गांधी की रीति पर चलते दिख रहे आंदोलनरत किसान, सत्ता पक्ष किस रीति पर चल रहा ये कहना मुश्किल

आंदोलनरत किसानों के लिए यह आसान नहीं है कि वे दिल्ली के नागरिकों को ज्यादा असुविधा दिए बगैर सरकार पर दबाव बना सकें। इस संतुलन के बनाए रखने में भी वे गांधी की रीति पर चलते दिख रहे हैं। मगर सत्तापक्ष किस रीति पर चल रहा है, यह कहना मुश्किल है।

फोटो : सोशल मीडिया
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कृष्ण कुमार

जिसके साथ हमारे संबंधों में कड़वाहट चल रही हो, उसके सामान्य कष्टों की उपेक्षा करना रीतिसम्मत नहीं है। आम तौर पर इसे व्यवहार-कुशलता माना जाता है कि अपने प्रतिपक्षी का हालचाल पूछते रहना चाहिए। पूछना मामूली बात है, कई लोग बाकायदा हमदर्दी जताना जानते हैं और कुछ लोग एक कदम आगे बढ़कर संबंधों की खटास के बावजूद मदद करने के लिए तैयार हो जाते हैं। इस प्रवृत्ति को पारंपरिक मूल्यों के एक आम गुच्छे की तरह देखा जा सकता है। इस गुच्छे में अजनबी को सत्कार देना, दुश्मन यदि मेहमान बनकर आए, तो उसके आराम का ध्यान रखना, प्रतिस्पर्धी के शारीरिक कष्ट का फायदा न उठाना सरीखे व्यवहार शामिल हैं। सुबह की भीषण ढंड में कोहरे के बीच दो-चार कदम रखते हुए मन ने पूछा कि क्या ये मूल्य अब भारत में नहीं रहे?

इस गुच्छे में शामिल कई मूल्य अंतरराष्ट्रीय जगत में संस्था बद्ध हो चुके हैं। ‘जिनेवा कन्वेन्शन’ के तहत युद्ध में बंदी बनाए गए शत्रु सैनिकों के भोजन और स्वास्थ्य का इंतजाम करना शामिल है। युद्ध के नियमों में कई बहुत पुराने हैं। उनकी अनदेखी करने और जानबूझकर उन्हें तोड़ने के बीच अंतर के कई प्रसंग महाभारत में मिलते हैं। जरूर यह विषय मनुष्य के इतिहास से जुड़ा हुआ है और हर बड़ी सभ्यता में इसके चिह्न ढूढ़े जा सकते हैं। बचपन में कई शिक्षक समझाते थे कि लड़ते समय दूसरे को चोट आ गई हो, तो लड़ना रोककर पहले उस चोट का इलाज करो। कुछ लड़कों को यह बात स्वयं सूझ जाती थी, बाकी को बतानी पड़ती थी। खेल के दौरान सभी जानते थे और आज भी मानते हैं कि दूसरी टीम में किसी को शारीरिक कष्ट हो, तो उसके साथ सावधानी से खेलो।

आशय यह है कि कष्ट या तकलीफ दुश्मनी से ऊपर की चीज है। प्रकृति के प्रकोप और मौसमवार चुनौतियों से जूझते हुए बड़े और छोटे या दोस्त और वैरी सभी सिर्फ मनुष्य रह जाते हैं। कोई जाड़े में ठिठुर रहा है या गर्मी में प्यासा है, उसकी फिक्र करने के लिए टैगोर का ‘मानव–धर्म’ पढ़ने की जरूरत नहीं है। ये बातें बचपन से गुजरने तक किसी-न-किसी तरह सब तक पहुंच जाती हैं। तो फिर दिल्ली की सर्दी में खुले आकाश के नीचे बैठे हजारों किसानों का कष्ट शासकों को महसूस क्यों नहीं हो रहा है? यह प्रश्न किसी भी तरह से राजनीति-प्रेरित नहीं है, पर एक गहन अर्थ में राजनैतिक और हमारे देश के संदर्भ में ऐतिहासिक भी है।

