आम आदमी की जासूसी को बढ़ावा देती सत्ता
आज के माहौल के अनुसार जासूसी की यह बेहद सामान्य सी घटना है। हम जिस दुनिया में आज रहते हैं, वह बिल्कुल बदल चुकी है और हमारी सोचने की प्रक्रिया बदल चुकी है, मनुष्य पूरी तरह से स्वार्थी हो चुका है।

दुनियाभर में सुरक्षा के नाम पर आम आदमी की जासूसी की जा रही है। इंटरनेट, स्मार्टफोन, कैमरा, ड्रोन, पेगासस जैसे गैजेट– सभी का दुनियाभर में चलन बढ़ता जा रहा है, और इन सभी से हमारी-आपकी सबकी जासूसी की जा रही है। इसकी वकालत पूंजीवाद के साथ ही सत्ता भी करने लगी है। यही नहीं, इस दौर के वैज्ञानिक और प्रोद्योगिकी क्षेत्र से जुड़े विशेषज्ञ भी अपने नए आविष्कार इन्हीं क्षेत्रों में कर रहे हैं।
हाल में ही एनवायरनमेंट एण्ड प्लैनिंग नामक जर्नल में यूनिवर्सिटी ऑफ कैंब्रिज के शोधार्थी त्रिशांत सिमलाई ने एक अध्ययन प्रकाशित किया है, जिसका आधार उत्तराखंड के चर्चित जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क के आसपास के गाओं में पिछले 14 महीनों तक किया गया अध्ययन है। इसके अंतर्गत उन्होंने 270 से अधिक स्थानीय ग्रामीणों से गहन बातचीत की। इस अध्ययन के अनुसार नेशनल पार्क में जंगली जानवरों के अध्ययन के लिए जिन कैमरा ट्रैप को स्थापित किया गया है और ड्रोन से जो चित्र लिए जाते हैं, उनसे जंगली जानवरों से अधिक स्थानीय ग्रामीण महिलाओं की जासूसी की जाती है और उनके अवांछित चित्र उतारे जाते हैं।
आज के माहौल के अनुसार जासूसी की यह बेहद सामान्य सी घटना है। हम जिस दुनिया में आज रहते हैं, वह बिल्कुल बदल चुकी है और हमारी सोचने की प्रक्रिया बदल चुकी है, मनुष्य पूरी तरह से स्वार्थी हो चुका है। दस साल पहले तह संभव है ऐसी जासूसी की घटनाएं समाचार बनतीं और हम ऐसी घटनाओं की भर्त्सना करते, पर अब ऐसा नहीं होता। अब तो, तमाम आर्थिक और सामाजिक अर्नरराष्ट्रीय कार्यक्रमों में भी जनता के जासूसी के तरीकों पर व्यापक चर्चा की जाती है।
वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम की वर्ष 2023 की सालाना बैठक के दौरान ड्यूक यूनिवर्सिटी की प्रोफ़ेसर नीता फराहन्य ने दुनिया के नेताओं के सामने एक शोधपत्र प्रस्तुत किया था, जिसमें मानव मस्तिष्क की जासूसी के लिए न्यूरोटेक्नोलॉजी के वर्तमान उपयोग का दायरा बढाने पर चर्चा की गयी थी। प्रोफ़ेसर नीता फराहन्य के अनुसार दुनियाभर के उद्योगों, बहुराष्ट्रीय घरानों के कार्यालयों और पूंजीवादी समाज में श्रमिकों को ऐसा सेंसर पहनाने का चलन बढ़ गया है जो मालिकों या फिर उनके चुनिन्दा अधिकारियों को यह खबर पहुंचाता है कि कौन सा श्रमिक थक गया है, पूरी क्षमता से काम नहीं कर रहा है या फिर उसे नींद आ रही है। दरअसल इन सेंसर से श्रमिकों के मस्तिष्क के भीतर के इलेक्ट्रिकल इम्पल्स को पढ़ा जाता है। सीधे शब्दों में इसे मस्तिष्क की जासूसी कहा जा सकता है। पूंजीवाद इसे लम्बे समय तक और खतरनाक काम करने वाले श्रमिकों, जैसे ड्राईवर या फिर खानों के भीतर काम करने वाले श्रमिकों की
सुरक्षा कवच बताता रहा है, पर दरअसल इसका उपयोग केवल उत्पादकता बढाने और श्रमिकों के आपसी मुलाकातों को कम करने के लिए किया जाता है। श्रमिकों की आपसी मुलाकातें कम करने का फायदा यह है कि इससे उनकी समस्याएं उजागर नहीं होतीं और फिर उनकी एसोसिएशन नहीं बन पाता।
