ठंड में बेघर लोगों पर दोहरी मार! एक ओर मौसम की मार सहने को मजबूर, तो दूसरी ओर भूख के प्रकोप से त्रस्त

हमारे शहरों में सबसे अधिक चिंताजनक स्थिति में रहने वाले जो लोग है उनमें मुख्य स्थान बेघर लोगों का है। जहां एक ओर बेघर होने के कारण वे मौसम की मार सीधे अपने शरीर पर सहने को मजबूर हैं, वहां दूसरी ओर उनमें भूख का प्रकोप भी बहुत अधिक है और कुपोषण से तो लगभग सभी बेघर लोग त्रस्त हैं।

फोटो: भारत डोगरा
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भारत डोगरा

हमारे शहरों में न केवल लाखों बेघर रहते हैं, अपितु अनेक शहरों में विविध कारणों से बेघर लोगों की संख्या बढ़ भी रही है। चाहे हम अपने विभिन्न कार्यों में कितने भी थक जाएं या परेशान हो, यह सोच ही सुकून देती है कि रात होते-होते हम अपने घर पहुंच कर आराम करेंगे। पर जरा उनके बारे में सोच कर तो देखिए जिनके पास यह सुकून करने का कोई आधार नहीं है, जिनका इतने बड़े शहर में कोई छोटा सा भी आवास नहीं है, जो चाहे कितने भी थक जाएं पर आराम करने को उनका कोई घर नहीं है। फिर यह भी सोचिए कि इन बेघरों में कई महिलाएं और बच्चे भी हैं।

हमारे शहरों में सबसे अधिक चिंताजनक स्थिति में रहने वाले जो लोग है उनमें मुख्य स्थान बेघर लोगों का है। जहां एक ओर बेघर होने के कारण वे मौसम की मार सीधे अपने शरीर पर सहने को मजबूर हैं, वहां दूसरी ओर उनमें भूख का प्रकोप भी बहुत अधिक है और कुपोषण से तो लगभग सभी बेघर लोग त्रस्त हैं। अतः बीमारी सहने की उनकी क्षमता कम है। पर फुटपाथ पर जो रहेगा उसे बीमारी और दुर्घटना की संभावना तो अधिक सहनी पड़ेगी। यही कारण है कि देश में हजारों बेघर लोग असमय मारे जाते हैं। फुटपाथ से मिली एक और लाश आंकड़ों में जुड़ जाती है, पर यह जानने की फुरसत किसे है कि ऐसी एक-एक गुमनाम मौत के पीछे की कहानी कितनी दर्दनाक है।

शायद इस मौत से भी ज्यादा दर्दनाक कहानी उन बच्चों-बच्चियों की है जिन्हें फुटपाथ की जिंदगी यौन उत्पीड़न और नशे की ऐसी अंधी गली में धकेल देती है जिससे वापसी बहुत कठिन है। जब वैसे ही शहरों में महिलाओं की असुरक्षा पर इतनी चिंता व्यक्त की जाती है तो बेघर महिलाओं को क्या सहना पड़ता होगा इसकी कल्पना करना ही एक बेहद दर्दनाक अनुभव है।

शहरी आवासहीन लोगों को एक तो वैसे ही बहुत कष्ट सहने पड़ते हैं, इस पर कानून व्यवस्था भी उनके प्रति संवेदनविहीन है। आवास के अभाव में फुटपाथ पर पूरी तरह शान्तिपूर्ण ढंग से रहने वाले व्यक्ति को भी समय-समय पर पुलिस की मार झेलनी पड़ सकती है। इतना ही नहीं भिखारियों को पकड़ने के अपने लक्ष्य पूरा करने के लिए उन्हें पुलिस पकड़ कर भिक्षु गृह में भी भेज सकती है। भिक्षु गृह में उन्हें कई महीनों तक जेल के कैदी की तरह रहना पड़ सकता है और कई बार तो उन्हें यह भी नहीं बताया जाता है कि उन्हें कितने समय के लिए बंद किया गया है। आवासहीन महिलाओं और बच्चों की स्थिति इस कारण भी बहुत असुरक्षित है कि अपराधी तत्व उन्हें यौन शोषण का शिकार बनाने का प्रयास करते हैं। इस दृष्टि से यह विशेष चिन्ता का विषय है कि महिलाओं के लिए रैन बसेरे या आश्रय स्थल बहुत कम बने हैं।

सौन्दर्यकरण के नाम पर जो अनेक कार्यवाहियां अनेक बड़े शहरों में समय-समय पर की जाती हैं उनसे आवासविहीनों की समस्याएं और बढ़ जाती हैं और खुले आसमान के नीचे भी उन्होंने अपनी जो जगह थोड़ी सी व्यवस्थित कर रखी होती है वहां से उन्हें भाग-दौड़ करनी पड़ती है।


सरकार को जितने भी बेघर लोग हैं उनकी उचित संख्या का अनुमान लगाना चाहिए और इसके अनुकूल सुविधाएं उपलब्ध करवानी चाहिए। रैन बसेरों की संख्या बढ़ानी चाहिए तथा उनकी हालत में सुधार होना चाहिए। वहां सोने की जगह, बिस्तरों और शौचालयों की ठीक से सफाई सुनिश्चित होनी चाहिए। महिलाओं के लिए अलग से रैन बसेरे होने चाहिए। पुरुषों और महिलाओं के लिए कुछ रैन बसेरे पास-पास में भी बनने चाहिए जिससे बेघर परिवारों के सदस्यों को एक दूसरे से अलग होकर दूर न जाना पड़े। अपना थोड़ा बहुत, हल्का सामान यहां सोने वाले रख सकें इसकी व्यवस्था होनी चाहिए। रैन बसेरों में रहने वाले लोगों की रात सुरक्षित बीत सके, इसकी व्यवस्था होनी चाहिए। रैन बसेरों को चलाने में बेघर लोगों के ही कुछ प्रतिनिधियों का सहयोग प्राप्त करना चाहिए। 

कई रिक्शा चालक, पानी की टंकी वाले, ठेले वाले अपने रिक्शा या टंकी को असुरक्षित छोड़कर रैन बसेरों में नहीं आ सकते हैं। यदि संभव हो तो रैन बसेरों के बाहर इन्हें सुरक्षित रखने की व्यवस्था हो। जहां यह संभव नहीं हो, वहां रिक्शा चालकों को अपने वर्तमान विश्राम स्थल पर ही पालीथीन की शीट, बांस, टिन आदि से अस्थाई आश्रय स्थल बनाने की इजाजत दी जाए। 

विभिन्न धर्मस्थानों से सम्पर्क स्थापित कर उन्हें रात को अपने द्वार बेघर लोगों के विश्राम के लिए खोलने को कहा जा सकता हैं। विभिन्न सरकारी व गैर सरकारी इमारतें जहां कोई बहुमूल्य सामग्री नहीं है, जो रात को खाली रहती हैं व जहां कई लोग सो सकते हैं, बेघर लोगों द्वारा रात को उपयोग की जा सकती हैं और वे सुवह आठ बजे तक इनकी सफाई कर इन्हें खाली कर सकते हैं। इस तरह की इमारतों का यह सार्थक उपयोग संभव बनाने के लिए संवेदनशील सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्र के लोगों को आगे आना चाहिए।ं

यह सब कार्य बेघर लोगों के आपसी संगठन और जिम्मेदारियां संभालने से ही संभव होगा। उनके अपने प्रतिनिधि जिम्मेदारियां संभालेंगे और निभाएंगे। वे पुलिस के साथ सुरक्षा संबंधी मामलों में सहयोग भी करेंगे। उनके सहयोग से पुलिस को अपराधों को नियंत्रण करने में मदद मिलेगी। बेघर लोगों के संगठन और प्रशिक्षण में सामाजिक कार्यकर्ताओं को महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। जहां संभव होगा वे बेघर लोगों के सामुदायिक संबंधों को दृढ़ करने का प्रयास करेंगे व उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, नशा दूर करने की सुविधाएं उपलब्ध करवाएंगे। साथ ही जहां विशेष आवश्यकता होगी वहां मानसिक स्वास्थ्य, विकलांगता, कुष्ठरोग आदि से जुड़ी विशिष्ट संस्थाओं से उनका संबंध स्थापित करने का प्रयास करेंगे। 

सरकारी संसाधनों का उचित उपयोग होगा और इसके साथ स्वैच्छिक संस्थाओं के साधन व बेघर लोगों की मेहनत भी जुड़ेगी तो आश्रयविहीन लोगों की भलाई का कार्य तेजी से आगे बढ़ सकेगा। सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन कर उनके जीवन की नीरसता को दूर किया जा सकता है और उनकी तरह-तरह की रचनात्मकता को आगे बढ़ने का अवसर मिल सकता है। उपेक्षा और गंदगी के अड्डे होने के स्थान पर रैन बसेरों व बेघर लोगों के अन्य आश्रय स्थल को ऐसे केन्द्र के रूप में विकसित किया जा सकता है जहां रात को लगभग 7 से 11 बजे के बीच सेवा भावना से प्रेरित कई लोग बेघर लोगों की भलाई से कई स्तरों पर जुड़ सकते हैं।ं


बेघर लोगों को जबरदस्ती भिक्षु गृह में ले जाने पर रोक लगनी चाहिए और बिना वजह उन्हें जो समय-समय पर पुलिस द्वारा पीटा जाता है, उस पर सख्ती से रोक लगनी चाहिए। बेघर लोगों से अन्याय करने वाले कानूनों को हटाना चाहिए और इसके स्थान पर ऐसे कानून बनाने चाहिए जिससे बेघर लोगों से जुड़े विभिन्न कल्याणकारी कार्य बिना किसी अवरोध के आगे बढ़ सकें।

 बेघर लोगों का पहचान पत्र बनाकर अस्पताल का इलाज, राशन कार्ड आदि सुविधाएं बेघर लोगों को उपलब्ध करवानी चाहिए। प्रायः बेघर व्यक्ति के बारे में सोचा जाता है कि जिसका घर नहीं, मोहल्ला नहीं, पड़ोस नहीं, उसका सामुदायिक जीवन क्या होगा, लेकिन वास्तविक स्थिति ऐसी नहीं है। मनुष्य में सुरक्षा के साथ के साथ आपसी भाईचारे एवं सुख-दुख में साथ निभाने की भावना सदा मौजूद रहती है। इसी आधार पर फुटपाथों पर भी सामुदायिक जीवन विकसित होता है।

 इस सामुदायिक जीवन की पहचान बनाकर इसकी क्षमताओं को समुचित अवसर देने की आवश्यकता है। ऐसी अनुकूल स्थिति मिलने पर आश्रयविहीन अपने आश्रय की व्यवस्था के लिए स्वयं भी बहुत कुछ कर सकते हैं। वे मेहनतकश लोग हैं। मेहनत करने से कभी पीछे नहीं हटते, पर उचित अवसर न मिलने के कारण वे निराश हैं, निष्क्रिय हैं। उन्हें कोई बेहतर अवसर मिल सकता है तो वे स्वयं प्रयास करने में पीछे नहीं होंगे।ं

सर्दी के दिनों में कई दयालु दिलों में यह गहरी इच्छा जागृत होती है कि बेघर लोगों के लिए कंबल का दान करें। यह बहुत अच्छी भावना है, पर केवल कुछ कंबल ही किसी फुटपाथ तक पंहुचा देने से महानगर के बेघर लोगों की समस्याएं दूर नहीं हो जातीं। दूसरी ओर यदि आश्रयविहीन लोगों से पूछकर, उनकी अपनी भागीदारी से एक आश्रय अभियान विकसित हो तो उसमें अपना भरपूर योगदान देकर सभी नागरिक अपने सबसे जरूरतमंद भाई-बहनों के प्रति अपनी जिम्मेदारी वास्तव में निभा सकते हैं। 

