महाराष्ट्र : एनसीपी का विभाजन- कितनी हकीकत, कितना फसाना

सरसरी तौर पर यही लग रहा है कि शिवसेना के बाद बीजेपी ने एनसीपी को तोड़कर उसे भारी नुकसान पहुंचाया है लेकिन हकीकत यह नहीं। ये दोनों दल मजबूत हुए हैं और इनका यह साथ जनता की सहानुभूति भी ले जाएगा।

(बाएं) अजित पवार और (दाएं) शरद पवार - यह एनसीपी में टूट से पहले की तस्वीर है
(बाएं) अजित पवार और (दाएं) शरद पवार - यह एनसीपी में टूट से पहले की तस्वीर है
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सुजाता आनंदन

शरद पवार को बखूबी अंदाजा था कि क्या होने जा रहा है। उनके भतीजे अजित पवार लंबे अरसे से यही चाह रहे थे लेकिन अपने चाचा की उदासीनता से आजिज आ चुके थे। शरद पवार उन्हें या पार्टी के युवा लोगों के लिए जमीन छोड़ने को तैयार नहीं थे और अजित उन पर दबाव बना रहे थे और वह काफी हद तक इसमें कामयाब भी हो गए जब इस साल मई में सीनियर पवार ने संन्यास की घोषणा कर दी थी। लेकिन यह दौर बहुत छोटा रहा और अजित इसका जश्न मना पाते, इससे पहले ही अंकल समर्थकों की ‘इच्छा’ का सम्मान करते हुए वापस आ गए। 

शरद पवार राजनीतिक दांव-पेंच के ऐसे माहिर खिलाड़ी हैं जिसकी काट मुश्किल है। महाराष्ट्र के राजनीतिक विश्लेषक यह मानने को तैयार नहीं हैं कि शरद पवार ने अजित पवार से उनके अगले कदम के लिए तोलमोल नहीं किया होगा। अजित पवार अंकल के भरोसेमंदों को तोड़ने की कोशिशों में जुटे थे। एनसीपी (नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी) की टूट की औपचारिकताओं के पूरी होने के बाद प्रेस कांफ्रेंस में पवार सीनियर खुश नजर आ रहे थे और निश्चिंत भी।

शरद पवार की बायोग्राफी ‘ऑन माई टर्म्स’ के अदृश्य लेखक आनंद अगाशे कहते हैं, ‘(पार्टी की टूट की वजह से) वह हतोत्साहित तो बिल्कुल नहीं हैं।’ पवार ने खुद भी कहा कि उन्होंने 1980 में इससे भी बुरा वक्त देखा जब उस समय की कांग्रेस (सोशलिस्ट) पार्टी के 58 में से छह विधायकों को छोड़कर सभी ने कांग्रेस (आई) का हाथ थाम लिया था। वह कहते हैं, ‘तब मैंने पार्टी को फिर से खड़ा किया और अगले चुनाव में पार्टी छोड़ने वाले विधायकों में से 2-3 को छोड़कर सभी को हार का सामना करना पड़ा।’ 

मीडिया एनसीपी के विभाजन को शरद पवार खेमे के लिए एक ऐसे नुकसान के तौर पर देखता है जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती। सीनियर पवार के पास अजित गुट की तुलना में कम विधायकों का समर्थन है। लेकिन मीडिया शायद इस बात को नजरअंदाज कर रहा है कि यह विधानसभा अगले साल भंग हो जाएगी और उससे पहले ही लोकसभा के चुनाव होंगे और जब साल के अंत में विधानसभा के चुनाव का समय आएगा, काफी-कुछ बदल भी सकता है।


