अव्यवस्था और अवैज्ञानिक विकास की भेंट चढ़ता हिमालय
पहाडी क्षेत्रों पर भूआकृति का विस्तृत अध्ययन किया जाना चाहिए और शहरों का विकास उसके अनुरूप किया जाना चाहिए। पर, मोदी जी का विकास लाशों की ढेर पर पनपता है और लाशों का मुवावजा तय किया जाता है। यही प्रधानमंत्री जी का तथाकथित विकास है।

जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के दौर में हिमालय संकट में है। बादल फटने और ग्लेशियर झीलों के उफनने की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। तापमान वृद्धि के कारण इनका प्रभाव और इनकी आवृत्ति भी बढ़ रही है, पर इन आपदाओं को जानलेवा बनाने में सरकार की अवैज्ञानिक और अनियंत्रित विकास की गतिविधियां अधिक जम्मेदार हैं। प्रधानमंत्री मोदी लगातार अंतरिक्ष संस्थान, इसरो को कामयाबी की बधाईयां देते हैं, पर इसरो भी सैटेलाईट से प्राप्त तस्वीरों का आकलन कर फ्लैश फ्लड और बादल फटने की गंभीर पूर्व-सूचना नहीं देता।हम रॉकेट और अंतरिक्ष यान उड़ाने में जितने ही आगे हैं, उपग्रह से प्राप्त चित्रों का आकलन करने में उतने ही फिसड्डी।
दूसरी तरफ प्रधानमंत्री मोदी के दौर में हिमालय पर तथाकथित विकास भी समतल मैदानों की तर्ज पर किया जा रहा है। हिमालय के सभी धार्मिक स्थल अब आस्था के केंद्र नहीं बल्कि सामान्य पर्यटन स्थल रह गए हैं और इन तक पहुंचने के लिए राजमार्ग बना दिए गए हैं। हिमालय के शहरों का अनियंत्रित विकास किया जा रहा है, कस्बे शहर में तब्दील हो रहे हैं, बड़े पैमाने पर जंगलो को और चट्टानों को काटकर नयी परियोजनाएं खड़ी की जा रही हैं। सरकारों के इस तथाकथित विकास के बाद से आपदाएं जानलेवा हो चली हैं।
हिमालय के ऊपरी हिस्सों में स्थित ग्लेशियर तापमान वृद्धि के कारण तेजी से पिघल रहे हैं। यहां यह ध्यान रखना आवश्यक है कि हिमालय के ऊपरी क्षेत्रों में तापमान वृद्धि की दर देश के अन्य भागों की अपेक्षा अधिक है। अनुमान है कि हरेक साल ग्लेशियर के पिघलने के कारण इनसे सम्मिलित तौर पर 22 गीगाटन बर्फ कम हो रही है। इस मात्रा का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इतने बर्फ के पानी से ओलंपिक आकार के 90 लाख स्विमिंग पूल भरे जा सकते हैं। इस अध्ययन को यूनिवर्सिटी ऑफ़ उटाह और यूनिवर्सिटी ऑफ़ वर्जिनिया के वैज्ञानिकों ने सम्मिलित तौर पर किया है। इस अध्ययन को जर्नल ऑफ़ सलेक्टेड टॉपिक्स ऑन एप्लाइड अर्थ ओबजर्वेशन एंड रिमोट सेंसिंग में प्रकाशित किया गया है।
जलवायु परिवर्तन के कारण दक्षिण एशियाई मानसून की तीव्रता और अवधि बदलती जा रही है।इसका असर हिमालय के क्षेत्रों में बारिश और बर्फबारी पर भी पड़ रहा है और ग्लेशियर पर बर्फ ज़मने की दर पर असर पड़ रहा है। एक तरफ तेजी से पिघलते ग्लेशियर और उन पर बर्फ के नवीनीकरण में कमी का असर इन ग्लेशियरों से निकलने वाली नदियों पर पड़ रहा है, जिनपर 1.5 अरब से अधिक आबादी सीधे आश्रित है। हिमालय के ग्लेशियर में बर्फ का नवीनीकरण सर्दियों में नहीं बल्कि मानसून के दौरान ही होता है। पहले ऊंचाई पर बारिश की बूंदें नहीं बल्कि बर्फ बरसती थी, अब तापमान वृद्धि के प्रभाव से बारिश का दायरा बढ़ता जा रहा है। ग्लेशियर पर वर्षा पड़ने से उनके पिघलने की दर बढ़ जाती है।
