सोनिया गांधी का लेख: देश की संपत्तियों को बेचने वाली सरकार को सत्ता में ही रहने का कोई हक नहीं

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा है कि जो सरकार खर्च चलाने के लिए मेहनत से बरसों में बनाई गई देश की संपत्तियों के बेचने चली हो, उसे सत्ता में रहने का कोई हक नहीं है। सोनिया गांधी ने ये बातें उस लेख में कहीं हैं जो उन्होंने एक अंग्रेजी दैनिक के लिए लिखा है।

फोटो : Getty Images
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सोनिया गांधी

देश में मौजूदा आर्थिक संकट की जड़ 8 नवंबर 2016 की दुर्भाग्यपूर्ण रात में घोषित नोटबंदी है। संसद में पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहिन सिंह के दूरदृष्टि वाले शब्दों के अनुसार इस नोटबंदी ने देश की जीडीपी को 2 फीसदी का झटका दिया था जिस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोई ध्यान नहीं दिया था। इसके विपरीत एक त्रुटिपूर्ण जीएसटी को जल्दबाज़ी में देश पर लाद दिया गया जिसके चलते मध्यम और छोटे उद्यमों को आघात पहुंचा साथ ही अर्थव्यवस्था को मदद देने वाले विशाल अनौपचारिक क्षेत्र में तबाही हो गई। सरकार की तरफ से लाई गई इन दो आपदाओं से लाखों लोगों की रोजी-रोटी पर संकट आ गया और भारतीय अर्थव्यवस्था एक लंबे समय के लिए मंदी के भंवर में फंस गई। जिस पर कोविड-19 के काल में और भी गहरी चोट लगी।

तेल पर भारी टैक्स और सरकारी कंपनियों का निजीकरण

ऐतिहासिक तौर पर वैश्विक बाजार में तेल की कम कीमतों से सरकार को इसका फायदा आम लोगों तक पहुंचाने का मौका मिलता है जिससे अर्थव्यवस्था में उपभोग आधारित उछाल आ सके। लेकिन इस अवसर का फायदा उठाने के बजाए मोदी सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों पर अत्यधिक टैक्स और अधिभार लगाकर हर परिवार के बजट को निचोड़ना शुरु कर दिया। इसके बरअक्स सरकार ने 2019 में कार्पोरेट सैक्टर को कर कटौती का तोहफा दिया जिससे न तो निवेश में कोई बढ़ोत्तरी हुई, बल्कि देश के बजट में 1.45 लाख करोड़ रुपए का चूना अलग गया।

इन आत्मघाती कदमों से कोई सीख लेने के बजाए मोदी सरकार कोरोनाकाल में अर्थव्यवस्था को हुए ऐतिहासिक नुकसान की भरपाई के लिए देश की संपत्तियों के बड़े हिस्से को अपने पसंदीदा पूंजीवादियों को सौंप रही है। सरकार ने सरकारी कंपनियों को निजी हाथों में सौंपने का ऐलान कर घर की पूजी बेचने की अपनी मंशा जाहिर कर दी है।

विनिवेश (सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में सरकारी हिस्सेदारी का कुछ हिस्सा बेचकर) को अगर सावधानीपूर्वक और रणनीति के तहत किया जाए तो इससे सरकार के लिए संसाधन पैदा होते हैं, इन कंपनियों के प्रबंधन में सुधार आता है और जन कल्याण में पैसे का निवेश बढ़ता है। इसी को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस पार्टी ने 2019 लोकसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र में विनिवेश का एक मध्यमार्ग सामने रखा था जिसमें गैर-सामरिक और गैर-महत्व वाली सरकारी कंपनियों में विनिवेश करने की बात थी।

भारी छूट पर बिक्री

लेकिन मोदी सरकार ने विनिवेश के बजाए निजीकरण का रास्ता अपनाया है। इस सिलसिले में सरकारी भाषा और शब्दों से इसकी मंशा जाहिर होती है। देश के वित्तीय हालात को संभालने में नाकाम और निवेश को बढ़ाने के लिए निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करने में अक्षम सरकार ने राष्ट्रीय परिसंपत्तियों को घबराहट में बेचने का फैसला कर लिया है। सवाल है कि इस बिक्री से कुछ समय के लिए हालात बेहतर दिख सकते हैं, लेकिन क्या इससे जन संपत्ति का दीर्घावधि में नुकसान नहीं हो रहा है?

इस भारी छूट वाली बिक्री को सरकार इन कंपनियों की क्षमता बढ़ाने और पैसा जुटाने जैसे तर्क देकर और इस पैसे को जन कल्याण कार्यक्रमों में खर्च करने की योजना बताकर न्यायसंगत ठहरा रही है। यह एक कपटपूर्ण तर्क है। हकीकत में होगा यह कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों से होने वाला फायदा निजी हाथों में जाएगा, लाभ कमाने वाली और बहुमूल्य कीमत वाली परिसंपत्तियां औने-पौने दामों में पसंदीदा पूंजीवादियों को सौंप दी जाएंगी जो इससे खूब दौलत कमाएंगे। दूसरी तरफ मोटे-मोटे कर्ज लेकर न चुकाने वाले पूंजीपतियों को इस पैसे से राहत दे दी जाएगी।


अटल बिहारी वाजेपीय की अगुवाई वाली एनडीए की सरकार ने जब वीएसएनएल (विदेश संचार निगम) को बेचा तो इसकी पूरी कीमत नहीं मिली, और इससे आम लोगों को नुकसान हुआ। इसी तरह कई होटलों को औने-पौने यह कहकर बेचा गया था कि सरकार इस कारोबार में नहीं रहना चाहती। अब अगर मोदी सरकार भी इसी नीति को अपनाती है तो नागरिकों को अधिकार है कि इस बारे में पारदर्शिता की मांग करें जानें कि आखिर इन सरकारी परिसंपत्तियों कीमत किसा आधार पर तय की जा रही है।

सरकारी परिसंपत्तियों की बिक्री से मोदी सरकार की विश्वसनीयता पर भी सवालिया निशान लगता है। बीते कुछ वर्षों में सरकार अपने विनिवेश लक्ष्य हासिल करने में नाकाम रही है। इस कुछ कथित तौर पर सफल विनिवेश योजनाएं सिर्फ सरकारी कंपिनियों को दूसरी सरकारी कंपनियों को बेचने तक ही सीमित रहे हैं। मसलन भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) के मत्थे आईडीबीआई बैंक मढ़ दिया गया, हिंदुस्तान पेट्रोलियम कार्पोरेशन को ओएनजीसी के माथे मढ़ा गया आदि आदि। ऐसे में इस हताशापूर्ण बिक्री से देश को क्या मिलने की उम्मीद है?

इसके अलावा इस सबसे दीर्घावधि में काफी नुकसान भी हो सकता है जिसे सरकार अनदेखा कर रही है। एलआईसी में सरकारी हिस्सेदारी को बेचना और इसका आईपीओ लाने जैसे कदम से संकेत मिलते हैं कि सरकार बीमा क्षेत्र में देश की रत्न कंपनी को बेचने जा रही है। लेकिन निजी हाथों में पहुंची एलआईसी क्या लंबी अवधि वाले इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट के लिए वित्तीय जरूरतें पूरी कर पाएगी?

सामाजिक न्याय पर प्रभाव

मोदी सरकारी की निजीकरण नीतियों से सामाजिक न्याय पर गहरा प्रभाव पड़ सकता है। सरकारी कंपनियां ऐतिहासिक तौर पर पिछड़े क्षेत्रों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती आई हैं। इसके अतिरिक्त सरकारी कंपनियों से दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछडे वर्गों को उच्च कोटि की नौकरियां मिलती रही हैं। लेकिन एक बार इन कंपनियों का निजीकरण हो गया या इनका विनिवेश कर दिया गया जिसमें सरकारी हिस्सेदारी 50 फीसदी से कम होगी, तो इन पिछड़े और हाशिए के तबकों को आरक्षण मिलना बंद हो सकता है।

मौजूदा सरकार के दौर में वैसे ही बेरोजगारी ऐतिहासिक स्तर पर पहुंच चुकी है। फिर भी सरकारी कंपनियों को निजी हाथों में सौंपने से बड़े पैमाने पर कर्मचारियों की छंटनी होगी, जिसे टाला नहीं जा सकता।


बैंकों पर छाया खतरा

इस सरकार के शासन में बैंकिंग क्षेत्र में बड़े पैमाने पर एनपीए में इजाफा हुआ है। 2014-15 और 2019-20 के बीच बैंकों के एनपीए 2008-2014 के यूपीए शासन आखिर 6 वर्षों के मुकाबले करीब 365 फीसदी बढ़े हैं। इसके अलावा जानबूझकर कर्ज न चुकाने वालों की संख्या में भी इजाफा हुआ है। एनपीए संकट को सुधारने के बजाए सरकारी बैंकों को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है। यस बैंक और दूसरे अन्य बैंक के मामले में अभल यही है कि इससे बैंकिंग क्षेत्र का भ्रष्टाचार और लालच शायद ही कम हो।

हम यह भी भूल रहे हैं कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण के चलते ही 2008-09 के वैश्विक मंदी के दौर में देश पर आर्थिक संकट नहीं आया था। सरकारी बैंक ही दशकों से ऐसे इलाकों में बैंकिंग सेवाएं दे रहे थे जिससे वित्तीय समावेश संभव हो सका। तो क्या सरकारी बैंकों के निजी हाथों में जाने के बाद ग्रामीण इलाकों की वे शाखाएं बंद कर दी जाएंगी जिन्हें खोलने का मकसद वित्तीय समावेश था न कि लाभ कमाना?

इतना ही नहीं आरबीआई भी अपने तय सिद्धांतों के विपरीत औद्योगिक घरानों के बैंकिंग क्षेत्र में उतरने पर कोई आपत्ति नहीं जता रहा है। इससे देश की अर्थव्यवस्था कुछ चंद हाथों तक ही सीमित रह जाने का अंदेशा पैदा हो गया है।

कांग्रेस ने भारत की अर्थव्यवस्था को सार्वजनिक क्षेत्र की मजबूत बुनियाद पर खड़ा किया था और 1991 के ऐतिहासिक उदारीकरण से इसमें और मजबूती पैदा की, ऐसे में कांग्रेस जनाग्रह के तौर पर मांग करती है कि सरकारी कंपनियों को निजीकरणें पारदर्शिता, जवाबदेगी हो और इन कंपनियों का सही मूल्यांकन किया जाए। यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम सरकार को इस बारे में आगाह करें और उन लोगों को हितों का सामने रखें जो इस निजीकरण से सर्वाधिक प्रभावित होंगे।

हर क्षेत्र के लिए अलग रणनीति की आवश्यकता

हमारे कई सार्वजनिक उपक्रमों और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक लाभदायक संस्थान हैं जो महत्वपूर्ण विकास परिणामों में मदद करते हैं। इसके अलावा कई ऐसे संस्थान है जिन्हें प्रोत्साहन और जिनमें पूंजी लगाने की आवश्यकता है ताकि वे मुनाफा कमा सकें। सरकारी खजाने में इनसे लाभ लेने के लिए सरकार को हर कंपनी के लिए एक उपयुक्त रणनीति बनानी चाहिए। इसके लिए सावधानी, विस्तृत परिश्रम और देश की संपत्ति के ट्रस्टी के रूप में सरकार की भूमिका के लिए प्रतिबद्धता की आवश्यकता है। उस जिम्मेदारी को स्वीकार करते हुए, मोदी सरकार लघु अवधि के लाभ के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को बंद करने का विकल्प चुन रही है। यह गलत है और सार्वजनिक धन के दीर्घकालिक नुकसान को सही नहीं ठहराया जा सकता है।

पीएसयू के निजीकरण की जल्दबाजी लोगों के संदेह की पुष्टि करती है कि मोदी सरकार कुछ औद्योगिक घरानों के लिए एक वफादार दलाल है। सत्तारूढ़ दल के लिए अर्जित चुनावी बॉन्ड से हुई मोटी कमाई से पता चलता है कि इन पंसदीदा पूंजीपतियों ने पहले ही अपना डाउन पेमेंट सरकार को दे दिया है। अब, सरकार सौदेबाजी के अपने हिस्से का काम कर रही है।

प्रधानमंत्री निजीकरण पर जोर देते हुए कहते हैं कि सरकार का काम कोई व्यवसाय करना नहीं है। उन्हें यह याद दिलाने की जरूरत है कि यह एक ऐसी सरकार है जो देश के वित्त का प्रबंधन नहीं कर सकती है, जो रोजगार पैदा नहीं कर सकती है, जो समावेशी विकास सुनिश्चित करने में असमर्थ है, जिससे खर्च चलाने के लिए देश की सावधानी से बनाई गई संपत्तियों को बेचना पड़ता है – असल में इस सरकार को सत्ता में रहने का ही कोई हक नहीं है।

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