एक देश-एक चुनाव की अवधारणा और संविधान बदलने के लिए जरूरी संख्याबल न होने की बेबसी

सरकार अपनी नीतियों से देश को पुराने पिछड़े दौर में ले जा रही है। एक साथ चुनाव कराने की कोशिशें उसी कड़ी का हिस्सा हैं

नया संसद भवन - इसी साल 27 मई को उद्घाटन की पूर्व संध्या पर इसे रंगीन रोशनियों से सजाया गया था (फोटो - Getty Images)
नया संसद भवन - इसी साल 27 मई को उद्घाटन की पूर्व संध्या पर इसे रंगीन रोशनियों से सजाया गया था (फोटो - Getty Images)
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अवय शुक्ला

इन दिनों मेरे पास हिमाचल के अपने गांव में करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है। हर जगह एक जैसा ही दृश्य है- ढलानों से फिसलकर नीचे आ गई सड़क, टूटे-फूटे घर, धराशायी पेड़, मलबे से झांकती कार और कोटकपूरा से कभी-कभार भटकते हुए आ जाने वाले बेपरवाह पर्यटक। यह सब नीरस होता जा रहा है लेकिन इसका यह फायदा जरूर है कि मुझे हमारी मौजूदा राजनीतिक चालबाजियों, खास तौर पर ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के नए मंत्र पर विचार करने के लिए पर्याप्त समय मिला जो हमारे समाचार चैनलों के लिए नया गरमागरम मुद्दा बन गया है। 

मुझे यह विचार ही प्रतिगामी लगता है क्योंकि यह हमें पचास साल पीछे ले जाता है और तब से हमने जो भी बौद्धिक और भौतिक प्रगति हासिल की है, उसे खत्म कर देता है। तब (मैं पचास, साठ और सत्तर के दशक की बात कर रहा हूं) यह एक राष्ट्र था बल्कि सबकुछ एक ही था: एक राष्ट्र, एक राजनीतिक दल (कांग्रेस); एक राष्ट्र, एक प्रधानमंत्री (नेहरू); एक राष्ट्र, एक कार (अम्बैसेडर); एक राष्ट्र, एक घी (डालडा); एक राष्ट्र, एक साबुन (लाइफबॉय); एक राष्ट्र, एक टीवी चैनल (दूरदर्शन); एक राष्ट्र, एक जूता (बाटा); एक राष्ट्र, एक ओलंपिक पदक (हॉकी)।

दूसरी ओर, आज हमारे पास ऊपर जिक्र किए गए हर चीज के लाखों अलग-अलग विकल्प, उपलब्धियां, उत्पाद और रुचियां हैं और देश इस मामले में कहीं बेहतर स्थिति में है। 

मुझे उम्मीद है कि आप बात समझ गए होंगे: कोई राष्ट्र तब समृद्ध होता है जब उसके पास विचारों, उत्पादों, व्यक्तियों, प्रक्रियाओं में से चुनने के लिए बहुत सारे विकल्प होते हैं। गांधीजी ने इसी बात का जिक्र किया था जब उन्होंने कई खिड़कियों वाले घर की बात की थी जिसमें हर तरफ से आते हवा के झोंके विविधता, तालमेल और सौहार्द का अद्भुत माहौल तैयार करते थे और इसी से एक प्रगतिशील राष्ट्र परिभाषित होता था।

लेकिन आज की बात लगभग हर मायने में एकरूपता की है- एक भाषा; एक धर्म; एक नेता; एक पाठ्यक्रम; एक विचारधारा; एक नागरिक संहिता; एक संस्कृति; एक इतिहास- हमारी सारी ऊर्जा, बुद्धि, आकांक्षाओं, विविधता का कुरूप स्वरूप है जो हमें विचारहीन मूर्ख बना रहा है। यह एक विशेष राजनीतिक विचारधारा के अनुरूप हो सकता है लेकिन यह किसी देश की आत्मा को नष्ट कर देता है। एक राष्ट्र, एक चुनाव का सिद्धांत हमें उसी दिशा में और आगे ले जाने वाला है। 

एक देश एक चुनाव के मामले में गठित समिति का नेतृत्व करने के लिए एक पूर्व राष्ट्रपति को नियुक्त करने से देश में उच्च बेरोजगारी दर की हकीकत की ही पुष्टि होती है। हम ‘बेरोजगारी के दावन’ को अनदेखा करने के लिए पूर्व न्यायाधीशों, नौकरशाहों और नेताओं को फिर से नियुक्त करने के आदी तो हो ही गए हैं, लेकिन फिर भी मलाई तो पूर्व राष्ट्रपति के हिस्से में ही आई है।


उनकी रिपोर्ट (अगर इसे वही लिखते हैं, यानी एन के सिंह या हरीश साल्वे नहीं) की अब एक अवर सचिव द्वारा जांच की जाएगी और उस पर टिप्पणी की जाएगी, एक सचिव उसका अनुमोदन करेगा और एक मंत्री द्वारा उसे स्वीकार किया जाएगा- ये सभी काबिल लोग जिन्हें संभवतः उन्होंने ही नियुक्त किया होगा! मैं इससे अधिक हास्यास्पद स्थिति की कल्पना नहीं कर सकता, लेकिन समझ सकता हूं कि ये सभी मूर्खतापूर्ण विचार कहां से आ रहे हैं।

जब सरकार व्यावहारिक रूप से फिर से नियुक्त किए गए व्यक्तियों के झुंड द्वारा चलाई जा रही हो तो कोई और भला क्या उम्मीद कर सकता है? यह तो वैसी ही बात हुई जैसे अपने तमाम अनुचित फैसलों के कारण विवादों से घिरी रहने वाली फ्रांस की रानी मैरी एंटोनेट ने अपनी किसी सनक में फरमान जारी कर दिया हो कि अगर आप उन्हें रोजगार नहीं दे सकते, तो पुनः रोजगार ही दे दें।

जहां तक एक चुनाव कराकर पैसे बचाने (कथित तौर पर 2019 में चुनावों पर 60,000 करोड़ रुपये खर्च किए गए) की बात है, वह पूरी तरह मूर्खतापूर्ण है; इसके अलावा यह गरीब विरोधी भी है। भारत में चुनाव गरीबों को धन देने का का एकमात्र प्रभावी साधन है क्योंकि सरकार किसी भी अन्य माध्यम से ऐसा करने में बुरी तरह विफल रही है।

एडीआर (एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स) के मुताबिक, मौजूदा लोकसभा में 521 सांसदों में से 430 करोड़पति हैं और उनके राजनीतिक दलों के पास हजारों करोड़ रुपये हैं। चुनाव यह सुनिश्चित करते हैं कि इनमें से कुछ धनराशि उन लोगों को वापस मिल जाए जिनसे वे उचित-अनुचित तरीके से हड़प लिए गए थे। यह पुनर्वितरण एक अच्छी बात है और इसलिए जितने अधिक चुनाव होंगे, आम आदमी के लिए उतना ही अच्छा होगा! अकेले इसी आधार पर, इस एक राष्ट्र, एक चुनाव की बकवास को तुरंत खत्म करने की जरूरत है।

हालांकि मुझे बीजेपी की तारीफ करनी चाहिए कि वह एक ऐसे विचार के लिए अड़ी हुई है जिसका समय अभी नहीं आया है। मुझे लगता है कि पार्टी का कोई व्यक्ति जो अब भी किताबें पढ़ने में सक्षम है, उसने राजा ब्रूस और मकड़ी की कहानी पढ़ ली होगी कि कैसे तमाम बाधाओं और बार-बार विफल होने के बावजूद अपना जाल बनाने के प्रति मकड़ी की लगन को देखकर स्कॉटिश राजा को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ने की प्रेरणा मिलती है और छह बार हारने के बाद सातवीं कोशिश में उसे जीत हासिल होती है।


जब पार्टी के प्रतिष्ठित लोगों को यह कहानी बताई गई होगी तो उसने इसी से प्रेरणा लेते हुए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में समिति का गठन कर दिया होगा। इससे पहले ही ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ मुद्दे को कम-से-कम चार बार जांचकर- दो विधि आयोगों, नीति आयोग और संसद की एक स्थायी समिति द्वारा- ठंडे बस्ते में डाला जा चुका था। तब, इस पर अड़ने की क्या जरूरत थी? केवल यह दिखाने के लिए कि अगर मकड़ी यह कर सकती है, तो मैं भी कर सकता हूं?

हालांकि इस पागलपन में एक पैटर्न दिखता है। अपने तरीके से संविधान में संशोधन करने के लिए जरूरी संख्या न होने के कारण सरकार की रणनीति तमाम कार्यकारी कदमों के माध्यम से ऐसा करने की दिखती है- अनुच्छेद 370, बोलने और असहमति पर अंकुश लगाने के लिए कठोर कानून, अदालत के फैसलों की अवहेलना, बुलडोजर न्याय, खास समुदाय को अलग-थलग करना, एक देश एक चुनाव, देश का नाम बदलना वगैरह। संविधान पर धीरे-धीरे तब तक हमला करते रहो जब तक उसमें से प्राण न निकल जाए और संशोधन के लिए कुछ भी न बचे। यह तो शैतानी भरी चालाकी है, है ना? हमने शून्य का आविष्कार किया, अब हम ‘एक’ की अवधारणा का पुनः आविष्कार कर रहे हैं। हम जो कभी थे, उससे एकदम अलग- एक राष्ट्र, अनेक भारत।

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