सत्ता अहिंसक आंदोलनों को भी आतंकवाद की तरह कुचलती है!

पूरी दुनिया में शांतिपूर्ण आंदोलनों को पुलिस और सत्ता हिंसक तरीके से ही कुचल रही है। अब तो आंदोलनों को कुचलना दक्षिणपंथी कट्टरवादी सत्ता वाले प्रजातंत्र का एक हिस्सा बन गया है।

डोनाल्ड ट्रंप
डोनाल्ड ट्रंप
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महेन्द्र पांडे

वर्ष 2020 में अमेरिका में एक श्वेत पुलिस अधिकारी द्वारा अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के बाद पहले देशव्यापी और बाद में अंतरराष्ट्रीय आंदोलन किए गए। ब्लैक लाइव्ज मैटर्स के बैनर तले किये गए ये आंदोलन अमेरिका के इतिहास के सबसे बड़े आंदोलनों में से एक हैं। इन आंदोलनों के शुरुआती 15 दिनों के भीतर ही पुलिस ने 17000 से अधिक आंदोलनकारियों, पत्रकारों और आंदोलन के दर्शकों को गिरफ्तार किया था। तत्कालीन ट्रंप प्रशासन और पुलिस ने इन शांतिपूर्ण आंदोलनों को हिंसक करार दिया था और ट्रम्प के दौर की भक्त मीडिया ने भी इन आंदोलनों को आतंकवादी गतिविधियों से जोड़ा था। वर्ष 2020 के राष्ट्रपति चुनावों से ठीक पहले यह आंदोलन स्वतः शांत हो गया और हत्यारे पुलिस अधिकारी, चौविन, को 21 वर्षों के कैद की सजा सुनाई गयी।

इन आंदोलनों के दौरान पुलिस द्वारा और पीड़ितों द्वारा अनेक मुकदमे दर्ज कराये गए थे। इनमें से कुछ मुकदमे आज भी चल रहे हैं। हाल में ही इनमें से ऐसे 130 मुकदमों, जिनके फैसले दिए जा चुके हैं, का विस्तृत विश्लेषण किया गया है। ये सभी मुक़दमे 25 राज्यों के 40 शहरों में दर्ज किए गए थे। इनमें से अधिकतर मुकदमों में पुलिस दोषी पाई गयी है और पीड़ितों को पुलिस द्वारा बिना किसी अपराध के प्रताड़ित करने के लिए ऐसे पीड़ितों को सम्मिलित तौर पर 15 करोड़ डॉलर से अधिक का मुआवजा दिया गया है। इनमें से कुछ पीड़ितों को जो मुआवजा दिया गया है, वह अमेरिका के इतिहास में पुलिस द्वारा गैर-कानूनी तौर पर प्रताड़ित करने वाले मामलों में सर्वाधिक हैं। इन मामलों के बाद, अमेरिका में पुलिस व्यवस्था और तंत्र में भी कुछ बदलाव किये गए हैं।

इस विश्लेषण में बताया गया है कि तमाम मुकदमों में पीड़ितों को दिए गए भारी-भरकम मुआवजे से इतना तो स्पष्ट है की आंदोलनकारी और प्रदर्शनकारी अहिंसक थे, जबकि पुलिस ने क्रूरता की सारी हदें पार करते हुए हिंसक और गैर-कानूनी रास्ता अपनाया था। अमेरिकी पुलिस ने यह साबित कर दिया कि संविधान के पहले संशोधन के तहत जनता को दिए गए शांतिपूर्ण प्रदर्शन और आंदोलन के अधिकार का आदर करने के सन्दर्भ में पुलिस की कोई भी दिलचस्पी नहीं है। तत्कालीन राष्टपति डोनाल्ड ट्रम्प ने भी इन आंदोलनकारियों को आतंकवादी करार दिया था।

