आकार पटेल का लेख: औपनिवेशिक शासन की तरह ही अपने नागरिकों को उपद्रवी समझती है भारत की लोकतांत्रिक सरकार

चंद्रशेखर आजाद को किसी अपराध के तहत गिरफ्तार नहीं किया गया है। यह सुरक्षात्मक गिरफ्तारी है और अतीत में सुप्रीम कोर्ट खुद ही कह चुकी है कि सुरक्षात्मक गिरफ्तारी “गैर-कानूनी कानून” है।

फोटो: सोशल मीडिया
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आकार पटेल

90 साल पहले, अप्रैल 1919 में जालियांवाला बाग का नरसंहार हुआ था। हमें विस्तार से इसके बारे में स्कूलों में बताया गया। जनरल डायर नाम के एक अधिकारी (बाद में ब्रिगेडियर जनरल बना दिए गए) ने बलोच रेजीमेंट के 90 सैनिकों, 65 गोरखा जवानों और 25 पंजाबियों को अम़ृतसर में जमा समूह पर गोली चलाने के आदेश दिए। सैनिकों ने अपने ली इनफील्ड 303 राइफलों से गोलियां चलाईं और कुछ सेकंड के बाद गोलियां खत्म होने पर रुक कर फिर से उनमें गोलियां भरते रहे। लगभग 10 मिनटों में भारतीय जवानों ने निहत्थी भीड़ पर 1600 गोलियां चलाईं।

सरकार ने कहा कि सरकारी आदेशों का उल्लंघन कर वहां भीड़ जमा हुई थी, और सरकारी आंकड़ों में कहा गया कि 379 मारे गए और 1100 से ज्यादा लोग घायल हुए। कांग्रेस ने कहा कि 1000 से ज्यादा लोग मारे गए, और हमें कभी भी सही संख्या पता नहीं चलेगी। मुझे कई कारणों से इस बात पर विश्वास करना मुश्किल लगता है कि सरकारी आंकड़े गलत थे। खैर, इस घटना से दुनिया को गहरा धक्का लगा और रबिंद्रनाथ टैगोर ने अपनी नाइटहुड की उपाधि लौटा दी। भीड़ वहां रॉलेट एक्ट के विरोध में प्रदर्शन कर रही थी। इसमें क्या समस्या थी? रॉलेट एक्ट में कहा गया था कि किसी भी भारतीय को बिना ट्रायल के गिरफ्तार किया जा सकता है। यह सुरक्षात्मक गिरफ्तारी थी। इसका मतलब यह हुआ कि सरकार बिना किसी अपराध के भी नागरिकों को जेल में रख सकती थी। अनिवार्य रूप से इसका अर्थ हुआ कि सरकार के भीतर के किसी आदमी को इस बात का संदेह होता है कि कोई नागरिक बाद में अपराध कर सकता है तो उस नागरिक को जेल में डाला जा सकता है। भारत के लोगों में इस कानून को लेकर गुस्सा था और लाहौर के एक अखबार ने रॉलेट एक्ट की व्याख्या ऐसे शीर्षक से की: ‘नो दलील, नो वकील, नो अपील (कोई दलील नहीं, कोई वकील नहीं, कोई अपील नहीं)’। यह सुरक्षात्मक गिरफ्तारी का सही वर्णन था।

यह जालियांवाला बाग की घटना की पृष्ठभूमि थी और वह कानून ऐसा था जिसके खिलाफ हमारे नागरिक प्रदर्शन कर रहे थे और मारे गए। उन्हें लगा कि औपनिवेशिक शासन द्वारा भारतीयों को बिना किसी अपराध या ट्रायल के जेल में डालना गलत था और उनका प्रदर्शन करना कतई गलत नहीं था। जालियांवाला बाग के कारण, रॉलेट एक्ट के नियमों को पूरी तरह लागू नहीं किया गया। यह औपनिवेशिक शासन के समय 99 साल पहले हुआ था। अब हम वर्तमान पर आते हैं।

नवंबर 2017 में उत्तर प्रदेश की सरकार ने दलित नेता चंद्रशेखर आजाद रावण को बिना किसी मुकदमे के जेल में डाल दिया। उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (एनएसए) के तहत गिरफ्तार किया गया। एनएनए में चंद्रशेखर के पास कोई मानवाधिकार सुरक्षा नहीं है जो साधारण आपराधिक प्रक्रियाओं और ईमानदार ट्रायल मानकों का हिस्सा हैं। उन्हें बिना ट्रायल या अपराध के 12 महीने तक जेल में रखा जा सकता है। उनके छूटने पर, अगर वे छूटते हैं तो, उन्हें फिर से किसी गिरफ्तारी कानून के तहत जेल में डाला जा सकता है।

