राम पुनियानी का लेखः दक्षिणपंथी राजनीति का बढ़ता असर, चीफ जस्टिस गवई पर जूता फेंकने की घटना
राकेश किशोर और अजीत भारती जैसे लोग हमें बता रहे हैं कि दक्षिणपंथी दल के सत्ता में होने के कारण इस तरह के तत्व कानून के चंगुल में न फंसने के प्रति आश्वस्त रहते हैं। उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।

राकेश किशोर नाम के एक वकील ने भारत के मुख्य न्यायाधीश बी आर गवई पर अपना जूता फेंका (अक्टूबर 2025)। इसकी पृष्ठभूमि यह है कि एक जनहित याचिका, जिसमें खजुराहो के एक मंदिर में स्थापित विष्णु भगवान की सिर कटी प्रतिमा का कटा हुए सिर दुबारा स्थापित करने की प्रार्थना की गई थी, पर फैसला सुनाते हुए न्यायमूर्ति गवई ने कहा था कि यह जनहित याचिका नहीं है बल्कि याचिकाकर्ता द्वारा चर्चा में आने का प्रयास है। इस संबंध में याचिकाकर्ता को या तो भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण से अनुरोध करना था या भगवान से ही मूर्ति का सिर पुनर्स्थापित करने की प्रार्थना करनी थी।
राकेश किशोर के मुताबिक, इस टिपण्णी से वह व्यथित हो गए। उनके मुताबिक भगवान उनके सपने में आए और उन्होंने उनसे कुछ कदम उठाने को कहा। उनके अनुसार इससे ही वे मुख्य न्यायाधीश पर जूता फेंकने के लिए प्रेरित हुए, जो देश के इस सर्वोच्च न्यायिक पद पर आसीन होने वाले दूसरे दलित और पहले बौद्ध हैं। इस तरह के हमले से यह भी साफ होता है कि पूरे तंत्र में दलितों की दशा कितनी बुरी है।
लगभग इसी समय न्यायमूर्ति गवई की मां को महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र के एक शहर में आयोजित एक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया गया। उन्होंने यह कहते हुए आमंत्रण अस्वीकार कर दिया कि वे अम्बेडकरवादी हैं और इसलिए कार्यक्रम में शामिल नहीं हो सकतीं। यहां हमें यह याद रखना चाहिए कि आरएसएस का हिन्दू राष्ट्र का एजेंडा तेजी से सामने आ रहा है और अंधभक्तों को छोड़कर हर व्यक्ति को यह साफ-साफ नजर आ रहा है। न्यायमूर्ति गवई जैसे लोगों को यह याद आ रहा होगा कि बाबासाहेब ने इस आधार पर पाकिस्तान की मांग का विरोध किया था कि इससे हिंदू राष्ट्र का मार्ग प्रशस्त होगा जो देश के लिए एक त्रासदी जैसा होगा (अम्बेडकर की पुस्तक ‘पाकिस्तान ऑर पार्टिशन ऑफ इंडिया‘ का संशोधित संस्करण)।
लगभग इसी समय एक बड़े सोशल मीडिया इन्फ्यूलेंसर अजीत भारती ने मुख्य न्यायाधीश के बारे में कुछ अपमानजनक बातें लिखीं। जब सोशल मीडिया में यह चर्चा होने लगी कि उनके विरूद्ध कोई कार्यवाही हो सकती है, तब उन्होंने कहा ‘‘सरकार हमारी है, तंत्र हमारा है। अगर पूरा तंत्र मेरे खिलाफ होता, तो मैं आजादी से न घूम पा रहा होता और न कॉफी पीते हुए भुने हुए बादाम-काजू खा रहा होता। पूरा तंत्र मेरे साथ है, इसका अर्थ है आपका तंत्र- हमारे विचारों का तंत्र। असहमितयां बनी रहेंगीं लेकिन हम सब एक थे, एक हैं और एक रहेंगे। मैं आप सबका आभारी हूं। जय श्रीराम!‘‘
न्यायमूर्ति गवई ने न्यायालय के अधिकारियों से घटना को नजरअंदाज कर अपना सामान्य कामकाज जारी रखने को कहते हुए कहा कि इसे वे विचलित होने की वजह न बनने दें। उदारता का परिचय देते हुए उन्होंने कहा कि किशोर के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होनी चाहिए। पुलिस ने मात्र इतनी कार्यवाही की कि किशोर को थाने बुलाकर बातचीत की और उसके बाद उनका जूता उन्हें वापिस लौटा दिया। अब विभिन्न स्थानों पर किशोर के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई जा रही हैं। जहां तक भारती का सवाल है, उन्हें भी पुलिस थाने बुलाया गया, गर्मागर्म चाय पिलाई गई और फिर वापिस जाने दिया गया! कल्पना करिए जूता फेंकने जैसा यह नृशंस कार्य यदि किसी मुस्लिम ने किया होता तो क्या होता! अब तक एनएसए और ऐसे ही अन्य प्रावधानों के अंतर्गत उसके खिलाफ कार्यवाही प्रारंभ हो चुकी होती।
