फिलिस्तीन को ‘मान्यता’ देने का फरेब
कई देशों में जनाक्रोश जिस तरह बढ़ रहा है, उसे नजरअंदाज करना असंभव है, और अब ये सरकारें अपनी खमोशी तथा मिलीभगत की राजनीतिक कीमतों का आकलन करने पर मजबूर हो गई हैं।

वर्षों की खामोशी के बाद, पश्चिमी राजधानियां एक बार फिर फिलिस्तीन की बात कर रही हैं। ब्रिटेन, फ़्रांस, बेल्जियम और कनाडा, ऑस्ट्रेलिया के अलावा कई अन्य यूरोपीय देशों ने फिलिस्तीन को औपचारिक रूप से मान्यता देने का फैसला किया है। यह ‘समय संयोग’ मात्र नहीं है। दरअसल, इन देशों में जनाक्रोश जिस तरह बढ़ रहा है, उसे नजरअंदाज करना असंभव है, और अब ये सरकारें अपनी खमोशी तथा मिलीभगत की राजनीतिक कीमतों का आकलन करने पर मजबूर हो गई हैं।
गाजा पर इजराइली युद्ध को दो साल होने को हैं और अब तक यह अनुमानत: 6,80,000 फिलिस्तीनी लोगों की जान ले चुका है। हर दिन, पिछले दिन से भी ज्यादा लोग मर रहे हैं। टेलीविजन पर नरसंहार की जैसी भयावह तस्वीरें हैं, उसका शब्दों में बयान संभव नहीं। विश्व की उदासीनता अविश्वसनीय है, और इजराइल की ‘दंडमुक्ति’ तथाकथित नियम-आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का मखौल उड़ा रही है।
गाजा में अकाल के हालात हैं; अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (आईसीजे) ने इजराइली कब्जे को गैरकानूनी बताया है; अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (आईसीसी) ने इजराइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी किए हैं; और संयुक्त राष्ट्र आयोग ने इजराइल को गाजा पट्टी में नरसंहार का दोषी पाया है। लेकिन नरसंहार बेरोकटोक जारी है।
ऐसे में इस विलंबित ‘मान्यता’ का क्या मतलब! इतिहास गवाह है कि ऐसे प्रतीकात्मक इशारे असल संप्रभुता में तब्दील नहीं होते।1967 में इजराइली कब्जे के बाद से, फिलिस्तीनी सैन्य सत्ता के अधीन हैं और प्रतिरोध तथा कूटनीति, दोनों रास्तों से राज्य का दर्जा पाने के लिए लड़ रहे हैं।
यह सस्ती ‘मान्यता’ है। इसके लिए न तो आर्थिक हित कुर्बान होने जा रहे, न वाशिंगटन से टकराव, और न ही इजराइल के कब्जे और युद्ध के लिए यूरोप के दीर्घकालिक समर्थन में कोई रुकावट आने वाली।
जब तक व्यापार, हथियारों के हस्तांतरण, कॉरपोरेट जिम्मेदारी और इजराइल को राजनयिक रूप से काली सूची में डालने पर ठोस कार्रवाई (प्रतिबंध/बहिष्कार) नहीं की जाती, ‘मान्यता’ महज खोखला दिखावा रहेगा, और शायद उस घरेलू नाराजगी को भी नियंत्रित करने में नाकाम रहे जिसने इन सरकारों को ऐसे प्रत्यक्ष इशारे करने को मजबूर किया है।
अमेरिका भी फिलिस्तीन राज्य को मान्यता देने को एक दिखावा कहता है, और यह है भी, हालांकि अमेरिका की निंदा भी इजराइल के हित में एक तरह का दिखावा ही है। अमेरिका ने हाल ही में मान्यता देने वालों को चेताया है कि उन्होंने इजराइल के खिलाफ कोई कदम उठाया तो नतीजे भुगतने होंगे। इजराइली अधिकारी खुलेआम फ़्रांस के खिलाफ जवाबी कार्रवाई की बात कर रहे हैं। कुछ मंत्री पश्चिमी तट के उन कुछ हिस्सों पर कब्जा करने के पक्ष में हैं, जो वैसे भी इजराइल के रडार पर है।