प्रोफ़ेसर नीता फराहन्य ने ऐसे ही एक सेंसर के नए प्रारूप को प्रस्तुत किया था, जिसे किसी को पहनाकर या फिर उसके कपड़ों में स्थापित करने के बाद दूर बैठकर भी आप यह जान सकते हैं कि उसके मस्तिष्क में क्या चल रहा है। जाहिर है, इसे किसी में भी स्थापित कर मस्तिष्क की पूरे जासूसी की जा सकती है। प्रोफ़ेसर नीता फराहन्य ने दुनियाभर के नेताओं और पूंजीपतियों के बीच अपने भाषण में आगाह किया है कि यदि इस उपकरण का गलत उपयोग किया गया तो निश्चित तौर पर यह दुनिया में दमन का सबसे घातक हथियार साबित होगा क्योंकि ऐसी प्रोद्योगिकी का व्यापक इस्तेमाल किया जाता है। डोनाल्ड ट्रम्प के स्तर प्रचारक और पूंजीपति एलोन मस्क ने तो मानव मस्तिष्क में चिप स्थापित करने का धंधा ही खड़ा कर लिया है।
यहाँ यह जानना आवश्यक है कि इस समय दुनिया में 550 से अधिक ऐसे उपकरणों का उपयोग किया जा रहा है जिससे कर्मचारियों, श्रमिकों या फिर आम जनता की जासूसी की जा सकती है। हरेक कर्मचारी के सामने एक लैपटॉप जो रखा रहता है, वह भी जासूसी का एक प्रकार ही है। आपने कितने समय कम्यूटर के सामने बिताया, कंप्यूटर पर क्या किया, कौन सी साईट देखी..... बॉस को सब पता होता है। इसी तरह हमारा स्मार्टफ़ोन भी हमारी जासूसी करता रहता है। गूगल दुनिया में सबसे बड़ा जासूस है। अंतरिक्ष में उड़ते उपग्रह, हवा में उड़ते ड्रोन, सडकों, कार्यालयों, बाजारों में लगे कैमरे भी जासूसी ही करते हैं। ये सभी उपकरण, जनता की सुरक्षा के नाम पर स्थापित किये जाते हैं, पर इससे जनता सुरक्षित नहीं होती, अपराध कम नहीं होते और ना ही भ्रष्टाचार कम होता है। पेगासस को भी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बताया गया था, हरेक देश की सत्ता ने इसका उपयोग भी किया, पर केवल विरोधियों की जासूसी के लिए। दुनिया में कहीं भी इससे राष्ट्रीय सुरक्षा में मदद मिली हो ऐसा कोई सबूत ही नहीं है। जाहिर है हम आज के दौर में एक खतरनाक दौर में जी रहे हैं – जहां हमारे मस्तिष्क में उपजे विचार भी कोई और पता कर सकता है तो दूसरी तरफ ऐसे उपकरण भी हैं जिनसे हमारे मस्तिष्क को और हमारे विचारों को नियंत्रित किया जा सकता है, हमारी सोच को बदला जा सकता है।
समाज में वैज्ञानिक चेतना कम होती जा रही है, वैज्ञानिक आविष्कारों पर जनता का विश्वास कम होता जा रहा है और इसके साथ ही एक नए अध्ययन के अनुसार विज्ञान और समाज को नई दिशा देने वाले विज्ञान के सभी क्षेत्रों में और अर्थशास्त्र में आविष्कार भी कम होते जा रहे हैं। आज के दौर में मौलिक आविष्कार केवल कुछ क्षेत्रों में ही सिमट कर रह गया है - डाटा साइंस, रोबोटिक्स, रिमोट जासूसी, आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस जैसे क्षेत्रों में ही लगातार कुछ नया देखने को मिलता है। आज आविष्कार पूंजीवादी समाज की जरूरतों को पूरा करने का माध्यम भर रह गए हैं। पूंजीवादी विचारधारा में श्रम के लिए श्रमिकों को अधिकार, सुविधाएँ और उचित वेतन देना पूंजीपतियों को आर्थिक नुकसान समझ आता है, इसी लिए अधिकतर नए आविष्कार श्रमिकों को हटाने से सम्बंधित या फिर श्रमिकों की दिनभर निगरानी से सम्बंधित हैं। जाहिर है ऐसे माहौल में सामाजिक समस्याएं लगातार विकराल होती जा रही हैं, और जलवायु परिवर्तन, वायु प्रदूषण, सबके लिए स्वास्थ्य और सामाजिक विकास जैसी समस्याएं पूरी दुनिया को प्रभावित कर रही हैं, पर वैज्ञानिक इन समस्याओं का समाधान नहीं ख़ोज रहे हैं।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक जर्नल, नेचर, में यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिनेसोटा के वैज्ञानिकों की अगुवाई में अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों के दल द्वारा किया गया अध्ययन प्रकाशित किया था। इस अध्ययन के अनुसार आज के दौर में विज्ञान के सभी क्षेत्रों में प्रकाशित होने वाले शोधपत्रों की संख्या तेजी से बढी है, यही हाल वैज्ञानिक विषयों के जर्नल और आविष्कारों पर दिए जाने वाले पेटेंट का भी है, पर अफ़सोस यह है कि विज्ञान और समाज को नई दिशा देने वाले आविष्कारों की संख्या