राम पुनियानी का लेख: दलित हित की बात करने वाली हर असहमति को राष्ट्रद्रोह करार देना है सरकार का लक्ष्य

हमें यह याद रखना होगा कि इस सरकार ने सत्ता में आने के तुरंत बाद से, दलितों की आवाज़ को दबाने के प्रयास शुरू कर दिए थे। पेरियार आंबेडकर स्टडी सर्किल पर पाबंदी और हैदराबाद विश्वविद्यालय की आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन को निशाना बनाना इसी क्रम का हिस्सा था।

फोटो : सोशल मीडिया
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राम पुनियानी

भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा की यादें अभी ताज़ा हैं। इसी साल की पहली जनवरी को, भीमा कोरेगांव से लौट रहे हजारों दलितों को हिंसक हमलों का सामना करना पड़ा था। जांच में यह सामने आया कि मिलिंद इकबोटे और संभाजी भिड़े ने यह हिंसा भड़काई थी। प्रकरण की जांच अभी जारी है।

इसी सिलसिले में, पहले पांच सामाजिक कार्यकर्ताओं - महेश राउत, रोना विल्सन, सुरेन्द्र गैडलिंग, शोमा सेन और सुधीर धावले - को गिरफ्तार किया गया था। ये सभी आदिवासियों और दलितों के लिए काम करते हैं। फिर, इस माह, गौतम नवलखा, सुधा भारद्वाज, वरवरा राव, वरनॉन गोंसाल्वेस व अरुण फरेरिया को गिरफ्तार करने का प्रयास किया गया और आनंद तेल्तुम्ड़े सहित कई कार्यकर्ताओं के घरों पर छापे डाले गए।

पुलिस के अनुसार, ये सभी भीमा कोरेगांव हिंसा के पीछे थे। इन सभी ने उस एल्गार परिषद् का आयोजन किया था, जिसमें भड़काऊ भाषण दिए गए और जिनके नतीजे में हिंसा हुई। मानो जादू से, पुलिस ने एक पत्र भी ढूंढ निकाला, जिसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हत्या की साजिश की बात कही गयी थी। इन लोगों की गिरफ़्तारी पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी और पुलिस को लगभग फटकारते हुए कहा कि उसकी यह कार्यवाही प्रजातंत्र के सेफ्टी वाल्व को समाप्त करने के समान है। इन सभी लोगों को अदालत में सुनवाई समाप्त होने तक, उनके घरों में नज़रबंद रखा गया है।

विभिन्न राजनैतिक दल और अन्य संगठन लगातार यह कह रहे हैं कि पिछली और ताज़ा गिरफ्तारियां, दलित कार्यकर्ताओं को आतंकित करने का प्रयास हैं। पुलिस की कार्यवाही मनमानी और प्रतिशोधात्मक है। एमनेस्टी इंटरनेशनल के निदेशक आकार पटेल ने कहा, “यह पहली बार नहीं है कि दलितों और आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं को बिना किसी सुबूत के गिरफ्तार किया गया है।

सरकार को देश में भय का वातावरण बनाने के बजाय, आमजनों की अभिव्यक्ति की आजादी और संघ बनाने और शांतिपूर्वक एकत्रित होने के उनके अधिकार की रक्षा करनी चाहिए।” यूरोपियन यूनियन ने भी इन गिरफ्तारियों और छापों की निंदा की है। राज्य की इसी तरह की कार्यवाहियों के चलते, मानवाधिकारों की रक्षा में संयुक्त राष्ट्र के साथ सहयोग करने वाले व्यक्तियों को डराने-धमकाने और उनके विरुद्ध बदले की कार्यवाही करने के लिए भारत को दोषी ठहराया गया है। भारत में इस तरह की कार्यवाहियों के स्तर को ‘चिंताजनक’ निरुपित किया गया है।

सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस की कार्यवाही को संदेहास्पद मानते हुए, इन लोगों की गिरफ्तारियों और छापमारियों पर रोक लगा दी। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के विरुद्ध इस तरह की द्वेषपूर्ण कार्यवाहियां चिंताजनक हैं और बताती हैं कि वर्तमान सरकार का हिन्दू राष्ट्रवादी एजेंडा, देश को किस दिशा में ले जा रहा है। भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा के लिए एल्गार परिषद् में दिए गए भाषणों को दोषी बताया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीशों पी बी सावंत और कोळते पाटिल ने कहा है कि वे इस कार्यक्रम के संयोजक थे।