जहां तक मुख्य न्यायाधीश के ईश्वर से अपील करने वाले कथन का सवाल है, उसे लेकर सोशल मीडिया पर इसे सनातन का अपमान बताते हुए बहुत हंगामा किया गया है। यहां तक कि राकेश ने भी कहा ‘‘सनातन का अपमानः नहीं सहेगा हिन्दुस्तान‘‘! प्रसंगवश पहले ‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं‘ का नारा लगाया जाता था लेकिन दक्षिणपंथी राजनीति के झंडाबरदारों द्वारा अब हिन्दू शब्द की जगह सनातन शब्द का इस्तेमाल किया जाने लगा है।
हिन्दू राष्ट्रवाद के सबसे बड़े पैरोकार आरएसएस के गठन का एक मुख्य कारण था जमींदार-पुरोहित वर्ग के गठजोड़ द्वारा दलितों के शोषण के प्रति उनमें बढ़ती चेतना की खिलाफत करना। इसी कारण जाति-वर्ण व्यवस्था का समर्थन हमेशा आरएसएस के एजेंडे में प्रमुखता से रहा और उसके प्रारंभिक विचारकों ने खुलकर मनुस्मृति के मूल्यों को सही ठहराया। आज वह ऐसा अधिक कुटिलता से करता है। जहां एक ओर वह कहता है कि सभी जातियां बराबर हैं वहीं दूसरी ओर ऐसी नीतियां अपनाता है जिनसे यह सुनिश्चित हो कि दलितों पर अत्याचार और उनका सामाजिक हाशियाकरण बड़े पैमाने पर जारी रहे।
दलितों का हाशियाकरण और उनके डराने-धमकाने का सिलसिला 2014 में पूर्ण बहुमत से बीजेपी की सरकार बनने के बाद से अधिक तेज हो गया है। दलित विरोधी अपराधों में यह वृद्धि पहली बार नहीं हो रही है बल्कि 2014 में बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार बनने के बाद से इन अपराधों में बहुत अधिक बढ़ोत्तरी हो गई है। (2018 में दलितों और आदिवासियों के विरूद्ध हुए अपराधों में क्रमशः 27.3 और 20.3 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई)।
अध्येता आनंद तेलतुमड़े द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार ‘‘गवई पर हुआ हमला उन व्यापक सामाजिक रूझानों को प्रतिबिंबित करता है जहां औपचारिक तौर पर समानता के बावजूद जातिगत हिंसा जारी है। दलितों पर अत्याचारों के 55,000 से अधिक प्रकरण हर साल दर्ज किए जाते हैं, औसतन प्रतिदिन चार दलितों की हत्या होती है और 12 दलित महिलाएं दुष्कर्म का शिकार होती हैं‘‘।
इस घटना को सरकार ने गंभीरता से नहीं लिया। हमने पुलिस का रवैया भी देख लिया। मोदी को दलित मतदाताओं पर पड़ने वाले इसके नकारात्मक चुनावी प्रभाव का अहसास हुआ और उन्होंने मात्र एक खोखला ट्वीट लिखकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली।
जहां एक ओर यह हमारे संविधान के सकारात्मक प्रावधानों का नतीजा है कि गवई जैसे लोग भारतीय न्याय प्रणाली के सर्वोच्च पद तक पहुंच सके वहीं दूसरी ओर दलितों और महिलाओं के प्रति समाज का रवैया जस का तस है और लोकतांत्रिक पैमानों के अनुरूप इसमें बदलाव नहीं हुआ है। डॉ अम्बेडकर के इस दिशा में प्रयासों को गांधीजी द्वारा समाज में प्रचलित अस्पृश्यता के खिलाफ चलाए गए जबरदस्त अभियान का साथ मिला और सामाजिक सोच में कुछ हद तक बदलाव आया। लेकिन ये पूर्वाग्रह और असमानता पूरी तरह जड़ से समाप्त न हो सके।
गांधी और अम्बेडकर ने जातिप्रथा से जनित अत्याचारों और भेदभाव को जड़ से खत्म करने के लिए अंतरजातीय विवाहों पर जोर दिया था। पिछले 3-4 दशकों में न केवल धर्म आधारित खाईयां चौड़ी हुई हैं वरन् उसके समांतर सांप्रदायिकता के कारण जाति व्यवस्था भी अधिक प्रबल हो रही है। एक प्रकार की संकीर्णता दूसरे प्रकार की संकीर्णता को ताकत देती है। यही राकेश किशोर जैसों के कार्यकलापों के रूप में सामने आ रहा है और अजीत भारती जैसे लोग हमें बता रहे हैं कि दक्षिणपंथी दल के सत्ता में होने के कारण इस तरह के तत्व कानून के चंगुल में न फंसने के प्रति आश्वस्त रहते हैं। उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
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