सऊदी अरब ने विलय के गंभीर नतीजों की चेतावनी दे रखी है। इजराइल के साथ अब्राहम समझौते पर हस्ताक्षर करने वाला संयुक्त अरब अमीरात भी विलय को एक सीमा रेखा कहता है। कतर, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) जैसे अरब देश भी हमास वार्ताकारों को निशाना बनाने के लिए दोहा पर इजराइली हमले के बाद अपनी प्रतिक्रिया के लिए तैयार हो रहे हैं। 8 सितंबर को कतर, जहां पश्चिम एशिया का सबसे बड़ा अमेरिकी एयरबेस है, 7 अक्तूबर 2023 के बाद से इजराइली हमला झेलने वाला सातवां अरब देश बन गया।
अमेरिका ने यूरोप को इजराइल की सुरक्षा या उसके कूटनीतिक संरक्षण में निर्णायक भूमिका निभाने की कभी भी अनुमति नहीं दी है। वाशिंगटन इजराइल का सैन्य कवच, वित्तीय जीवनरेखा और कूटनीतिक छतरी है। वही इजराइल की दंडमुक्ति (माफी) का प्रायोजक भी। इसकी तुलना में यूरोप छोटा-सा खिलाड़ी है, एक ऐसा वफादार जो अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इजराइल को सुरक्षा देता है, बदले में उसके बाजारों और नवाचारों का लाभ उठाता है। यूरोप द्वारा फिलिस्तीन को मान्यता देने से भी यह समीकरण प्रभावित होने वाला नहीं है।
हालांकि, यूरोपीय संघ-इजराइल व्यापार के आंकड़े इस रिश्ते का एक और चेहरा दिखाते हैं। 2024 में यूरोपीय संघ और इजराइल के बीच वस्तुओं का कुल व्यापार 42.6 बिलियन यूरो था, जो संघर्ष के बावजूद पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 1 बिलियन यूरो ज्यादा था। यूरोपीय संघ का इजराइल के साथ एक महत्वपूर्ण व्यापार अधिशेष है और 2024 में इजराइल के वस्तु व्यापार का 32 प्रतिशत हिस्सा यूरोपीय संघ के पास था; इजराइल यूरोपीय संघ के बाहरी व्यापार का 1 प्रतिशत से भी कम प्रतिनिधित्व करता है।
2024 में इजराइल के रक्षा मंत्रालय ने 14.7 अरब डॉलर के हथियार निर्यात की सूचना दी, जो पिछले वर्ष की तुलना में 13 प्रतिशत ज्यादा है। इनमें से आधे से ज्यादा रक्षा सौदे यूरोपीय देशों के साथ हुए। यह उस रिश्ते का भौतिक आधार है जिसे फिलिस्तीन की ‘मान्यता’ ने अछूता छोड़ दिया है।
इजराइल द्वारा दशकों से बस्तियों के विस्तार के बावजूद, यूरोप ने तरजीही संबंध कायम ही नहीं रखे, उन्हें और गहरा किया है। 1995 से एक मुक्त व्यापार समझौता लागू है। 2010 में कृषि व्यापार का विस्तार हुआ। 2013 में दवाइयों के लिए एक पारस्परिक मान्यता व्यवस्था लागू हुई। 2018 में एक खुले आसमान वाला विमानन समझौता हुआ। बहुप्रचारित भेदभाव की नीति, जो बस्तियों के उत्पादों को तरजीही व्यवस्थाओं से बाहर रखती है, महज एक इशारा है, न कि लाभ उठाने का कोई साधन। इसने न तो उपनिवेशीकरण को रोका और न ही धीमा किया है।
यूरोप ने पड़ोस नीति और अनुसंधान ढांचों के जरिये वित्तीय और संस्थागत लाभ भी मुहैया कराए हैं। इजराइल यूरोपीय संघ की दक्षिणी पड़ोस रणनीति (दक्षिणी भूमध्यसागरीय क्षेत्र के देशों के साथ जुड़ाव का एक रणनीतिक ढांचा) में एक विशेषाधिकार प्राप्त भागीदार बना हुआ है, भले ही इस नरसंहारकारी युद्ध को छेड़ने वाला भी वही है।
सैन्य और कॉरपोरेट हित की जड़ें गहरी हैं। अकेले जर्मनी ही इजराइल के हथियारों के एक बड़े हिस्से का आपूर्ति कर्ता है, और गाजा के मलबे में तब्दील होने के बावजूद उसने इजराइल को अपना निर्यात बढ़ाया है। हालांकि स्पेन ने इस महीने इजराइल के साथ सभी हथियार सौदे जरूर रद्द कर दिए हैं, लेकिन यूरोपीय संघ में इन पर कोई व्यापक प्रतिबंध नहीं है। जुलाई 2024 में, अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया था कि राज्यों को अधिकृत फिलिस्तीनी क्षेत्रों में अवैध हालात में किसी तरह का सहायता या सहयोग नहीं करना चाहिए। हथियारों और सुरक्षा तकनीक का व्यापार जारी रखकर, यूरोपीय संघ के राज्य युद्ध अपराधों और मानवता के विरुद्ध अपराधों में संलिप्तता के लिए उत्तरदायी हैं।
