आकार पटेल का लेख: आखिर कैसे हैं ये कानून, जहां सबूत की बाध्यता खत्म और आरोपी को ही साबित करना होती है अपनी बेगुनाही

बीते सालों में देश में केंद्र और राज्य सरकारों, खासतौर से बीजेपी सरकारों ने तमाम ऐसे कानून बनाए हैं जिनमें आरोप सिद्ध करने के लिए सबूतों की बाध्यता खत्म कर दी गई है और सारा जिम्मा आरोपी का है कि उसे अपनी बेगुनाही साबित करनी होती है। आखिर कैसे कानून हैं ये!

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आकार पटेल

भारत उस सामान्य कानूनी सिस्टम का पालन करता है, जो ग्रेट ब्रिटेन ने सामने रखा था। हालांकि एक स्वतंत्र राष्ट्र होने के नाते भारत ने कानूनों में कई बदलाव किए हैं, और इन्हीं में से एक है सबूत की बाध्यता को खत्म कर देना। भारत में कई आपराधिक कानूनों में, और विशेष रूप से 2014 के बाद बनाए गए कानूनों में, सबूत की बाध्यता को खत्म कर दिया गया है। इसका अर्थ है कि मान लिया जाता है कि अपराध हुआ है। सरकार मान लेती है कि आपने कुछ गलत किया है और अब आपको ही अपनी बेगुनाही साबित करनी है।

यह सामान्य आपराधिक कानून के एकदम विपरीत है। उदाहरण के लिए, यदि किसी को लाश के बगल में चाकू के साथ पाया जाता है, तो यह सरकार को साबित करना होता है कि उस व्यक्ति ने हत्या की है। हालांकि, ऐसे कानून हैं जिनमें सरकार मान लेती है कि वह व्यरक्ति दोषी है। असम में नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) ऐसा ही एक उदाहरण है। असम में सभी को ऐसे सरकारी दस्तावेजों को जमा करना था, जिससे पता चलता है कि उनके पूर्वज 1971 से पहले असम में नागरिक के रूप में रहे थे। ऐसे लोगों को किसी सरकारी न्यायाधिकरणों के सामने लाइन में खड़ा नहीं होना पड़ा और यह साबित करना पड़ा कि वे वैध थे। लेकिन ऐसा नहीं करने वालों को एक तरह की कैद में बंद कर दिया गया। इसकी वजह से आज सैकड़ों लोग जेल में हैं और ऐसे लोगों के लिए इसी किस्म की कई जेलों का निर्माण किया जा रहा है।

ब्रिटेन का कानून कहता है कि सबूत पेश करना प्रतिवादी का ही काम है, और उन्हें इससे अधिक कुछ और साबित करने की आवश्यकता नहीं है। यानी बेगुनाही साबित करने का पैमाना नीचा है। लेकिन भारत में यही पैमाना सबसे ऊंचा है और हम इसे असम और अन्य जगहों पर देख सकते हैं।

भारत ने कई बीजेपी शासित राज्यों में ‘फ्रीडम ऑफ रिलीजन लॉज़’ यानी धार्मिक स्वतंत्रता कानून बनाए हैं। ऐसा धर्मांतरण के सबूत को पेश करने की बाध्यता को खत्म करके किया गया है। ऐसा कानून सबसे पहले 2018 में उत्तराखंड में बा, फिर हिमाचल प्रदेश ने धर्म स्वतंत्रता अधिनियम 2019 सामने रखा, इसके बाद उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म सम्परिवर्तन प्रतिष्ठा अध्‍यादेश, 2020 (धार्मिक धर्मांतरण का निषेध अध्यादेश) आया, फिर मध्य प्रदेश धर्म स्वतंत्र अध्‍याय, 2020 आया। और आखिरकार गुजरात में धर्म की स्वतंत्रता (संशोधन) अधिनियम, 2021 भी आ गया।

इन कानूनों को जरिए हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच विवाह को अपराध बना दिया गया। ये कानून कहते हं कि अगर किसी ने शादी से पहले या बाद में अपना धर्म बदला तो शादी को गैरकानूनी और अवैध घोषित कर दिया जाएगा, भले ही ऐसी शादी से बच्चे भी हो गए हों।

धर्म बदलने का काम जोर-जबरदस्ती या किसी प्रभाव से या किसी सम्मोहन से नहीं हुआ, इसका सबूत देने का जिम्मा पति-पत्नी या उनके परिवार पर है। शादी के लिए धर्म परिवर्तन से पहले सरकार को आवेदन न देने वाले जेल भेज दिया जाता है। इन कानूनों की दूसरी अनूठी बात यह है कि ये हिंदू धर्म पर लागू नहीं होते हैं। हिमाचल प्रदेश में मूल कानून कहता है कि 'यदि कोई व्यक्ति अपने पुश्तैनी धर्म में वापस आता है' तो इसे धर्मांतरण नहीं माना जाएगा। कानून 'पैतृक धर्म' को परिभाषित नहीं करते हैं, लेकिन इसका अर्थ स्पष्ट है: जो लोग हिंदू धर्म में परिवर्तित होते हैं उन्हें दंडित नहीं किया जाएगा।