ग्लेशियर के तेजी से पिघलने पर कृत्रिम झीलें बन जाती हैं, जिनके प्राकृतिक तटबंध टूटने से या दरकने से निचले क्षेत्रों में अचानक बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है। ग्लेशियर के तेजी से पिघलने और बादलों के फटने के कारण फ्लैश फ्लड का प्रकोप समाचारों में नियमित तौर पर रहता है। इनका त्वरित असर जान-माल और संपत्ति की हानि है, पर दीर्घकालीन असर अधिक भयावह है। अभी जो नदियां ग्लेशियर के कारण बहती हुई नजर आ रही हैं, संभव है आने वाले वर्षों में ये नदियां केवल बारिश पर आश्रित हो जाएं और इन नदियों का स्वरुप पूरी तरह बदल जाए। हो सकता है कि आज के नदियों के उपजाऊ क्षेत्र भयंकर सूखे की चपेट में आ जाएं।
जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार तापमान वृद्धि के इस दौर में सामान्य वर्षा से अधिक चरम वर्षा की तीव्रता और आवृत्ति बढ़ी है, इसीलिए बादलों का फटना और इस कारण अचानक बाढ़ अब एक सामान्य समाचार बन चुके हैं। बारिश के लिए वायुमंडल में जलवाष्प की सांद्रता और ऐसी जलवाष्प वाली हवा का उस ऊंचाई तक पहुंचना अनिवार्य है जहां कम तापमान के कारण जलवाष्प बारिश की बूंदों में परिवर्तित हो सके।
बढ़ते तापमान के दौर में सामान्य से अधिक बारिश का एक विज्ञान भी है। वैज्ञानिकों के अनुसार वायुमंडल में प्रति एक डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी से जलवाष्प की सांद्रता 7 प्रतिशत बढ़ जाती है, जाहिर है सैद्धांतिक तौर पर हरेक 1 डिग्री सेल्सियस तापमान की बढ़ोत्तरी पर आमान्य की तुलना में 7 प्रतिशत अधिक बारिश का अनुमान है। हिमालय के ऊपरी क्षेत्रों में जलवाष्प वाली गर्म हवा अपेक्षाकृत कम ऊंचाई पर ही ठंडी हो जाती है और अपेक्षाकृत अधिक बारिश होती है, जिससे फ्लैश फ्लड की संभावना बढ़ जाती है।
हिमालय के कुछ शहर धंसते जा रहे हैं, कुछ फ्लैश फ्लड से नष्ट हो रहे हैं, भूस्खलन से सड़कें और पन-बिजली योजनायें नष्ट हो रही हैं, टनेल में श्रमिक दब रहे हैं- पर प्रधानमंत्री मोदी हिमालय का विनाश करने वाले विकास पर गर्व कर रहे हैं। इस पर हाईवे और पनबिजली योजनाओं का जाल खड़ा किया जा रहा है। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय प्रधानमंत्री जी की जी-हुजूरी से अधिक कुछ नहीं करता- हिमालय की बर्बादी का सबसे अधिक जिम्मेदार यही मंत्रालय है। प्रधानमंत्री जी हाईवे का अनर्गल जाल बिछाने वाले मंत्री नितिन गडकरी को आधुनिक श्रवण कुमार कहते हैं। पता नहीं कहां से प्रधानमंत्री जी की यह धारणा बनी है कि श्रवण कुमार ने पर्यावरण का विनाश किया था।
नीति निर्माताओं की याददाश्त भी बहुत कमजोर होती है। आपदा के बाद आनना-फानन में मुवावजा देने के बाद सत्ता के साथ ही भुक्तभोगी नागरिक भी इन आपदाओं को भूल जाते हैं।उत्ताराखंड के धराली में इस बार फ्लैश फ्लड की घटना पहली नहीं थी- वहां पहले भी ऐसी घटनाएं हो चुकी थीं- वर्ष 2013 में भी ऐसी ही घटना हुई थी और शहर तबाह हो गया था। पर, इसके बाद भी शहर का अनियंत्रिक विकास होता रहा और फिर से हादसा हो गया। पहाडी क्षेत्रों पर भूआकृति का विस्तृत अध्ययन किया जाना चाहिए और शहरों का विकास उसके अनुरूप किया जाना चाहिए। पर, मोदी जी का विकास लाशों की ढेर पर पनपता है और लाशों का मुवावजा तय किया जाता है। यही प्रधानमंत्री जी का तथाकथित विकास है जिसके सपने हमें दिखाए जा रहे हैं। इस विकास की चपेट में ग्लेशियर, नदियां, झीलें, पहाड़ और जंगल सभी हैं- पर पूंजीवाद और अधिनायकवाद में प्रकृति का कोई मोल नहीं है, जनता का कोई अस्तित्व नहीं है।
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