यह इतिहास और उससे उपजी राजनीति आधुनिक है। इस राजनीति के जन्मदाता गांधी थे। स्वयं को शारीरिक कष्ट देकर प्रतिपक्षी में मानवीयता जगाना ही उनकी राजनीति थी। इस विचार का आधार कुछ इस तरह रखा जा सकता है कि मनुष्यता हरेक में होती है, पर कई परिस्थितियों में वह सो जाती है। साम्राज्यवाद ने कुछ ऐसी परिस्थितियां बनाईं कि ब्रिटेन की मानवीयता गहरे दब गई। मानवीयता में सामान्य मानव-बुद्धि भी शामिल है। गांधी ने पाया कि दबी हुई मानवीय चेतना को जगाना संभव है। जो अपनी मानवीय चेतना खोकर क्रूर बन बैठा हो, उस पर क्रूरता बरपाना बेकार है यद्यपि ऐसा करने को मन ललचाता है। हिंसा के लालच की जगह अपने को तकलीफ देकर दुश्मन का मन जीत लेना ही महात्मापन है गांधी का। यदि चर्चा का दायरा सैद्धांतिक रहता, तो उनकी तरकीब खारिज कर देना आसान होता। चूंकि गांधी जी कई प्रसंगों में अंग्रेजों की सरकार की बुद्धि जागृत करने में कामयाब रहे, इसलिए उन्हें राजनैतिक दर्शनशास्त्र के पाठ्यक्रम में रखा जाता है। भारत की आजादी को लंबे समय तक अपना नेतृत्व देकर गांधी जी ने कई मूल्यों को जन्म दिया, कुछ को धो-पोंछकर सबके सामने पेश किया। खुद को कष्ट देकर अपनी बात पर टिकना इनमें से एक मूल्य है। इस मूल्य का दर्शन करना हो, तो कोई किताब पढ़ना या किसी विश्वविद्यालय में दाखिला लेना जरूरी नहीं है। भारत की राजधानी की सीमा पर दिखाई दे रहे नजारे इसी मूल्य की अभिव्यक्ति हैं। ये नजारे गांधी के राजनैतिक प्रयोग की आज तक बनी हुई प्रासंगिकता की अभिव्यक्ति भी हैं।


प्रासंगिकता सफलता की मोहताज नहीं होती। दूर- दूर के गावों से दिल्ली आए किसान और उनके संगठन वही सब कर रहे हैं जो गांधी करते, यही उनके दर्शन की प्रासंगिकता मापने का पैमाना है। यह मात्र संयोग नहीं है कि किसान ऐसा कर पा रहे हैं। अपनी बात की सचाई को लेकर समाज का कोई तब का ऐसा नहीं कर सका है। कम-से-कम इस पैमाने पर तो नहीं ही कर सका। अपने-अपने दुखों का इजहार सब करते हैं और जब करते हैं, तो शेष समाज से अपनी दशा के प्रति सहानुभूति या कम-से-कम जिज्ञासा की उम्मीद रखते हैं। बाकी रही सत्ता। वह लोकतंत्र में हस्तांतरित होती रहती है। इसलिए जो पक्ष सत्ता में होता है, उससे यह न्यूनतम अपेक्षा रहती है कि अपनी तकलीफ और चिंताएं बता रहे समूह के प्रति आदर दिखाए। आदर में उस शारीरिक और मानसिक कष्ट को लेकर उत्सुकता और फिक्र शामिल है जो अपनी दलील रखने वाले लोग परिस्थितिवश भोग रहे हैं। किसानों की तरफ से रखी जा रही दलीलों को खारिज करने से कहीं ज्यादा बुरा है उस कष्ट की उपेक्षा करना जिसे वे आज सार्वजनिक रूप से दिल्ली की सीमाओं पर निडरता और निश्चय के साथ उठा रहे हैं। उन्हें प्रदर्शनकारी कहना उनके सत्याग्रह की अवमानना है।

उनके दैनिक कष्टों की अनदेखी शेष समाज आदतन करता आया है। सब्जी-दाल-रोटी जैसी हर चीज की कीमत को लेकर मोलतोल करना शहरी मध्यमवर्ग का अनिवार्य स्वभाव है। वह किसान के जीवन की अर्थव्यवस्था से अपरिचित बना रहता है, स्वयं को चतुर मानता है। इस विशाल वर्ग को थोड़ी-सी असुविधा भी बर्दाश्त नहीं होती। आंदोलनरत किसानों के लिए यह आसान नहीं है कि वे दिल्ली के नागरिकों को ज्यादा असुविधा दिए बगैर सरकार पर दबाव बना सकें। इस संतुलन के बनाए रखने में भी वे गांधी की रीति पर चलते दिख रहे हैं। मगर सत्तापक्ष किस रीति पर चल रहा है, यह कहना मुश्किल है। वह न तो परंपरागत रीति है जिसमें दूसरे का कष्ट महसूस करना एक बड़ा मूल्य है; न ही आधुनिकता की रीति है जो लोकतंत्र के मूल्यों पर चलती है और प्रतिपक्ष का सच स्वीकारने को हार नहीं मानती। रीति और नीति-दोनों खो चुकी सत्ता की शिक्षा के लिए गांव को शहर आना पड़ा है।

इस लेख के लेखक कृष्ण कुमार हैं

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