डोनाल्ड ट्रम्प की बाद सत्ता संभालने वाले राष्ट्रपति जो बाइडेन ने बड़े तामझाम से पुलिस की कार्यशैली में कुछ बदलाव इस दावे के साथ किए थे की शांतिपूर्ण आंदोलनों पर कोई कार्यवाही पुलिस नहीं कर पायेगी। मीडिया ने भी इन बदलावों की प्रशंसा भी की। पर, इसके बाद अमेरिका में कोई बड़ा जन-आंदोलन नहीं हुआ। हाल में ही, फिलिस्तीन में अमेरिका की मदद से इजराइल द्वारा किए जा रहे व्यापक नरसंहार के विरोध में विश्वविद्यालयों के छात्रों द्वारा लगभग राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन किए गए। इनमें से अधिकतर प्रदर्शन शांतिपूर्ण थे, पर पुलिस ने फिर से आन्दोलनों को बर्बर तरीके से कुचलने का काम किया। शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन कर रहे आंदोलनकारियों पर बैटन, आंसू गैस, रबर बुलेट इत्यादि से पुलिस ने हमला किया और 3000 से अधिक छात्रों को बंदी बनाया गया।


पूरी दुनिया में शांतिपूर्ण आंदोलनों को पुलिस और सत्ता हिंसक तरीके से ही कुचल रही है। अब तो आंदोलनों को कुचलना दक्षिणपंथी कट्टरवादी सत्ता वाले प्रजातंत्र का एक हिस्सा बन गया है। हमारे देश को प्रधानमंत्री मोदी भले ही “मदर ऑफ़ डेमोक्रेसी” बताते हों, पर उनके राज में सत्ता के विरोध में शांतिपूर्ण आंदोलन का आयोजन भी लगभग असंभव हो चला है। मोदी राज में शांतिपूर्ण आंदोलनों को अत्यधिक पुलिस और अर्धसैनिक बालों द्वारा बर्बरता से कुचला जाता है, आयोजकों को तमाम झूठे आरोपों के साथ जेल में बंद कर दिया जाता है और मेनस्ट्रीम मीडिया के साथ सोशल मीडिया पर भी आंदोलन से जुड़े नेताओं का चरित्र हनन किया जाता है।

हमारे देश में तो प्रधानमंत्री की अगुवाई में पूरा मंत्रिमडल और बीजेपी के दूसरे बड़े नेता भी आंदोलनकारियों को अर्बन नक्सल, नक्सल, माओवादी, खालिस्तानी, टुकड़े-टुकड़े गैंग, और भी तमाम विशेषणों से अलंकृत करने में जुट जाता है। शांतिपूर्ण आन्दोलनकारियों पर ड्रोन से आंसू गैस के गोले दागे जाते हैं, वाटर कैनन का लगातार इस्तेमाल किया जाता है, रबर बुलेट का इस्तेमाल किया जाता है और बर्बरता से लाठी चार्ज किया जाता है। आंदोलनकारियों के रास्ते बंद किए जाते हैं, कीलें लगाई जाती हैं और भारत-पाकिस्तान सीमा से भी अधिक सघन बैर्रिकेडिंग की जाती है। अति-उत्साहित पुलिस आंदोलनकारियों के घरों को जला देती है और तोड़-फोड़ करती है, प्रशासन इन घरों पर बुलडोज़र चलवाता है। जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय में तो आंदोलन करने पर ही प्रतिबंध लगा दिया गया है। हमारे देश में शांतिपूर्ण आंदोलन की खबर लगते ही आनन- फानन में इंटरनेट ब्लाक कर दिया जाता है, आंदोलन की खबर देने वाली सोशल मीडिया साइट्स को ब्लाक कर दिया जाता है।