ऐसे में, यह प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि इन कार्यकर्ताओं को क्यों गिरफ्तार किया गया। ऐसा लगता है कि इस सरकार का लक्ष्य हर असहमति को राष्ट्रद्रोह करार देना और उन लोगों को कुचलना है जो दलितों की उनकी गरिमा और अधिकारों की लड़ाई में उनकी मदद कर रहे हैं।

हमें यह याद रखना होगा कि इस सरकार ने सत्ता में आने के तुरंत बाद से, दलितों की आवाज़ को दबाने के प्रयास शुरू कर दिए थे। पहले पेरियार अम्बेडकर स्टडी सर्किल को प्रतिबंधित किया गया, फिर हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के अम्बेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन को निशाना बनाया गया, जिसके नतीजे में रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या हुई। इसके बाद से पूरे देश में दलित उठ खड़े हुए और एक विशाल दलित आन्दोलन प्रारंभ हो गया, जिसे कई अन्य सामाजिक संस्थाओं ने अपना समर्थन दिया।

जहाँ हिन्दुत्वादी एजेंडे के तहत गाय और गौमांस के मुद्दे को लेकर मुसलमानों को निशाना बनाया गया, वहीं दलित भी गौरक्षकों के निशाने पर आ गए। जिग्नेश मेवानी के नेतृत्व में गाय के मुद्दे पर एक बड़ा आलनंदोल हुआ। मेवानी ने दलितों की पहचान और गरिमा के प्रश्न को उनकी भूमिहीनता से जोड़ा, जो कि देश के दलितों की मूल समस्या है।

वर्तमान सत्ताधारियों का लक्ष्य है राम मंदिर, गाय, गौमांस, लव जिहाद और घर वापसी जैसे मुद्दे उठाकर, मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना देना। वे मुसलमानों और ईसाइयों को विदेशी बताते हैं और मुसलमानों को देशद्रोही भी। जहां तक दलितों का प्रश्न है, संघ परिवार उन्हें अपने झंडे तले लाने के लिए कई स्तरों पर काम कर रहा है। पहला है सामाजिक समरसता मंच, जो विभिन्न जातियों के बीच समरसता बढ़ाने के लिए काम करता है।

आरएसएस का मानना है कि देश में जातिगत असमानता के पीछे मुस्लिम आक्रान्ता हैं, जिनके हिन्दुओं को मुसलमान बनाने के प्रयासों के चलते, जातिगत विभेद उभरे। सोशल इंजीनियरिंग के ज़रिये दलितों और यहां तक कि आदिवासियों को भी, उस विचारधारा से जोड़ा जा रहा है, जो असमानता पर पर्दा डालती है। रामविलास पासवान, रामदास अठावले और उदित राज सहित अनेक दलित नेताओं को पद का लालच देकर हिन्दू राष्ट्रवाद के लिए उनका समर्थन हासिल करने का प्रयास किया जा रहा है। सांस्कृतिक स्तर पर, सुहेल देव जैसे नए ऐतिहासिक नायकों को गढ़ा जा रहा है और उन्हें ‘विदेशी’ मुसलमानों के विरुद्ध हिन्दुओं का योद्धा बताया जा रहा है।

इस सब के बाद भी, विद्रोह की लपटें दिन-ब-दिन और ऊँची होती जा रही हैं। दलित, सड़कों पर उतर आये हैं। उन्हें इस बात का एहसास है कि एक रणनीति के तहत, समानता और गरिमा की उनकी लड़ाई को कमज़ोर किया जा रहा है। महाराष्ट्र पुलिस की ऐसे कार्यकर्ताओं और लेखकों को, जो हाशिये पर पड़े इन वर्गों के आन्दोलन को समर्थन दे रहे हैं, को किसी भी तरह आपराधिक प्रकरण में फंसाने की कोशिश इसी रणनीति का हिस्सा है।

सुप्रीम कोर्ट के दो पूर्व न्यायाधीशों के संयोजन में आयोजित कार्यक्रम में भाग लेने वालों को हिंसा भड़काने के लिए दोषी ठहराना हास्यास्पद है. रोमिला थापर जैसे सजग नागरिकों ने सुप्रीम कोर्टमें इस मामले में याचिका प्रस्तुत पर, देश के प्रजातांत्रिक ढांचे की रक्षा की है और उच्चतम न्यायालय ने एक बार फिर यह साबित किया है कि वह वंचित नागरिकों के अधिकारों के रक्षा करने के प्रति प्रतिबद्ध और सजग है।

(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आईआईटी, मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

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