द केरल स्टोरी: बहुत बड़े झूठ में अर्धसत्य का तड़का और खास एजेंडे को हवा देने लगे सत्ता में बैठे लोग

‘द केरल स्टोरी’ केरल के बहुरंगी समाज में दरारें खींचने का प्रयास है और यह सच्चाई से कोसों दूर है। यह खास एजेंडे को पूरा करती दिखती है जिसे सत्ता में बैठे लोग हवा दे रहे हैं 

'द केरल स्टोरी' का पोस्टर
'द केरल स्टोरी' का पोस्टर
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शाजहां मदमपत

कुख्यात ‘द केरल स्टोरी’ में आप जो कुछ देखेंगे या सुनेंगे, ‘असली केरल स्टोरी’ उसके ठीक उलट है। संघ परिवार कभी भी केरल को समझ नहीं सका। मई, 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केरल की तुलना सोमालिया से की थी और नतीजतन उन्हें मलयाली लोगों ने हैशटैग #PoMoneModi (गो ऑफ मोदी) के साथ जमकर ट्रोल किया था।

आज ‘द केरल स्टोरी’ का मामला है। फिल्म अभी रिलीज भी नहीं हुई थी और प्रधानमंत्री ने कर्नाटक में एक चुनावी रैली में इसके आलोचकों को खरी-खोटी सुनाई। इससे केरल में बड़ी आबादी के मन में यह बात और मजबूती से घर कर गई कि सत्ता में बैठे लोगों में न सिर्फ मुस्लिमों के खिलाफ गहरे तक नफरत भरी हुई है, बल्कि ‘ईश्वर के घर’ के तौर पर देखे जाने वाले इस राज्य के लिए बड़ी ही साफ दुश्मनी है।

इस नफरत और चिढ़ की वजह? क्या इसलिए कि यहां के लोग अपने बहुरंगी सामाजिक परिवेश में भाईचारे के साथ रहना पसंद करते हैं? वैसे, इस नफरत की एक और वजह है- केरल के लोगों ने आजादी के बाद- एक बार को छोड़कर- कभी भी बीजेपी या जनसंघ के उम्मीदवार को संसद या विधानसभा के लिए नहीं चुना।

केरल के बारे में बीजेपी और संघ परिवार की समझ को समझने के लिए 2016 में चलते हैं। अमित शाह ने सितंबर के महीने में केरल के लोगों को ओणम पर ‘वामन जयंती’ की शुभकामना दे डाली और इसके साथ एक तस्वीर भी साझा की जिसमें विष्णु के अवतार वामन को राजा महाबली के सिर को रौंदते हुए उसे पाताल लोक भेजते दिखाया गया है। यह बताता है कि देश में प्रचलित मिथकों और आस्था की बहुरंगी विविधता के प्रति संघ परिवार में कितनी नापसंदगी है।

असुर राजा महाबली को बेशक भारत के कई हिस्सों में बुराई का प्रतीक माना जाता है, लेकिन मलयाली मिथक उन्हें अलग तरीके से देखते हैं। वे राजा महाबली को सुशासन, उदारता और अपनी प्रजा का खयाल रखने वाले आदर्श के तौर पर मानते हैं। महाबली को ईर्ष्यालु और गुस्सैल देवताओं ने इसलिए दंडित किया कि उनका राज्य कहीं ज्यादा ‘ईश्वरीय’ था! ओणम, केरल का राजकीय त्योहार है और लोगों के लिए यह अपने प्रिय राजा की घरवापसी के स्वागत का मौका होता है ‘जिसके शासनकाल में सभी मनुष्य समान थे।’ इसलिए अमित शाह की शुभकामनाओं को मलयालियों ने उनकी भावनाओं को चोट पहुंचाने वाला माना। 


आज के ध्रुवीकृत, आक्रामक राष्ट्रीय विमर्श में भी मलयाली सामूहिक कल्पना में मुस्लिम इस तरह घुले-मिले हुए हैं कि उन्हें आसानी से पहचाना नहीं जा सकता, बल्कि वे एक बेमिसाल महानगरवाद के अहम खिलाड़ी हैं। बेशक, ध्रुवीकरण के मौजूदा माहौल में केरल की इस खासियत को कुछ नुकसान पहुंचा हो, फिर भी मलयाली पहचान के बुनियादी ताने-बाने में कोई फर्क नहीं आया है। अंग्रेज कवि एलेक्जेंडर पोप के शब्दों में कहें, तो हंसी-ठट्ठे के लिए स्वाभाविक रुझान और रचनात्मक लय-ताल में नया आयाम जोड़ना केरल की संस्कृति की मूल प्रकृति रही है।  