कुछ दिनों पहले 2 मई को चंद्रशेखर आजाद के प्रशासनिक गिरफ्तारी की मीयाद समाप्त हो गई। उस दिन एनएसए के तहत स्थापित एक गैर-न्यायिक ‘सलाहकार बोर्ड’ ने अगले 6 महीने के लिए उन्हें फिर से जेल में डाल दिया। दलितों के साथ खाना खाने का वादा करने की जगह यह बेहतर होता कि हमारे नेता उनसे न्यायपूर्ण व्यवहार करते और उनके खिलाफ ऐसे कानूनों का इस्तेमाल नहीं करते जो संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन हैं।

हाई कोर्ट ने चंद्रशेखर आजाद को छोड़ने से इंकार कर दिया है। इस बात को याद रखना चाहिए कि उन्हें किसी अपराध के तहत गिरफ्तार नहीं किया गया है। यह सुरक्षात्मक गिरफ्तारी है और अतीत में सुप्रीम कोर्ट खुद ही कह चुकी है कि सुरक्षात्मक गिरफ्तारी “गैर-कानूनी कानून” है। एनएसए की तरह कई कानून हैं जिनका इस्तेमाल कर भारत सरकार और कई राज्य सरकारें उन भारतीयों को गिरफ्तार कर लेती हैं जिन्हें वे शायद पसंद नहीं करती या असहमति रखती है। हम अपने लोगों के साथ जो कर रहे हैं उसे औपनिवेशिक सरकार भी करने से बचती थी। अपने भारतीय नागरिकों के साथ ऐसा करने के लिए भारतीय जजों और अधिकारियों के मिलने में कोई समस्या नहीं आती। 1919 की गोलीबारी का जिक्र मैंने यह फिर से बताने के लिए किया कि वे हमारे ही भारतीय, गोरखा, पंजाबी थे, जिन्होंने असल में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे अपने भारतीयों पर निशाना साधा और गोलियां चलाईं जिनसे कई लोग मारे गए।

राष्ट्रीय सुरक्षा कानून सुनकर ऐसा मालूम होता है कि यह भारत को हमलों से बचाने का कोई गंभीर कानून है, लेकिन सरकार ने चंद्रशेखर आजाद को किसी आंतकी घटना के डर से जेल में नहीं रखा है। हमारे कई सुरक्षात्मक गिरफ्तारी कानूनों का आतंकवाद से कोई लेना-देना नहीं है। गुजरात गुजरात गैर-सामाजिक गतिविधि सुरक्षात्मक कानून के तहत अपने नागरिकों को जेल में बंद कर सकता है। कर्नाटक के पास खतरनाक गतिविधि सुरक्षात्मक कानून है (जिसे लोकप्रिय रूप से ‘गुंडा एक्ट’ भी कहा जाता है)। राज्य कानूनों के तहत संभावित गिरफ्तारी का काल 6 महीने से 2 साल तक हो सकता है। अलग-अलग राज्य में कई गतिविधियों के सुरक्षात्मक गिरफ्तारी की जा सकती है जैसे गैर-कानूनी ढंग से शराब बेचने के लिए, जमीन पर कब्जा करने के लिए और यहां तक कि वीडियो पायरेसी करने के लिए।

‘द हिन्दू’ की रिपोर्ट के अनुसार, 2016 में तमिलनाडू में 1,268 ऐसे लोग जेल में थे, जिनमें 62 ग्रेजूएट या पोस्ट-ग्रेजूएट थे और 21 महिलाएं थीं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के 2015 के आंकड़े बताते हैं कि तेलंगाना ने ऐसे मामलों में 339, कर्नाटक ने 232, और गुजरात ने 219 भारतीयों को गिरफ्तार किया था।

औपनिवेशिक सरकार की तरह ही भारत की लोकतांत्रिक सरकार भी नागरिकों को उपद्रवी के तौर पर देखती है। यह कानूनी व्यवस्था पर भरोसा नहीं करती और एक खुला और कठोर कानून चाहती है ताकि वे हमें बिना किसी अपराध के जेल में डाल सके। जब तक हम इस सच्चाई को समझ नहीं लेते कि आज 2018 में हमारे नागरिकों के साथ क्या हो रहा है, तब तक 1919 के अत्याचारों के बारे में हमारे पाठ्यपुस्तकों में पढ़ाना दोमुंहापन होगा।

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