पिछले साल सीएए के विरोध प्रदर्शन के दौरान यूपी पुलिस द्वारा 21 प्रदर्शनकारियों की गोली मारकर हत्या करने के बाद उत्तर प्रदेश सार्वजनिक और निजी संपत्ति को नुकसान की वसूली अधिनियम, 2020 लागू किया गया था। यह कानून राज्य सरकार को ऐसे लोगों को घरों या अन्य संपत्ति को कुर्क करने और लोगों पर जुर्माना लगाने का अधिकार देता है जिन पर उसे शक है कि उन्होंने सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाया। यदि अभियुक्त अधिकरण के समक्ष उपस्थित होने में असमर्थ है, तो भी कुर्की के आदेश पारित किए जा सकते हैं जिसकी अपील नहीं की जा सकती।

2014 के बाद कुछ और कानून भी बने हैं। इनमें भी गौहत्या के आरोप के सबूत की बाध्यता खत्म कर दी गई है। ये कानून बीजेपी की राज्य सरकारों ने भी पारित किए हैं। ये कानून हैं महाराष्ट्र पशु संरक्षण (संशोधन) अधिनियम, 2015, हरियाणा गौवंश संरक्षण और गौसंवर्धन अधिनियम, 2015, गुजरात पशु संरक्षण (संशोधन) अधिनियम, 2017, और कर्नाटक वध रोकथाम और पशु संरक्षण अधिनियम, 2020। इन सभी कानूनों में सबूत की बाध्यता को खत्म कर दिया गया है। और अगर किसी पर गाय को मारने या गोमांस रखने का आरोप लगाया जाता है, तो उसी व्यक्ति को यह साबित करना होगा कि उन्होंने जानवर को नहीं मारा या उनके फ्रिज में रखा मांस गोमांस नहीं है।

गोहत्या यूं तो देश के कानून के मुताबिक एक आर्थिक अपराध है, क्योंकि यह पशुपालन को संरक्षित करने के लिए है, लेकिन गुजरात में इसके लिए आजीवन कारावास की सजा है। किसी अन्य आर्थिक अपराध में आजीवन कारावास की सजा नहीं है। इस नए कानून के तहत 2019 में एक मुस्लिम व्यक्ति को अपनी बेटी की शादी में गोमांस परोसने के आरोप में 10 साल जेल की सजा सुनाई गई थी। हालांकि उस व्यक्ति का अपराध पुलिस साबित नहीं कर पाई थी लेकिन जज ने कहा कि यह उसी व्यक्ति को साबित करना था कि वह दोषी नहीं है क्योंकि जो मांस खाया जा चुका था उसे कैसे साबित किया जा सकता है कि वह गोमांस नहीं था। अदालत ने उसे जेल भेज दिया था।

जो लोग अपने वाहन में पशुओं को ले जाते हैं उन्हें भी इन कानूनों की सख्त शर्तों को मुताबिक सजा भुगतना होती है और उनका वाहन जब्त होने के साथ ही 5 लाख रुपए का जुर्माना भी लगता है।


इनके अलावा जिन और कानूनों में सबूत की बाध्यता खत्म कर दी गई है उनमें यूएपीए भी है, इस कानून में तो लोगों को एक बार आरोपी बनने के बाद जमानत तक नहीं मिलती है। सभी राज्यों ने अपने यहां एहतियातन हिरासत में लेने के कानून बनाए हैं जिनके जरिए सरकारे बिना किसी अपराध के भी सिर्फ यह मानकर कि भविष्य में कोई व्यक्ति अपराध कर सकता है उसे हिरासत में ले सकती हैं।

रोचक तथ्य है कि बीजेपी जब जनसंघ थी, तो उसने हिरासत में लिए जाने के कानून का विरोध किया था, लेकिन आज बीजेपी खुद इन कानूनों की चैंपियन बन चुकी है। दूसरी बात जो नोट करने की है वह यह कि 2014 के बाद से ऐसे कानून बनाने की जैसे बाढ़ आ चुकी है वह भी बिना किसी चर्चा या किसी प्रतिरोध के कि क्या हमें ऐसे कानूनों की जरूरत है भी कि नहीं। इसका एक कारण यह हो सकता है कि आम भारतीय को अभी भी सिस्टम और इसकी निष्पक्षता पर भरोसा है।

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