समकालीन भारत की सांस्कृतिक समग्रता का हिस्सा होना एक ऐसा जबरदस्त विचलन है जो केरल की संस्कृति को मजबूत करने की जगह उसे धुंधला ही करता है। केरल की संस्कृति ऐसी रही है जो स्थापित मान्यताओं को केवल इसलिए नहीं मान लेती कि वह चली आ रही है, वह बदलते समय के साथ कदमताल करने की उदारता वाली और ‘परजीवी प्रतिभा’ के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रही है। जब भारत के बाकी हिस्सों की प्रमुख संस्कृति मजबूर और प्रतिशोधी एकरूपता के गुणों को थोपने की हो गई, केरल दैवीय उपहार के तौर पर विविधता का जश्न मनाता है। जब शेष भारत विजयी देवताओं की पूजा करता है, तो केरल उन देवताओं के निर्दोष पीड़ितों की पूजा करता है।

केरल का बहुलवाद गहरा है और उन लोगों के सामूहिक ज्ञान में व्याप्त है जिनकी पौराणिक कथाएं, लोककथाएं और इतिहास की भावना मतभेदों के लिए जगह बनाते हुए इसका उत्सव मनाते चलती हों। केरल का बहुलवाद भावनात्मक तौर पर कितना समृद्ध है, इसका अनुमान उस लोकप्रिय किंवदंती से लगाया जा सकता है जो केरल में जाति व्यवस्था के मूल में उस अछूत महिला को देखती है जिसका पति एक ब्राह्मण विद्वान-संत था।

केरल के सर्वोत्कृष्ट शहर- कोच्चि के ‘लोकप्रिय इतिहास' की अपनी रचना के अंत में प्रख्यात राजनीतिक मनोवैज्ञानिक आशीष नंदी ने लिखा: ‘कोचीन की कहानी यह भी बताती है कि बहुसंस्कृतिवाद सिर्फ एक राजनीतिक या सामाजिक व्यवस्था बनकर नहीं रह जाना चाहिए, न ही यह सिर्फ असमान जीवन शैली को साथ लेकर चलने वाला सिद्धांत भर होना चाहिए। बहुसंस्कृतिवाद कभी-कभी सांस्कृतिक रूप से एक ऐसी अंतर्निहित पहचान का परिचायक हो सकता है जिसमें ‘दूसरों’ को स्वयं के अविभाज्य अंग के रूप में देखा जाता है। उस स्थिति में, वे न केवल एक नकारात्मक पहचान के रूप में जीवित रहते हैं बल्कि आपके अंदर लुभावनी, संभावनाओं से भरी और अस्वीकृत अस्मिता के रूप में भी जीवित रहते हैं। इस तरह का आंतरिकीकरण मनोविश्लेषण मनोविज्ञान के लिए नया नहीं है, हालांकि यहां इस उदाहरण में बात एक व्यापक सांस्कृतिक आयाम की है। यह जरूरी नहीं कि इस आंतरिकीकरण में ‘दूसरे’ अलग-अलग स्वरूपों में रहें; ये सांस्कृतिक तौर पर अनिवार्य सामूहिकता के साथ भी रह सकते हैं। इसका मतलब यह है कि इन समुदायों को आमतौर पर भूत भगाने के लिए किसी दर्दनाक रस्म की जरूरत नहीं होती है क्योंकि कोचीन के लोगों‍ के लिए उनकी आंतरिक दुनिया में रूहों का डेरा डाले रहना कोई अनजानी बात नहीं। ये रूहें आम तौर पर दोस्ताना होती हैं और कभी-कभार ही इनपर ऐसी दुश्मनी सवार होती है कि खौफ पैदा करने लगें।’ 


यह आदर्शवादी लग सकता है लेकिन जब एक राज्य और उसके लोगों को राक्षस की तरह पेश किया जाए और यह सब देश पर शासन करने वाली पार्टी के इशारे पर हो, तो सामने वाले को उन्हीं लक्षणों पर जोर देना चाहिए जो उन्हें बखूबी परिभाषित करते हैं। ‘द केरल स्टोरी’ और इसके पहले का प्रोपेगंडा (याद रखें तब बात 32,000 से शुरू होकर तीन पर आ टिकी थी) साफ बता रहे हैं कि वे क्या-कुछ करना चाहते हैं। सामान्य समझ की बात है कि उन्हें कुछ और तरीका अपनाना चाहिए था और ऐसे में यही कहा जा सकता है कि संघी खेमे में कुछ बुद्धिमान लोगों की जरूरत है जो कुछ होशियारी के साथ प्रोपेगंडा फैलाने का काम कर सकें।

‘द केरल स्टोरी’ के खिलाफ विरोध तो केरल की गैर-मुस्लिम लड़कियों की ओर से होना चाहिए था क्योंकि इस फिल्म के जरिये उन्हें ऐसी नादान और नासमझ बताया गया है जो बड़ी आसानी से मुस्लिम लड़कों की चिकनी-चुपड़ी बातों में आ जाती हैं। इसमें मुस्लिम लड़कों को ऐसे पेश किया गया है, मानो उनमें ऐसा जादुई आकर्षण हो कि लड़कियां अपने आपको रोक ही न सकें और उनसे प्यार करने लगें और ये लड़के उनका धर्मांतरण करा दें। इसे तो मुस्लिमों युवकों को अपनी तारीफ के तौर पर लेना चाहिए!