विरोधाभास साफ दिखता है। एक तरफ, यूरोपीय नेता संयुक्त राष्ट्र महासभा में फिलिस्तीन राज्य को अपनी ‘मान्यता’ की घोषणा करते हैं और ‘द्वि-राष्ट्र समाधान’ पर शिखर सम्मेलनों में शामिल होते हैं। दूसरी तरफ, उनकी सरकारें हथियार बेचती हैं, अरबों यूरो के समझौतों की रक्षा करती हैं और गंभीर प्रतिबंधों से इजराइल की रक्षा करती हैं।
यूरोपीय कमीशन ने यूरोपीय संघ-इजराइल एसोसिएशन समझौते के कुछ अंश निलंबित करने और आयात के एक हिस्से पर शुल्क लगाने की योजना पेश की है, लेकिन प्रमुख सदस्य देश इसे रोकने को तैयार हैं। अगर यह पारित भी हो जाता है, तो अरबों डॉलर के व्यापारिक संबंधों में इजराइल को इन प्रतिबंधों से होने वाली अनुमानित लागत नाममात्र की होगी। यह दबाव नहीं, महज राजनीतिक नौटंकी है।
इजराइल के प्रति यूरोप की झिझक के पीछे एक और कारण है। पूरे महाद्वीप की मुख्यधारा की राजनीति अति-दक्षिणपंथी विचारधारा से डरी हुई है। इस्लामोफोबिया और प्रवासी-विरोधी आक्रोश पर पलने वाली पार्टियां पहले ही ‘मान्यता’ पर हमला बोल चुकी हैं। नेता हर कदम पर लोकलुभावन प्रतिक्रिया के जोखिम को ध्यान में रखते हुए चलते हैं। यह सब बताता है कि मान्यता मिलने में इतना समय क्यों लगा और सरकारें अब भी ऐसे कदम उठाने से क्यों कतराती हैं जो इजराइली व्यवहार को बदलने वाले हो सकते हैं।
इजराइल इन विभाजनों को समझता है और उनका फायदा उठाता है। वर्षों से, उसने आम सहमति को रोकने के लिए ही हंगरी, चेक गणराज्य, ऑस्ट्रिया और जर्मनी के साथ रिश्ते मजबूत किए हैं। इजराइली कूटनीति द्विपक्षीय समझौतों पर केन्द्रित है, क्योंकि उसे पता है कि ब्रुसेल्स में एक वीटो सामूहिक कार्रवाई को पंगु बना सकता है।
यह निष्क्रियता यूरोप की विश्वसनीयता को कमजोर कर रही है। वही सरकारें जो रूस द्वारा यूक्रेन के इलाक़ों पर कब्जा करने की निंदा करती हैं, इजराइल से व्यापार जारी रखती हैं, जबकि इजराइल फिलिस्तीनी भूमि पर अपना नियंत्रण और मजबूत करता जा रहा है। वही नेता जो एक युद्ध में जवाबदेही तय करने की बात करते हैं, अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय द्वारा वांछित सरकार के साथ सहयोग स्थगित करने से भी हिचकिचाते हैं।
फिलिस्तीनियों को ‘द्वि-राज्य समाधान’ के लिए और ज्यादा दिखावटी समर्थन की जरूरत नहीं है। उन्हें अंतरराष्ट्रीय समुदाय से उस राज्य को धन, हथियार और वैधता प्रदान करने से रोकने की जरूरत है जो उन्हें तबाह कर रहा है। जब तक यूरोप मान्यता के साथ-साथ व्यापार, हथियारों, कॉरपोरेट संबंधों और कूटनीतिक सुरक्षा पर वास्तविक दबाव नहीं बनाता, उसके इशारे खोखले ही रहेंगे। ‘मान्यता’ का प्रतीकवाद विलय को नहीं रोक पाएगा। इससे न तो बमबारी रुकेगी, न ही भूखों को खाना मिलेगा और न ही बंधकों को आजाद किया जा सकेगा।
(अशोक स्वैन स्वीडन के उप्सला विश्वविद्यालय में शांति और संघर्ष अनुसंधान के प्रोफेसर हैं।)
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia