तालिबानी विचारधारा वाला पतीत मीडिया, समाज को हिंसक बनाने लगा है
हम हर साल प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में पाताल में समाते जा रहे हैं, पर सच यह है कि हमारे देश के प्रेस को गुलामी ही भाने लगी है, आजादी में उसका दम घुटता है। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स के वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स 2025 में हम 181 देशों में 151वें स्थान पर हैं।

हिटलर के शासन में भी जर्मनी का मीडिया इतना पतीत और निर्लज्ज नहीं रहा होगा, जैसा आज हमारे देश में है। प्रधानमंत्री पहले न्यू इंडिया की खूब चर्चा करते थे, अब विकसित भारत की बात करते हैं। विकसित भारत के विजन को सरकार जितना आगे बढ़ाती है, मीडिया का पतन उतनी ही तेजी से होता है। विकसित भारत के सरोकार केवल खोखले लगते हैं पर मीडिया तो इतना निर्लज्ज हो चुका है कि हमारे प्रजातान्त्रिक देश में तालिबानी विचारधारा का प्रसार करने लगा है, समाज को हिंसक बनाने लगा है।
हाल में ही एक पुराने और तथाकथित प्रतिष्ठित पत्रकार ने लिखा, “यदि योगी का चाबुक चला तो..”। जाहिर है चाबुक चलने की कल्पना में पत्रकार महोदय आह्लादित हो जाते हों। चाबुक वाली सजा, अफगानिस्तान में तालिबान या फिर सऊदी अरब जैसे देशों में दी जाती है, वह पत्रकार महोदय को या उन जैसे मैन्स्ट्रीम मीडिया पर सरकारी भोंपू बजाते तमाम पत्रकारों को जरूर रास आ रही होगी। हमारा मीडिया बुल्डोजर से घर उजाड़ने को न्याय बताता है और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को पूरी निर्लज्जता और तन्मयता के साथ “बुल्डोजर बाबा” का तमगा देता है। बारीकी से सोचिए, मीडिया की नजर में सत्ता पर बाबाओं को काबिज होना चाहिए और बुल्डोजर के सजा देने का एक साधन।
मीडिया की ऐसी हरकत तो अफगानिस्तान या सऊदी अरब में भी देखने को नहीं मिलती है। हिटलर के समय भी जर्मनी ने हिटलर द्वारा किए जाने वाले तमाशे को कभी मीडिया ने जायज ठहराते हुए, अट्टहास करते हुए और पूरी तरह समर्पित भाव से नहीं दिखाया या सुनाया होगा। हिटलर की आत्मा जहां कहीं भी होगी, हमारे देश के मीडिया की हरकतें देख कर सोच जरूर रही होगी कि काश ऐसा मीडिया उसे मिला होता तो आजीवन जर्मनी का नायक रहता।
कहीं बुलडोजर चलता है, कहीं मुस्लिम मारे जाते हैं, कहीं भीड़ हिंसा होती है या गाय के नाम पर लोग मारे जाते हैं तो मीडिया में रौनक आ जाती है, महिला/पुरुष सभी ऐंकर चहकते, उछलते और बहकते हुए इन दृश्यों की रिपोर्टिंग करते हैं और समाज में नफरत का जहर भरते हैं। मेनस्ट्रीम मीडिया ने एक हिंसक समाज का निर्माण किया है जिसमें हत्या, बलात्कार, गाड़ी से कुचल कर किसी की हत्या करना, धार्मिक भीड़ द्वारा किसी को मारा जाना, बेल्ट से पीटना, अत्यधिक संख्या में पुलिस और सुरक्षा बलों का जमावड़ा इत्यादि निहायत ही सामान्य घटनाएं हैं।
किसी नेता द्वारा हिंसक वक्तव्यों को मीडिया दिन भर ऐसे बताता है, जैसे कोई ज्ञान से भरा प्रवचन हो। हमारे देश की मीडिया में कभी भी बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी, भूख और दूसरी सामाजिक समस्याओं की चर्चा ही नहीं की जाती। आर्थिक असमानता और सामाजिक असमानता के साथ ही समाज में बढ़ता ध्रुवीकरण तो मीडिया के लिए कोई विषय ही नहीं हैं।
हम हरेक वर्ष प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में पाताल में समाते जा रहे हैं, पर सत्य तो यह है कि हमारे देश में प्रेस हो गुलामी ही भाने लगी है, आजादी में उसका दम घुटता है। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स के वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स 2025 में भारत कुल 181 देशों में 151वें स्थान पर है। जिन देशों में पत्रकारों की हत्या पर कोई न्याय नहीं मिलता, या कार्यवाही नहीं की जाती है उन देशों के लिए कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स ‘इम्प्यूनिटी इंडेक्स’ प्रकाशित करती है। इसके हरेक वार्षिक संस्करण में भारत शामिल रहता है। वर्ष 2024 के इम्प्यूनिटी इंडेक्स में दुनिया के केवल 13 देशों का नाम है, जिसमें भारत भी शामिल है। इस इंडेक्स में भारत- हैती, सोमालिया, सीरिया, साउथ सूडान, अफगानिस्तान, म्यांमार और पाकिस्तान सरीखे देशों के समकक्ष खड़ा है।
हमारे देश में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जो समाचार चैनल हैं, वे मनोरंजन चैनलों से भी बदतर हैं। मनोरंजन चैनलों पर दिन भर तमाम सीरीयल चलते हैं जिनमें कहानी के नाम पर एक-दूसरे के खिलाफ साजिश ही रहती है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी दिन भर जनता के विरुद्ध साजिश को ही दिखाया जाता है। समाचार नहीं दिखाना मीडिया का एक तरीका हो सकता है जो समाज के लिए घातक है, पर दिनभर गलत और भ्रामक समाचार और आंकड़े प्रसारित करना तो समाज के विरुद्ध अपराध है। यही अपराध दिन-रात मीडिया कर रहा है।
मध्य-पूर्व के देशों में तमाम खतरों के बाद भी महिला पत्रकार अपने समाचारों के साथ ही सत्ता के विरुद्ध विद्रोह भी मुखर तरीके से सामने ला रही हैं। ईरान में मृत्युदंड के खतरों के बाद भी महिला पत्रकार “वुमन, लाइफ, फ्रीडम आंदोलन” चला रही हैं, हाल में ही इसकी तीसरी वर्षगांठ थी। इजरायल, यमन, लेबनान, ट्यूनीशिया और फिलिस्तीन में महिला पत्रकार लगातार बदलाव की अलख जगा रही हैं। दूसरी तरफ हमारे देश में महिला पत्रकार केवल सत्ता चालीसा में व्यस्त हैं और सामाजिक ध्रुवीकरण को लगातार बढ़ावा दे रही हैं। देश में मीडिया के तालीबानीकरण में इन महिला पत्रकारों का सबसे अधिक योगदान है।
जब आप झूठ बोलते हैं, और आपको मालूम है कि आप गलत कर रहे हैं, तब व्यवहार अपने आप बदल जाता है। यही व्यवहार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के हरेक समाचार चैनल उछलते, कूदते, चिल्लाते, पत्रकारों में दिखाई देता है। इन चैनलों पर जो पत्रकार वर्ष 2014 से पहले के हैं, उन्हें उस दौर में शालीन समझा जाता था, पर सत्ता का झूठ फैलाते-फैलाते ये पत्रकार केवल मसखरे और तालिबानी रह गए हैं।
वैश्विक स्तर पर पत्रकारों की आजादी के लिए “मीडिया फ्रीडम कोएलेशन” स्थापित किया गया था, जिसके 30 सदस्य हैं। इनमें से अधिकतर देश यूरोप के हैं, पर एशिया से भी दक्षिण कोरिया और जापान जैसे देश इसके सदस्य हैं- भारत इसका सदस्य नहीं है। हाल में ही इन देशों द्वारा वैश्विक स्तर पर पत्रकारों की आजादी के लिए किए जाने वाले प्रयासों पर एक इंडेक्स- इंडेक्स ऑन इन्टरनेशनल मीडिया फ्रीडम सपोर्ट इंडेक्स- प्रकाशित किया गया है। इसमें पहले स्थान पर लिथुआनिया है, दूसरे स्थान पर स्वीडन, तीसरे स्थान पर नीदरलैंड, चौथे स्थान पर एस्टोनिया और पांचवें स्थान पर संयुक्त तौर पर जर्मनी और फ्रांस हैं। इस इंडेक्स में कनाडा 8वें स्थान पर, ऑस्ट्रेलिया 10वें स्थान पर, यूनाइटेड किंगडम और अमेरिका संयुक्त तौर पर 12वें स्थान पर, इटली 24वें स्थान पर, जापान 28वें स्थान पर और साउथ कोरिया 29वें स्थान पर है।
हमारे देश के मीडिया को देखकर यह समझ में आता है कि यदि आदिम युग या गुफा युग में भी टेलीविजन होता तब किस तरह के समाचार आते और समाचार चैनल किस तरह से हिंसा का महिमामंडन करते। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि तकनीकी विकास कहीं भी बुनियादी सुधार नहीं ला सकता है। समाचार प्रसारण में तकनीकी तौर पर खूब विकास हो गया है, अब कहीं से भी और कभी भी समाचारों को सीधे दिखाया जा सकता है- पर अब मीडिया से समाचार पूरी तरह से गायब हो गए। हमारे देश का पूरा मीडिया केवल एक ही व्यक्ति को समाचार मानता है, आश्चर्य यह है कि वह व्यक्ति अपने आप को समाचार नहीं बल्कि एक महंगा मॉडल मानता है। मीडिया में समाचार के नाम पर झूठ का पिटारा चलता जा रहा है।
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