इस बात से इनकार नहीं है कि पिछले तीन दशकों के दौरान केरल में धार्मिक कट्टरवाद बढ़ा है और यह बात सभी तीन प्रमुख समुदायों- हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई- पर लागू होती है। कोई दर्जनभर गुमराह युवकों का आईएसआईएस में शामिल होना मलयाली समाज के लिए उतना ही तकलीफ और गुस्से का विषय है जितना कि संघ परिवार को गले लगाने वाले लोगों की तादाद का बढ़ना। या फिर उस तरह से केरल में ऐसे ईसाइयों की तादाद का बढ़ना जो मणिपुर की रक्तरंजित कहानियों के बावजूद, दक्षिणपंथी हिन्दुओं के नरसंहार संबंधी पूर्वाग्रहों का बचाव करते हैं। कुल मिलाकर केरल में हम जो कुछ भी देख रहे हैं, वह तमाम तरह के रूढ़िवाद और कट्टरता के बढ़ने की अभिव्यक्ति है जो कई बार मिलकर तो कई बार एक-दूसरे के खिलाफ काम करते हैं। लेकिन दोनों ही स्थितियों में ये राज्य के सदियों पुराने उस लोकाचार को खत्म करते हैं जिसने ‘अलग-अलग होते हुए भी साथ रहने’ के फायदे को साबित किया था।

निराशा के इस माहौल में उम्मीद दिलाने वाली बात यह है कि अंधेरे की ये ताकतें अभी भी बहुत छोटी हैं और यह कि केरल में नागरिक समाज राजनीतिक विभाजनों को पार करते हुए, कई तरह से समस्याओं का हल निकाल रहा है। हम जानते हैं कि हमें न केवल जीवित रहना होगा बल्कि एक ऐसे देश में शांति और सद्भाव के नखलिस्तान के रूप में पनपना होगा जिसका अब विश्व इतिहास के अवर्णनीय उदाहरण के तौर पर दुनिया भर में तेजी से उल्लेख किया जा रहा है और सभी मामलों में जिसकी वैश्विक रैंकिंग उत्तर कोरिया से थोड़ा ही बेहतर है!


‘द केरल स्टोरी’ अपने तरह का अंतिम प्रयास नहीं है। यह नफरती भावों को फैलाने वाली धारा में बस ताजातरीन है। ऐसी धारा जो हमें नफरत और झूठ की दुनिया के सबसे बड़े कारखाने के रूप में अलग-थलग करती है। किसी और संदर्भ में कही गई हना आरडेंट के शब्द आज की दुर्दशा में बड़े मौजूं लगते हैं: ‘अगर सब लोग आपसे हमेशा झूठ बोलें तो इसका नतीजा यह नहीं कि आप उस झूठ पर यकीन करने लगेंगे बल्कि यह कि कोई भी अब किसी भी बात पर यकीन नहीं करेगा। ऐसा इसलिए क्योंकि झूठ को स्वभावतः बदलना पड़ता है और झूठ बोलने वाली सरकार को लगातार अपने इतिहास को फिर से लिखना पड़ता है। इसके बदले आपको आखिरकार केवल एक झूठ मिलता है - एक झूठ जिसे आप अपने शेष दिनों में साथ रख सकते हैं- लेकिन आपको बड़ी संख्या में भी झूठ मिल सकता है और यह इस बात पर निर्भर करता है कि राजनीतिक हवा कैसी बह रही है। वैसे लोग जो अब किसी भी बात पर यकीन नहीं कर सकते, वे अपना मन भी नहीं बना सकते। ऐसे लोग न केवल कार्य करने की क्षमता से वंचित हो जाते हैं बल्कि सोचने-विचारने की क्षमता भी खो बैठते हैं। और ऐसे लोगों के साथ आप जो चाहें कर सकते हैं।’

(शाजहां मदमपत सांस्कृतिक टिप्पणीकार हैं। उनकी हालिया पुस्तक ‘गॉड इज नॉट ए खुमैनी नॉर ए मोहन भागवत: राइटिंग्स अगेंस्ट जीलोट्री’ है।)

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