एनडीए के दलित नेताओं का संकट: उन्हें नेता तो मानती है बीजेपी, लेकिन दलितों का नेता नहीं

एनडीए में गैर बीजेपी दलित नेताओं की इस हद तक जरूरत है कि वे दलितों के वोट बैंक में बिखराव रोक सकें और बीजेपी के सामाजिक आधार के साथ दलित वोट के हिस्से को जोड़ने की क्षमता रखते हों।

फोटो: सोशल मीडिया
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अनिल चमड़िया

भारत के दलित आंदोलन के इतिहास में 2 अप्रैल 2018 का भारत बंद दलित राजनीति के सबसे महत्वपूर्ण दिनों में एक हैं। भारत बंद का कार्यक्रम 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट के एक खंडपीठ के उस फैसले के विरोध में था जिसमें अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति निवारण अत्याचार कानून में फेरबदल किया गया। इस फैसले को न्यायाधीश आदर्श कुमार गोयल ने लिखा था जिन्हें नरेन्द्र मोदी की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से रिटायर्ड होते ही चौबीस घंटे के अंदर राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण यानी एनजीटी का चैयरमेन नियुक्त कर दिया। संसद में यह कानून 1955 के बाद से दलितों के खिलाफ अत्याचार के सिलसिले पर चल रही बहसों और कार्रवाईयों की नाकामियों के नतीजों के आलोक में बनाया गया था। न्यायाधीश गोयल ने रिटायर्ड होते वक्त दलित एक्ट की तुलना इमरजेंसी से की थी।

2 अप्रैल को दलितों ने संसदीय पार्टियों के तमाम नेतृत्व को एक किनारे कर दिया था और देश भर में फैले अपने सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक संगठनों के बूते भारत बंद को सफल बनाया था, जिसकी उम्मीद न तो करोबारी मीडिया को थी और न ही सरकार को थी। दलितों के अखिल भारतीय स्तर पर इस उभार से चुनावी राजनीति घबरा गई। खासतौर से सत्ताधारी दलों के सामने राजनीतिक संकट खड़ा हो गया। मुख्य सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी के लिए दलितों का विरोध तभी मायने रखता है, जब दलितों को उसकी तरफ खींचने वाले उसके सहयोगी दलों के दलित-पिछड़े नेता आराम की मुद्रा में खड़े नजर नहीं आते हों। क्योंकि इस कानून में फेरबदल के बाद बीजेपी के कई दलित सांसदों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के असर को लेकर प्रधानमंत्री को पत्र लिखा और दलित उत्पीड़न की शिकायतें दर्ज करायीं। लेकिन बीजेपी के लिए उनके सासंद दलित नेता जरूर है, लेकिन दलितों के नेता नहीं हैं।

जब पिछड़े-दलित वोटरों की मुखौटा पार्टियों के नेताओं मसलन राम विलास पासवान और रामदास अठावले जैसों ने यह देखा कि मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट के 20 मार्च के फैसले के असर को खत्म करने का कोई प्रयास नहीं कर रही है तब एनडीए के भीतर की राजनीतिक स्थिति को प्रभावित करने की कोशिश की गई। क्योंकि मोदी सरकार जिस तरह से किसी कानून के बनने से पहले अध्यादेशों को जारी करती आ रही है, उस कड़ी में 20 मार्च के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बेअसर करने और संसद में बनाए गए कानून को बहाल करने के लिए अध्यादेश जारी करने से कतराती रही। पहले तो लोगों के बीच लोक जनशक्ति पार्टी के नेता राम विलास पासवान और मोदी सरकार दलितों के बीच यह संदेश देते रहे कि सुप्रीम कोर्ट में उस फैसले के खिलाफ पुनर्विचार आवेदन पर फैसले का इंतजार किया जाए। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह संकेत दे दिया कि पुनर्विचार आवेदन पर अनुकूल फैसलें के लिए लंबा इंतजार करना पड़ सकता है।

दरअसल, बीजेपी की राजनीति के लिए इस कानून में फेरबदल अनुकूल माना जाता हैं और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने इस कानून में फेरबदल का आश्वासन भी दिया था। लिहाजा, वह यह नहीं चाहती थी कि उसकी ओर से सामाजिक स्तर पर वर्चस्व रखने वाले उसके राजनीतिक आधार के बीच यह संदेश जाए कि वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बेअसर कर कानून को पुरानी शक्ल में बनाए रखने के लिए सक्रिय है। लेकिन जब एनडीए के दलित वोट वाले चेहरों ने अपने राजनीतिक अस्तित्व को देखते हुए संसद द्वारा बनाए अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निवारण कानून को बनाए रखने के लिए राजनीतिक दांव खेलना शुरू किया तो बीजेपी के लिए एक संकट की स्थिति खड़ी हो गई।