फ्रांस में सबसे बड़ी पेट्रोलियम कंपनी, टोटलएनार्जीज द्वारा अपने कारोबार का विस्तार करने की घोषणा के बाद वहां जलवायु परिवर्तन को रोकने से संबंधित आंदोलनकारियों ने शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया। इस शांतिपूर्ण प्रदर्शन के दौरान भी लगभग 175 आंदोलनकारियों को पुलिस ने हवालात में बंद कर दिया है। जर्मनी में जलवायु परिवर्तन से संबंधित 5 प्रदर्शनकारियों पर पुलिस ने एक आतंकी संगठन से जुड़े होने का आरोप लगाकर जेल में बंद कर दिया है।

शान्तिपूर्ण आंदोलनों से जुड़ा एक बड़ा प्रश्न यह है कि किस तरह के जन-आन्दोलन सफल होते हैं। वर्ष 2022 में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार सामाजिक बदलाव की संभावना वाले आंदोलन अधिक सफल होते हैं। भले ही ऐसे आंदोलन को समाज का कोई भी एक पीड़ित वर्ग शुरू करे पर धीरे धीरे सामाजिक बदलाव की संभावना का आकलन कर समाज का हरेक वर्ग ऐसे आंदोलन से जुड़ जाता है। दरअसल अब तक आंदोलनों पर सारे अध्ययन यह मान कर किए गए हैं कि लोग केवल भावनात्मक तौर या फिर आवेश में आंदोलनों से जुड़ते हैं, पर स्टेनफोर्ड पब्लिक स्कूल ऑफ़ बिज़नस के समाजशास्त्रियों द्वारा किए गए अध्ययन से यह स्पष्ट है कि जब सामान्य लोगों को महसूस होता है कि किसी आंदोलन का व्यापक असर समाज पर पड़ेगा, तब ऐसे आंदोलनों से अधिक लोग जुड़ते हैं और ऐसे आंदोलन लम्बे समय तक चलते हैं। इस अध्ययन को पर्सनालिटी एंड सोशल साइकोलॉजी बुलेटिन नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया है।


इस अध्ययन में आंदोलनों की सफलता की कुंजी खोजने का प्रयास किया गया है, पर वैश्विक स्तर पर एक ऐसे अध्ययन की जरूरत है जो यह बता सके कि सफल आंदोलन कितने सार्थक होते है और समाज पर इनका प्रभाव सार्थक होता है या फिर प्रभाव पहले की स्थितियों से भी बुरा होता है। हमारे देश में व्यापक जन समर्थन वाले दो बड़े आन्दोलन हुए हैं – एक की अगुवाई जयप्रकाश नारायण ने की थी, और दूसरे आन्दोलन की अगुवाई अन्ना हजारे ने की। समाजवादी जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन के बाद सामाजिक बदलाव तो नजर नहीं आया, समाजवाद भी नजर नहीं आया – पर कट्टरपंथी दक्षिणपंथी और छद्म राष्ट्रवादी का उदय हो गया। इसके बाद अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद तो लोकतंत्र को निरंकुश तानाशाही में बदलने वाली शक्तियां ही सत्ता पर काबिज हो गईं और जनता से आंदोलनों का अधिकार भी छिन गया। जाहिर है हमारे देश में तो जिन आंदोलनों को सफल कहा जा सकता है, उन आंदोलनों का असर ही उल्टा हो गया। एक साल से भी अधिक चले किसान आंदोलन के बाद भी किसानों को कोई फायदा नहीं हुआ, उलटा सरकारी

तौर पर सामाजिक तौर पर भी किसान पहले से अधिक उपेक्षित हो गए। पहले कभी-कभी किसानों की समस्याओं से संबंधित कुछ समाचार प्रकाशित भी होते थे, पर आंदोलन ख़त्म होने के बाद तो मीडिया ने भी उनको भुला दिया। जाहिर है, आंदोलन बड़ा होना एक बात है और बड़े आंदोलन का प्रभाव के सन्दर्भ में सफल होना बिलकुल दूसरी बात है। इस सन्दर्भ में देखें तो पायेंगे कि अधिकतर तथाकथित सफल आंदोलन सामाजिक तौर पर असफल रहे हैं।

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