में तेजी से कमी आई है। पूंजीवाद के गहन दौर में यह एक आश्चर्य का विषय हो सकता है, क्योंकि उत्पादकता में होने वाले कुल लाभ में से आधे से अधिक योगदान विज्ञान और प्रोद्योगिकी में होने वाली नई खोजों के कारण होता है। यह हाल विज्ञान के किसी एक क्षेत्र का नहीं बल्कि सभी क्षेत्रों का है। इस अध्ययन के लिए वर्ष 1945 से 2010 के बीच विज्ञान के सभी क्षेत्रों में प्रकाशित 4.5 करोड़ शोधपत्रों और अमेरिका में दिए गए 39 लाख पेटेंट को खंगाला गया है। यह इस तरह का सबसे व्यापक अध्ययन है, और पहला अध्ययन है जिसमें विज्ञान के सभी क्षेत्रों को शामिल किया गया है।
पूरी दुनिया पूंजीवाद की चपेट में है, और विज्ञानं में नए आविष्कारों में गिरावट के कारण दुनिया की अर्थव्यवस्था प्रभावित हो रही है। पिछले 15 वर्षों के दौरान वैश्विक स्तर पर अर्थव्यवस्था में बृद्धि की दर उसके पहले के 15 वर्षों के दौरान बृद्धि दर की लगभग आधी रह गयी है। जाहिर है, इसकी चोट पूंजीवादी व्यवस्था पर पड़ रही है, बार-बार आर्थिक मंदी की दुहाई दी जाती है, और मुनाफ़ा कम हो रहा है। पूंजीवादी व्यवस्था में कम मुनाफे में भी अधिक से अधिक लाभ पूंजीपतियों को ही पहुंचाता है। जाहिर है, आज के दौर में पूंजीपतियों की संपत्ति तो बढ़ रही है, पर दुनियाभर में गरीबों की संख्या भी लगातार बढ़ती जा रही है – आर्थिक असमानता अब केवल गरीब देशों में ही नहीं बल्कि अमीर औद्योगिक देशों में भी खतरनाक स्तर पर पहुँचने लगी है।
इस अध्ययन के अनुसार समाज की दिशा बदलने में सक्षम आविष्कारों की संख्या समाज विज्ञान के क्षेत्र में 91.9 प्रतिशत तक कम हो गयी है, जबकि भौतिक शास्त्र के क्षेत्र में यह कमी और भी अधिक है। इसी तरह कंप्यूटर विज्ञान में पेटेंट की संख्या में 78.7 प्रतिशत और स्वास्थ्य विज्ञान में 91.9 प्रतिशत की कमी आंकी गयी है। आविष्कारों में गिरावट का असर शोधपत्रों की भाषा में भी स्पष्ट होता है – अब शोधपत्रों में “बनाना” या “उत्पादन करना” जैसे शब्द शायद ही कभी मिलते हैं, जबकि “सुधरना” और “परिवर्तित करना” जैसे शब्द बार-बार आते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि विज्ञान में नए आविष्कार अब “नए” नहीं रहे, बल्कि किसी उत्पाद में सुधार या परिवर्तित करने से सम्बंधित रह गए हैं।
इस अध्ययन के अनुसार पिछले कुछ वर्षों के दौरान विज्ञान से सम्बंधित शोधपत्रों की संख्या में औसतन 4 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बृद्धि हुई है, पर नए आविष्कार कम हो रहे हैं। इसका कोई निश्चित कारण नहीं बताया गया है, पर कुछ चर्चा जरूर की गयी है। दरअसल प्रथम विश्वयुद्ध से द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच का समय वैज्ञानिक आविष्कारों का स्वर्णिम युग था, जिसमें नए उत्पादों के साथ ही विज्ञान के सभी क्षेत्रों में मौलिक आविष्कार किये गए थे। ये सभी आविष्कार इतने प्रभावी थे, कि आज के दौर में भी अधिकतर वैज्ञानिक बस इन्ही सिद्धांतों और उत्पादों के सुधार में व्यस्त हैं।
वैज्ञानिक आविष्कारों में गिरावट का दूसरा कारण वैज्ञानिक संस्थानों में पूंजीपतियों का पूंजीनिवेश है। जाहिर है, कोई भी पूंजीपति केवल अपने फायदे के लिए ही कहीं निवेश करेगा, और फिर वैज्ञानिक संस्थानों में अनुसंधान का रुख केवल पूंजीवाद को फायदा पहुंचाने तक ही सिमट कर रह जाएगा। पूंजीवाद को सामान्य जनता की समस्याओं से कोई सरोकार नहीं रहता, इसीलिए सामाजिक समस्याओं का हल किसी नए आविष्कार से नहीं निकलता। पूंजीवाद अपने अस्तित्व के लिए निरंकुश सत्ता को बढ़ावा देता है और निरंकुश सत्ता का अस्तित्व जनता की जासूसी पर ही टिका है।
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