एनडीए में गैर बीजेपी दलित नेताओं की इस हद तक जरूरत है कि वे दलितों के वोट बैंक में बिखराव रोक सकें और बीजेपी के सामाजिक आधार के साथ दलित वोट के हिस्से को जोड़ने की क्षमता रखते हों। गैर बीजेपी नेताओं में राम विलास पासवान के लिए यह जरूरी था कि वे एनडीए में अपनी ताकत का भी एहसास कराएं और मोदी सरकार पर भी यह दबाव बनाएं कि वह दलित एक्ट को पुरानी शक्ल में देखना चाहते हैं।

इसे इन घटनाक्रमों से समझा जा सकता है। संसद के मौजूदा सत्र में जब मोदी सरकार के खिलाफ तेलुगु देशम के अविश्वास प्रस्ताव पर बहस हो रही थी तो राम विलास पासवान ने दलितों और दलितों के प्रतीक चिन्हों की हिफाजत के लिए मोदी सरकार की जमकर तारीफ की। लेकिन उन्होंने संसद से बाहर 20 मार्च को दलित एक्ट से जुड़े सुप्रीम कोर्ट का फैसला लिखने वाले न्यायाधीश गोयल को तत्काल राष्ट्रीय हरित प्राधिकारण के चैयरमैन पद से हटाने की मांग कर दी। उन्होंने इस मांग के पक्ष में एनडीए के दलित नेताओं की बैठक भी की। इसके साथ ही 9 अगस्त को भारत बंद के कार्यक्रम में शामिल होने के संकेत भी दे दिए।

बीजेपी के मौजूदा नेतृत्व के लिए सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के बीच यह संकेत देना कि रिटायरमेंट के बाद सरकार द्वारा दी जाने वाली नौकरियां छीनी जा सकती हैं, उसके लिए यह प्रतिकूल वातावरण तैयार कर सकता है। लिहाजा, आदर्श कुमार गोयल को हटाए जाने की प्रक्रिया की तरफ जाने का कोई इरादा ही भारतीय जनता पार्टी और सरकार के मौजूदा नेतृत्व ने नहीं किया। तब दूसरा रास्ता यह सामने आया कि संसद की एक प्रक्रिया में इस कानून को पुरानी शक्ल में रखने की कवायद की जा सकती है। तब केंद्रीय मंत्रीमंडल ने संसद द्वारा बनाए गए अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निवारण कानून पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के असर को बेकार करने के लिए संसद के मौजूदा सत्र में एक विधेयक लाने का फैसला किया। यह विधेयक किस रूप में कब और क्या नतीजा लेकर सामने आता है, यह अगले कुछ दिनों के घटनाक्रमों पर निर्भर करता है। लेकिन इस पुरी प्रक्रिया का एक इरादा यह है कि 2 अप्रैल को दलित नेताओं को हाशिये पर जाते हुए महसूस किया गया।

इस स्थिति में सरकार और बीजेपी चाहती है कि एनडीए के दलित चेहरे अपनी उपस्थिति दर्ज करा दें। लेकिन राम विलास पासवान और राम दास अठावले के लिए इस प्रश्न का जवाब देना मुश्किल है कि वे न्यायाधीश आदर्श कुमार गोयल को हटाए जाने की मांग और संसद में विधेयक लाने के बीच कोई रिश्ता नहीं है तो वे अपनी इस प्रमुख मांग को क्यों छोड़ सकते हैं?

अगले चुनाव के लिए एनडीए के दलित नेताओं के पास सरकार द्वारा दलितों के आर्थिक-सामाजिक हितों में किए गए फैसलों का कोई रोजनामचा नहीं है। यदि सरकार इस रूप में मददगार हो कि दलितों से जो छीना गया है उसे चुनाव के पहले वापस करने की कोशिश हो रही है तो शायद दलितों के गुस्से को थोड़ा कम किया जा सकता है। अविश्वास प्रस्ताव पर दलित-पिछड़े नेताओं ने छीने गए अधिकारों को वापस करने के प्रयासों को ही सरकार की उपलब्धि के तौर पर सामने रखा।

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Published: 04 Aug 2018, 12:59 PM