंने और न ही उनकी सरकार ने जिनपिंग के ‘चुने जाने' पर कोई टिप्पणी की। जिनपिंग ने सीपीसी में अपने वफादारों को शामिल करते हुए इसके संविधान को भी अपने मुताबिक बदल दिया है। उन्होंने पार्टी में अपनी स्थिति को मजबूत करते हुए अपने को आजीवन नेता के रूप में स्थापित कर लिया है। इस तरह शी जिनपिंग ने 1949 में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) की स्थापना करने वाले माओत्से तुंग के बाद सबसे शक्तिशाली नेता के रूप में अपनी जगह पक्की कर ली है। ऐसी स्थिति में भारत की अपनी आशंकाएं हैं। उसे लगता है कि उसका सुरक्षा वातावारण और खराब होने जा रहा है।

मजेदार बात है कि कि जिनपिंग ने सीपीसी की केन्द्रीय समिति के पूर्ण सत्र की अध्यक्षता की जिसने उन्हें पार्टी के महासचिव के रूप में फिर से नियुक्त किया। समिति के 203 सदस्यों और 168 वैकल्पिक सदस्यों ने भी सीपीसी केन्द्रीय सैन्य आयोग (सीएमसी) के अध्यक्ष के रूप में उनके नाम पर मुहर लगा दी।


मोदी ने चीन में जिनपिंग की फिर से ताजपोशी को पूरी तरह नजरअंदाज किया। वह लद्दाख के दूसरे सबसे बड़े शहर कारगिल में तैनात भारतीय सेना के जवानों के साथ दिवाली मना रहे थे। सैनिकों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत पर बुरी नजर डालने वाले किसी भी व्यक्ति को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए तैयार रहना चाहिए।

उधर, सीपीसी की बैठक के बाद बीजिंग में ग्रेट हॉल ऑफ द पीपुल में आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में जिनपिंग ने भारत का बिना नाम लिए कहा, ‘हम अन्य सभी देशों के लोगों के साथ मिलकर शांति, विकास, निष्पक्षता, न्याय जैसे मानवता के साझा मूल्यों की रक्षा; वैश्विक शांति और वैश्विक विकास को बढ़ावा देने के लिए आजादी; और साझा भविष्य के मद्देनजर मानव समुदाय के निर्माण के लिए काम करेंगे।’

भारत और चीन के बीच गतिरोध को हल करने के लिए सैन्य कमांडर के स्तर पर तो प्रयास हुए लेकिन राजनीतिक स्तर पर न के बराबर। हालांकि एक समय था जब मोदी और जिनपिंग के ‘गहरे’ रिश्तों की चर्चा होती थी। मोदी ने नौ बार चीन की यात्रा की- प्रधानमंत्री के रूप में पांच और गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में चार। उन्होंने 2014 और 2019 के बीच तीन बार भारत में चीनी नेता की मेजबानी भी की।

उज्बेकिस्तान के समरकंद में हाल ही में शंघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन में भाग लेने वाले नेताओं के फोटोशूट में पास ही खड़े प्रधानमंत्री मोदी को जिनपिंग ने एक तरह से नजर अंदाज ही कर दिया। इसे मोदी सरकार के चेहरे पर तमाचा ही कहा जा सकता है कि जब प्रधानमंत्री 2014 में अहमदाबाद में चीनी राष्ट्रपति के साथ शिखर वार्ता कर रहे थे, उसी समय चीनी सैनिक लद्दाख के डेमचोक और चुमार इलाकों में घुस आए। तब दस दिनों के भीतर चीनी सैनिकों की यह तीसरी घुसपैठ थी।


पीएलए की घुसपैठ के एक महीने बाद मोदी यह कहने के लिए राष्ट्रीय टीवी चैनल पर आए  कि एलएसी के पार से कोई भी घुसपैठ नहीं हुई है। साथ ही तब उन्होंने घोषणा की थी कि हमारे जवानों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा और भारत ने अपनी एक इंच भी जमीन चीनियों को नहीं दी है। कई पूर्व सैन्य कमांडरों के साथ-साथ सैन्य विश्लेषकों ने भी महसूस किया कि इस तरह के दावे पीएलए का सामना कर रहे हमारे बलों के लिए भ्रमित करने वाले होंगे। एलएसी पर चीन के सैनिकों के साथ आमने-सामने की झड़प में शामिल कुछ सैनिकों के हवाले से यह बात सामने आई थी कि नियंत्रण रेखा पर हालात कहीं ज्यादा गंभीर हैं।

1960 की सीमा वार्ता के बाद से ही चीन गलवान घाटी के कुछ हिस्सों पर अपना दावा ठोक रहा था और दो साल बाद, उसने उसी क्षेत्र में भारत के साथ युद्ध किया और भारत के 37,185 वर्ग किलोमीटर हिस्से पर कब्जा कर लिया था। अक्साई चिन का वह इलाका गलवान से सटा हुआ है।  