समस्या यह है कि शीत लहरों के दौरान बेघर लोगों के लिए जो सहानुभूति की लहर उत्पन्न होती है वह कुछ दिनों में ही थम जाती है। अतः स्थाई तौर पर जिन रैन-बसेरों व अन्य सुविधाओं को उपलब्ध करवाना जरूरी है, वह कार्य फिर पीछे रह जाता है। इस उपेक्षा का ही परिणाम आज यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर बहुत कम बेघर लोगों के लिए आश्रय स्थलों की व्यवस्था हो पाई है। इस कारण प्रतिवर्ष शीत लहर के प्रकोप से ऐसे अनेक बेघर लोग मारे जाते हैं, जिनके जीवन को काफी आसानी से बचाया जा सकता था।

 सबसे चिंता की बात तो यह है कि हाल के समय में बेघर लोगों की आबादी के तेजी से बढ़ने की परिस्थितियाँ कुछ शहरों में उत्पन्न हुई हैं। सूखे-बाढ़ और अन्य आपदाओं और खेती-किसानी के व्यापक संकट के कारण ठौर ठिकाने का इंतजाम न होने के बावजूद पेट भरने की मजबूरी अधिक संख्या में लोगों को शहरों की ओर ले जा रही है। उधर, अनेक शहरों में झोंपड़ी बस्तियां तोड़ी जा रही हैं और बेरोजगारी बढ़ रही है। इस सब का मिला-जुला असर यह है कि शहरी बेघर लोगों की संख्या बढ़ रही है।


बेघर लोगों के दुख दर्द का कोई अंत नहीं है। विशेषकर सर्दी और बरसात की रातें काटना उनके लिए सबसे कठिन कार्य है। एक घंटा भी बरसात हो जाए, तो रात भर के लिए फुटपाथ सोने लायक नहीं रह जाता है। फुटपाथ पर न तो उनके जीवन की कोई सुरक्षा है और न सामान की। अपराधी तत्व उन्हें आसानी से अपना शिकार बना लेते हैं और हाल में तो उनके अमीरों की गाड़ियों तले भी कुचले जाने के भी अनेक समाचार मिले हैं।

मुंबई के संदर्भ में किए गए एक अध्ययन में विष्णु एन. महापात्र ने भी बताया है कि बेघर लोगों की आर्थिक विपन्नता और सामाजिक उपेक्षा की स्थिति इतनी विकट है कि अपने जीवन को प्रभावित करने वाली सरकारी नीतियों में बदलाव लाने में वे अपने स्तर पर अभी बहुत कठिनाई महसूस करते हैं। अतः उनके लिए स्वैच्छिक संस्थाओं व सामाजिक कार्यकर्ताओं का सहयोग बहुत महत्त्वपूर्ण है। चुन कर कुछ सामुदायिक कार्यकर्ताओं को तैयार किया गया, जिनसे भविष्य में कई उम्मीदें हैं।

इस तरह के प्रयासों से अन्य नागरिकों को भी अधिक अवसर उपलब्ध होते हैं कि वे बेघर लोगों के हित में कुछ योगदान दे सकें। रैन बसेरों में ताजा और पौष्टिक भोजन उपलब्ध करवाने की चुनौती हमारे सामने है। विशेषकर महंगाई के इस दौर में इसकी जरूरत बढ़ रही है। यदि कुछ डाक्टर स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करवाने के लिए रैनबसेरों में पहुंचने लगें, तो इससे भी बहुत से बेघर लोगों को बहुत सहायता मिलेगी। सरकार और नागरिकों के परस्पर सहयोग से व बेघर लोगों की अपनी भागेदारी प्राप्त हुए बेघर लोगों के बहुपक्षीय भलाई के कार्यों को तेजी से आगे बढ़ाया जा सकता है।

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