राम पुनियानी का लेखः हेट स्पीच की आग संसद तक पहुंची, आखिर ये नफरत हमें कहां ले जाएगी?
कोई भी संवेदनशील नजर आसानी से पढ़ सकती है कि मुस्लिम समुदाय में किस कदर डर, असुरक्षा और रोष का भाव व्याप्त है। मुसलमान हाशिये पर ढकेल दिए गए हैं और वे कुंठित और असहाय महसूस कर रहे हैं।
![हेट स्पीच की आग संसद तक पहुंची](https://media.assettype.com/navjivanindia%2F2023-09%2F9ab9779b-ca4f-44a8-93ca-08a5bf397a0f%2FDanish_Ali_Ramesh_Bidhuri.jpg?rect=0%2C0%2C848%2C477&auto=format%2Ccompress&fmt=webp)
पिछले कुछ महीनों में देश में कई ऐसी घिनौनी घटनाएं हुई हैं जिनसे यह पता चलता है कि हमारे समाज में नफरत का ज़हर किस हद तक घुल चुका है और यह भी कि यह नफरत दिन-दोगुनी रात-चौगुनी गति से बढ़ती जा रही है। उत्तर प्रदेश में कंडक्टर मोहित यादव ने बस थोड़ी देर के लिए रुकवा दी क्योंकि कुछ लोग लघुशंका निवारण करना चाहते थे और कुछ नमाज़ पढना चाहते थे। नमाज़ पढ़ते हुए यात्रियों का वीडियो बना लिया गया। यादव और बस के ड्राईवर के खिलाफ शिकायत हुई और दोनों को निलंबित कर दिया गया। कुछ दिन बाद यादव ने आत्महत्या कर ली।
उत्तर प्रदेश में ही एक प्राइमरी स्कूल की अध्यापिका तृप्त त्यागी ने होमवर्क न करने के कारण एक मुस्लिम बच्चे को क्लास में खड़ा किया और फिर दूसरे बच्चों से कहा कि वे सब उसे एक-एक तमाचा मारें। अध्यापिका ने यह भी कहा कि मुस्लिम लड़कों को स्कूल छोड़ देना चाहिए। एक अन्य अध्यापिका मंजुला देवी ने दो मुस्लिम विद्यार्थियों, जो आपस में लड़ रहे थे, से कहा कि यह उनका देश नहीं है। कुछ स्कूलों से ऐसी खबरें मिली हैं कि हिन्दू बच्चे अपने मुस्लिम सहपाठियों को अपने साथ नहीं खिलाते।
‘प्रजातंत्र की जननी’ भारत की संसद में हाल में इससे भी ज्यादा घृणास्पद घटनाक्रम हुआ। बीजेपी सांसद रमेश बिधूड़ी ने बीएसपी सदस्य दानिश अली को मुल्ला, आतंकवादी, राष्ट्रद्रोही, दलाल और कटुआ कहा। इस मुद्दे पर बीजेपी ने केवल अनमने भाव से खेद जताया और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने बिधूड़ी को चेतावनी दी है कि अगर उन्होंने इस तरह की हेट स्पीच फिर दी तो उनके खिलाफ कार्यवाही की जाएगी। दानिश अली ने लोकसभा अध्यक्ष को पत्र लिखकर हेट स्पीच देने और उन्हें अपमानित करने के लिए बिधूड़ी के खिलाफ कार्यवाही की मांग की है।
वहीं कई बीजेपी सांसद और नेता अपने साथी के बचाव में आगे आ गए हैं और उन्होंने दानिश अली पर बिधूड़ी को भड़काने का आरोप लगाया है। मुख़्तार अब्बास नकवी ने कहा कि दानिश अली ने कांग्रेस में शामिल होने के लिए यह सारा नाटक किया है। यह महत्वपूर्ण है कि जिस समय बिधूड़ी अपना ज़हरबुझा भाषण दे रहे थे, उस समय दो पूर्व केन्द्रीय मंत्री डॉ हर्षवर्धन और रविशंकर प्रसाद हंस रहे थे।
संसद में जो हुआ वह नफरत की राजनीति का चरमोत्कर्ष था। इस प्रकृति की जितनी घटनाएं हो रही हैं, उनमें से बहुत कम सामने आ रही हैं। कोई भी संवेदनशील नज़र आसानी से पढ़ सकती है कि मुस्लिम समुदाय में किस कदर डर, असुरक्षा और रोष का भाव व्याप्त है। मुसलमान हाशिये पर ढकेल दिए गए हैं और वे कुंठित और असहाय महसूस कर रहे हैं। दलितों, महिलाओं और आदिवासियों की आर्थिक बदहाली, उनका दमन और अपमान और उनके खिलाफ हिंसा भी उतनी ही डरावनी है। और यह सब बहुसंख्यकवादी राजनीति के परवान चढ़ने का नतीजा है।
क्या नफरत हमारे समाज के लिए नई चीज है? बिलकुल नहीं। मुस्लिम और हिन्दू सांप्रदायिक धाराएं अपने जन्म के बाद से ही ‘दूसरे’ समुदाय के खिलाफ नफरत को हवा देती आई हैं। इसी से देश में सांप्रदायिक हिंसा शुरू हुई। औपनिवेशिक काल में जिस तरह की सांप्रदायिक हिंसा हुई, वह उसके पहले राजे-रजवाड़ों के काल में होनी वाली शिया-सुन्नी या शैव-वैष्णव पंथिक हिंसा से बहुत अलग थी। आज जहां पाकिस्तान, हिन्दुओं और ईसाईयों के खिलाफ सांप्रदायिक नफरत से उबल रहा है, वहीं भारत में मुसलमानों और ईसाईयों के खिलाफ नफरत बढ़ रही है।
धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत का आख्यान, सांप्रदायिक संगठनों ने गढ़ा और मीडिया ने उसे गहराई और व्यापकता दी। हमारे नेताओं को मीडिया की इस भूमिका का काफी पहले से अहसास था। स्वामी श्रद्धानन्द की अब्दुल रशीद द्वारा हत्या की खुलकर निंदा करते हुए महात्मा गांधी ने अपने पाठकों का ध्यान अख़बारों की भूमिका की ओर दिलाया। ‘यंग इंडिया’ के 30 दिसंबर 1926 के अंक में “श्रद्धानंदजी– द मारटेयर” शीर्षक से प्रकाशित अपने लेख में उन्होंने सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने और समाज में नफरत और हिंसा का प्रसार करने में अख़बारों की भूमिका के बारे में लिखा।
हिंसा का ज़हर फैलाने में प्रमुख सांप्रदायिक संगठन आरएसएस की भूमिका का खुलासा करते हुए तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने आरएसएस के मुखिया गोलवलकर को लिखी एक चिट्ठी में कहा था: “उनके (आरएसएस) सभी भाषण सांप्रदायिक ज़हर से भरे रहते थे। हिन्दुओं को उत्साहित करने के लिए या उन्हें उनकी सुरक्षा के लिए संगठित करने के लिए, यह ज़हर फैलाने की ज़रुरत नहीं थी। इसी ज़हर के अंतिम नतीजे में देश को गांधीजी की अमूल्य ज़िन्दगी का बलिदान देखना पड़ा।”
आज भी नफरत का स्त्रोत वही संगठन है जिसकी सरदार पटेल बात कर रहे हैं। इस नफरत को आरएसएस के विभिन्न अनुषांगिक संगठन बढ़ा रहे हैं। इस काम में कॉर्पोरेट-नियंत्रित गोदी मीडिया की भूमिका कम नहीं है। गोदी मीडिया सरकार के आगे नतमस्तक है और विपक्ष और सत्ताधारी दल के आलोचकों पर हमलावर है। सभी प्रमुख टीवी नेटवर्क कॉर्पोरेट घरानों ने खरीद लिए हैं और ये घराने सत्ताधारी दल के नज़दीक हैं। हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लक्ष्य को लेकर चल रही बीजेपी ने एक सोशल मीडिया सेल खोला है और नफरत के अपने सन्देश को फैलाने के लिए लाखों व्हाट्सएप ग्रुप बनाए हैं।
आश्चर्य नहीं कि इन हालातों में इंडिया गठबंधन को मजबूर होकर यह निर्णय लेना पड़ा कि उसके प्रवक्ता अलग-अलग चैनलों के 14 एंकरों की मेजबानी वाले टॉक शो में हिस्सा नहीं लेंगे। अपने आकाओं को खुश करने की होड़ में ये एंकर विपक्षी पार्टियों और अल्पसंख्यक समुदायों पर कीचड़ उछालने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते। वे पत्रकारिता के इस मूल सिद्धांत को भूल चुके हैं कि पत्रकारों को निष्पक्ष होना चाहिए और उनमें यह साहस होना चाहिए कि वे शक्तिशाली सत्ताधारियों के मुंह पर बेबाकी से सच बोल सकें।
हमारा गणतंत्र एक गंभीर संकट के दौर से गुज़र रहा है। प्रजातंत्र की उच्चतम संस्था से नफरत फैलाई जा रही है। इसका हमारे सामाजिक जीवन, हमारे संवैधानिक मूल्यों और देश के लोगों के बीच भाईचारे पर क्या असर पड़ेगा? जिस बेशर्मी से रमेश बिधूड़ी का बचाव किया जा रहा है उससे साफ़ है कि उन्हें उनके शीर्ष नेताओं का वरदहस्त हासिल है। हेट स्पीच को रोकने का कोई प्रयास नहीं हो रहा है और ना ही नफरत फैलाने वालों के खिलाफ कोई कार्यवाही हो रही है। धर्मसंसदों के आयोजक और यति नरसिंहानंद जैसे लोग नफरत की दुकानें चला रहे हैं।
नरसंहार से जुड़े मसलों के अध्येता प्रोफेसर ग्रेगोरी स्टेंटन ने रवांडा के रेडियो के प्रसारणों को सुनकर यह भविष्यवाणी की थी कि वहां नरसंहार होगा। और 1994 में वही हुआ। उनके अनुसार, भारत में नरसंहार होने की संभावना एक से दस के स्केल पर आठ है। देश में जिस तरह की भयावह घटनाएं हो रहीं हैं, क्या उनकी निंदा करना, उन पर टिपण्णी करना ही पर्याप्त है? क्या हम मूक दर्शक बने रह सकते हैं? क्या संपूर्ण विपक्ष एक स्वर में हेट स्पीच की खिलाफत नहीं कर सकता? क्या भारत के संविधान के मूल्यों में यकीन रखने वाले राजनैतिक दल, सामाजिक संगठन और मानवाधिकार समूह, देश में भाईचारे को बढ़ावा देने के लिए कुछ नहीं कर सकते? यह सब जल्द से जल्द होना चाहिए। पहले ही बहुत देर हो चुकी है।
(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
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