विधानसभा चुनाव के समय यही विधायक टिकट के लिए होड़ करेंगे और तब अपनी संभावनाओं का पुनर्मूल्यांकन करेंगे। जैसा कि एक अन्य राजनीतिक पर्यवेक्षक अभय देशपांडे कहते हैं, फिलहाल के लिए तो अजित और उनके समर्थकों ‘जिन्होंने कम-से-कम तीन पीढ़ियों के लिए खासी कमाई कर रखी है’, ने जेल से बाहर रहने के लिए सौदेबाजी कर ली है। लेकिन देशपांडे का कहना है कि अब मतदाताओं या यहां तक कि एनसीपी समर्थकों द्वारा उन्हें दोबारा स्वीकार किए जाने की संभावना नहीं है।

बेशक पवार सीनियर वास्तव में विभाजन से ‘बेखौफ’ हों, जैसा कि उनके जीवनी लेखक को लगता है, क्योंकि इतना तो वह जानते हैं कि जब वोट के लिए लोगों के पास जाने का समय आता है, तो उनके पास बेहतर कार्ड होते हैं। शरद पवार जानते हैं कि लोग उन्हें वोट देते हैं, न कि एनसीपी के किसी भी उम्मीदवार को।

उदाहरण के लिए, जब चार बार के एनसीपी सांसद उदयनराजे भोसले जो छत्रपति शिवाजी महाराज के 14वें वंशज थे, ने सतारा से लोकसभा चुनाव जीतने के कुछ सप्ताह बाद ही बीजेपी में शामिल होने के लिए इस्तीफा दे दिया तो अक्तूबर, 2019 में उपचुनाव तय हुआ और भोसले को टक्कर देने के लिए उपयुक्त उम्मीदवार की तलाश में पवार को खासी माथापच्ची करनी पड़ी। आखिरकार उन्होंने एक सेवानिवृत्त नौकरशाह का नाम फाइनल किया जिसका कोई राजनीतिक आधार नहीं था। फिर भी उस नौकरशाह ने भारी बहुमत से जीत हासिल की। प्रजा ने अपने प्रिय योद्धा राजा के वंशज की जगह शरद पवार को चुना।

अब सवाल उठता है कि एनसीपी में आंतरिक कलह और उसके बाद उसे तोड़ने से बीजेपी को क्या हासिल कर लेने की उम्मीद है? जाने-माने मराठी पत्रकार प्रताप आसबे को लगता है कि अजित अपने लिए नहीं बल्कि बीजेपी के लिए बोल रहे हैं जो सीनियर पवार को महाराष्ट्र में अपने लिए सबसे बड़ी बाधा के रूप में देखती है। देशपांडे कहते हैं, ‘उन्होंने राज्य में सांप्रदायिक माहौल को बिगाड़ने की पूरी-पूरी कोशिश की लेकिन वोटरों के ध्रुवीकरण की कोशिशें उनकी योजना के मुताबिक नहीं हो सकीं। शिवसेना के टूटने के बाद भी एमवीए (महा विकास अघाड़ी) गठबंधन तब भी मजबूत दिख रहा था और बीजेपी बीजेपी के कई आंतरिक सर्वेक्षणों में पाया गया था कि शिंदे के साथ गठबंधन करने की वजह से पार्टी अपनी जमीन खोती जा रही है।

जब उन्हें अंदाजा हो गया कि शिंदे उनके लिए बोझ बनते जा रहे हैं, तो उन्हें एमवीए को अस्थिर करने के लिए कुछ तो करना ही था। लेकिन भाजपाबीजेपी यह नहीं देख पाती है कि महाराष्ट्र के लोग एमवीए की ओर इसलिए नहीं झुक रहे हैं कि वह क्या कर रही है बल्कि इसलिए क्योंकि वे बीजेपी की चालों से तंग आ चुके हैं जिसने 2019 के बाद से अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ हर तरह के हथकंडे अपनाए हैं।’ 