भारत और चीन के बीच शांति के लिए 1993, 1996, 2005, 2012 और 2013 के समझौतों और एलएसी पर परस्पर विश्वास बहाली के तमाम उपायों के बावजूद चीन ने सीमांकन पर लगातार विवाद किया है और पिछली तमाम घुसपैठों के जरिये उसने लद्दाख के 640 वर्ग किलोमीटर भूमि पर कब्जा कर लिया। दिक्कत की बात यह है कि चीन के साथ एलएसी पर तनाव के मामले में देश का रुख क्या होना चाहिए, इस पर राजनीतिक दलों में आम सहमति बनाने के लिए मोदी सरकार ने संसद का विशेष सत्र बुलाने की जरूरत भी नहीं समझी। इसके उलट एलएसी पर हो रही घुसपैठ पर सवाल उठाने पर उसने प्रमुख विपक्षी पार्टी को कांग्रेस को ‘राष्ट्र-विरोधी’ और ‘चीनी समर्थक’ तक कह डाला। मीडिया को भी संघर्ष का सच लाने से हतोत्साहित किया गया जिसका नतीजा यह निकला कि अटकलबाजियों को बढ़ावा मिला।


दूसरी ओर, चीन ने इस क्षेत्र में भारत को प्रभाव को कम करने के लिए पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका, मालदीव, बांग्लादेश, म्यांमार जैसे देशों पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली है। भारत की चीन के साथ 3,488 किलोमीटर, पाकिस्तान के साथ 3,323 किलोमीटर, नेपाल के साथ 1,751 किलोमीटर, बांग्लादेश के साथ 4,097 किलोमीटर और म्यांमार के साथ 1,643 किलोमीटर की सीमा है जबकि श्रीलंका उससे महज 27 किलोमीटर दूर है और मालदीव कन्याकुमारी से 623 किलोमीटर दूर है।  

भारत को घेरने की अपनी 'मोतियों की माला' रणनीति के तहत चीन ने पाकिस्तान के सबसे बड़े प्रांत बलूचिस्तान में ग्वादर बंदरगाह को विकसित किया है जो चीन के काशगर इलाके को जोड़ता है। चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) का एक प्रमुख हिस्सा है। बीआरआई 70 देशों में फैली बुनियादी ढांचा परियोजनाओं का एक ट्रिलियन डॉलर का कार्यक्रम है और तमाम लोगों को मानना है कि यह ऋण के जाल में देशों को फंसाकर बुनियादी ढांचे पर कब्जा करने का जरिया है। हालांकि बीजिंग जोर देकर कहता है कि बीआरआई सैन्य न होकर एक वाणिज्यिक पहल है लेकिन अनकही बात यही है कि चीन इन देशों को बाद में अपने नौसैनिक अड्डे के तौर पर इस्तेमाल करेगा। बलूचिस्तान का ग्वादर बंदरगाह चीन को भारत के पश्चिमी तट पर हिंद महासागर के अलावा फारस की खाड़ी, ओमान और अदन की खाड़ी होते हुए अरब सागर में प्रवेश का रास्ता देता है। भारत सीपीईसी का विरोध करता है क्योंकि यह परियोजना पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) से होकर गुजरती है।

सीपीईसी का करार पाकिस्तान को बाध्य करता है कि वह 20 साल के दौरान कर्ज वापसी और लाभांश के रूप में चीन को 40 अरब डॉलर का भुगतान करे। अगस्त, 2017 में पाकिस्तान ने चीन से चार मोडिफाइड 041 युआन क्लास पनडुब्बियों की खरीद और चार अन्य की असेंबली के लिए प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के लिए 5 अरब डॉलर का सौदा किया। पाकिस्तान को पहली चार पनडुब्बियां 2023 तक मिलनी हैं और बाकी चार 2028 तक।

पाकिस्तान ने पूर्वी लद्दाख में चीन के साथ भारत के संघर्ष को देखते हुए 20,000 से अधिक सैनिकों वाले अपने दो सैन्य डिवीजनों को पाक ने पीओके और गिलगित-बाल्टिस्तान में नियंत्रण रेखा पर तैनात कर दिया है। इसके अलावा पाकिस्तान ने 1963 में काराकोरम हाईवे के निर्माण के लिए चीन को लद्दाख से सटे पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर का 5,187 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र उपहार में दे दिया।

भारत के खिलाफ चीन का खुलेआम समर्थन करते हुए पाकिस्तान ने चीनी वायुसेना को स्कार्दू और गिलगित में अपने अग्रिम वायु सेना ठिकाने उपलब्ध करा दिए हैं। इन ठिकानों से चीनी युद्धक विमान शिनजियांग और तिब्बत के हवाई अड्डों से कहीं आसानी से भारत पर हमले में सक्षम बनाते हैं। इस तरह भारत के लिए चीन और पाकिस्तान से दोतरफा सैन्य खतरा एक चिंता का कारण बन गया है। इसी कारण शी जिनपिंग के हाथ में तीसरी बार चीन की कमान आने से भारत के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आई हैं।

(सरोश बाना बिजनेस इंडिया के कार्यकारी संपादक हैं)

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