सूत्र बताते हैं कि बीजेपी के आंतरिक सर्वेक्षणों ने चार फोकस राज्यों के तौर पर बंगाल, बिहार, कर्नाटक और महाराष्ट्र की पहचान की है जहां से उनके पास लगभग 135-140 लोकसभा सीटें हैं। महाराष्ट्र अकेला ऐसा राज्य है जहां वे अपनी लोकसभा सीटें बरकरार रखने की उम्मीद कर सकते हैं। दक्षिण भारत में उनकी संभावनाएं सही मायने में कम हैं और मध्य और उत्तर भारत में मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे बड़े राज्यों की जो स्थिति है, वे किसी भी दिशा में जा सकते हैं। आरामदायक बहुमत जुटाने के लिए, बीजेपी को इन राज्यों में बड़ी जीत हासिल करनी होगी, इसी वजह से यह हताशा भरा खेल है। 2019 में बीजेपी-शिवसेना ने 48 में से 42 सीटें जीती थीं जिनमें सेना की सीटों की संख्या 18 थी। अखबारी रिपोर्टों की छोड़िए, ऐसा लगता है कि बीजेपी मानने लगी है कि शिंदे उन्हें पांच से ज्यादा सीटें नहीं जिता सकते। 

देशपांडे कहते हैं, ‘इंतजार कीजिए और देखिए। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आएगा, अजित पवार के भी बीजेपी के लिए बोझ बन जाने की संभावना है।’ वह कहते हैं कि एनसीपी का वोट बैंक सेकुलर है और पहले भी शिवसेना समेत भगवा खेमे से जब भी नजदीकियां बनीं, उसका नुकसान एनसीपी को हुआ।

इसके अलावा राज्य के सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने की बीजेपी की कोशिशों का भी उलटा असर हुआ है। ध्रुवीकरण का असर यह हुआ कि मुस्लिम वोट आम तौर पर एमवीए के पक्ष में एकजुट होते दिख रहे हैं, खास तौर पर उद्धव की शिवसेना के पक्ष में। जाहिर तौर पर, अपनी पार्टी को एक सहिष्णु हिन्दुत्व की ओर ले जाने के बारे में उद्धव के सार्वजनिक बयानों ने मुसलमानों के संशयों को काफी हद तक दूर किया है। मुख्यमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने विधानसभा में इस बात के लिए माफी मांगी कि उन्होंने धर्म को राजनीति से मिलाया और फिर रमजान के दौरान मुसलमानों को परेशान करने की बीजेपी की कोशिशों का पूरी ताकत से मुकाबला किया और इस तरह ‘हिन्दुत्व का गद्दार’ करार दिए जाने तक का भी जोखिम उठाया। 

पिछली जनगणना के अनुसार, राज्य में मुस्लिमों की आबादी 12 फीसदी है और यह वोट निश्चित रूप से बीजेपी के खिलाफ जा रहा है। दलित 20 फीसदी हैं और उनकी आबादी ज्यादातर विदर्भ और मराठवाड़ा में केन्द्रित हैं। आम तौर पर कांग्रेस और एनसीपी के साथ रहने वाले मराठा लगभग 30-32 फीसदी हैं।


बीजेपी की राजनीतिक चालों का विश्लेषण करते हुए देशपांडे कहते हैं- ‘उन्हें इस वोट बैंक में सेंध मारनी होगी लेकिन इसकी जबर्दस्त प्रतिक्रिया होने की संभावना है।’ राजनीतिक विश्लेषक हेमंत देसाई का मानना है कि इन तमाम हथकंडों के बाद भी एमवीए वोट बरकरार रहेगा।

पहली नजर में, उद्धव की शिव सेना और शरद पवार की एनसीपी दोनों संकट में हैं और  राजनीतिक इकाई के रूप में कमजोर दिख रही हैं लेकिन एमवीए गठबंधन के पक्ष में वोट स्विंग कराने की उनकी क्षमता को निश्चित ही नई बढ़त मिली है। उनके पास अब साथ रहने के बेहतर कारण हैं और यदि वे ऐसा करते हैं, तो संभवतः उन्हें मतदाताओं की सहानुभूति का भी लाभ मिलेगा।

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