आकार पटेल का लेख: पोखरण परमाणु परीक्षण के सबक

परीक्षण के बाद उत्सव मनाया जा रहा था, पटाखे फूट रहे थे, मिठाईयां बंट रही थीं और इन सबने मिलकर सुनिश्चित किया कि परीक्षण के बाद कोई बहस न हो और न कोई बुनियादी सवाल पूछे जाएं और न ही उनके जवाब दिए जाएं।

फोटो: सोशल मीडिया
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आकार पटेल

11 और 13 मई 1998 को भारत ने पोखरण में 5 परमाणु परीक्षण किए। यह पहले परीक्षण के 24 सालों बाद हुआ, जो पोखरण में ही हुआ था। इंदिरा गांधी ने उस समय शर्तों का उल्लंघन कर कनाडा से परमाणु तकनीक का आयात किया था और भारत को प्रतिबंध झेलना पड़ा। पहला परीक्षण उस काल में हुआ जो काफी अस्थिर था। चीन उसके 10 साल पहले ही 1960 के दशक के मध्य में परमाणु शक्ति संपन्न देश बन चुका था और इसके साथ ही वह संयुक्त राष्ट्र में वीटो शक्ति रखने वाले 5 देशों में अणु बम हासिल करने वाला आखिरी देश बन गया था। यह वही दौर था जब दुनिया के कई सारे देश युद्ध में शामिल थे। अमेरिका का वियतनाम के साथ हिंसक टकराव खत्म होने वाला था और इंदिरा गांधी के परीक्षण के कुछ सालों बाद ही सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया था। 1970 के दशक में दुनिया का पूर्वानुमान लगाना थोड़ा मुश्किल था और टकराव सामान्य समझा जाता था। कोरियाई युद्ध के समय अमेरिका के जनरल मैकआर्थर ने इतनी असावधानी के साथ चीन और उत्तर कोरिया पर परमाणु हमले की धमकी दे दी कि अमेरिकी भी इससे सकते में आ गए। 48 साल पहले इंदिरा के परमाणु परीक्षण की यह पृष्ठभूमि थी।

1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के समय ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी। यह वह समय था जब शीत युद्ध समाप्त हो चुका था, सोवियत संघ का पतन हो चुका था और सूचना तकनीक क्रांति आसन्न थी। इस दौर में यह साफ हो चुका था कि साहसी नए सेवा-आधारित आर्थिक भविष्य में भारत का नेतृत्व बैंगलोर ही करेगा।

यह वह दौर था जब ताइवान, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया और अन्य एशियाई देशों के आर्थिक उभार ने यह साबित किया कि ताकत धन में मौजूद है, शस्त्र में नहीं। उत्तर कोरिया इसे और ज्यादा साबित किया, जो बहुत बड़ी सैन्य शक्ति थी लेकिन वहां लाखों लोग गरीबी में जी रहे थे। 1998 में परीक्षण को लेकर हमारे यहां कोई बहस नहीं हुई। वाजपेयी सरकार अपने पहले 13 दिन के कार्यकाल के दौरान ही परमाणु परीक्षण करना चाहती थी, लेकिन एक सावधान नौकरशाही ने कहा था कि वह इससे सहमत नहीं हो सकता। यह दिखाता है कि परीक्षण को कितना असावधान तरीके से लिया गया था।

उत्सव मनाया जा रहा था, पटाखे फूट रहे थे, मिठाईयां बंट रही थीं, और इन सबने मिलकर सुनिश्चित किया कि परीक्षण के बाद कोई बहस न हो और न कोई बुनियादी सवाल पूछे जाएं और न ही उनके जवाब दिए जाएं। 20 साल बाद जब भावनाएं विलुप्त हो चुकी हैं और मुद्दा उबाऊ हो चुका है, हम उन सवालों पर एक नजर डालते हैं: पहला, क्या परीक्षण ने भारत को परमाणु शक्ति संपन्न देश बना दिया? जवाब है - नहीं। इंदिरा और भारत को 1974 के परीक्षण के बाद दुनिया ने सजा दी थी, हमारी परमाणु तकनीक तक की पहुंच को रोक दिया गया, सिर्फ इसलिए क्योंकि हमने अपने परमाणु कार्यक्रम का सशस्त्रीकरण कर पुरानी शर्तों का उल्लंघन किया था। 1998 के परीक्षण ने उसकी पुनरावृति की। दूसरा, क्या इसने भारत को ज्यादा सुरक्षित बना दिया? जवाब है - नहीं। मई 1999 में पोखरण के एक साल बाद पाकिस्तान ने कारगिल में एक युद्ध को उकसाने की कोशिश की, जिसमें हमने 500 सैनिकों को गंवा दिया। उसके 10 साल बाद मुंबई में हमला हुआ। असल में कश्मीर में सबसे हिंसक दौर पोखरण के बाद 2001 में आया, जब 4500 लोग मारे गए।

तीसरा, क्या इसने हमारे परमाणु तकनीक का विकास किया? यहां भी जवाब है – नहीं। मनमोहन सिंह सरकार ने अमेरिका के साथ एक परमाणु समझौता किया, लेकिन यह कहीं नहीं पहुंचा।

चौथा, क्या इसने भारत के कद को बढ़ाया? जवाब है – नहीं। भारत ने बार-बार मांग की है कि इसे सुरक्षा परिषद् का सदस्य बनाया जाना चाहिए। परमाणु परीक्षण ने हमें वहां पहुंचने में मदद नहीं की। ज्यादा संभावना है कि नुकसान पहुंचाया। नरेन्द्र मोदी ने फैसला लिया कि भारत को परमाणु आपूर्ति समूह का सदस्य होना चाहिए, लेकिन वह भी कहीं नहीं पहुंचा।

पांचवां, क्या परीक्षण ने हमें परमाणु तकनीक की वजह से ज्यादा बिजली उत्पादन करने में मदद की? जवाब है – नहीं। भारत का ध्यान फिलहाल परमाणु उर्जा से सौर उर्जा पर है।

छठा, क्या इसने दक्षिण एशिया में शक्ति-संरचना को बदल दिया? जवाब है – नहीं। पोखरण के कुछ दिनों बाद ही पाकिस्तान ने बलूचिस्तान के चगाई क्षेत्र में परीक्षण किया और उपमहाद्वीप में परमाणु गतिरोध है। हम अब इस डर से अपनी पारंपरिक श्रेष्ठता का भी इस्तेमाल नहीं कर सकते कि कहीं टकराव बहुत आगे न चला जाए। चीन ने बहुत मजबूती से अपनी आर्थिक पहल को हमारे क्षेत्र में आगे बढ़ाया है और आज हमारा सरोकार उनके सैन्य शक्ति को लेकर नहीं है, बल्कि हमारे सारे विकल्प ले जाने की उनकी क्षमता है।

कई सूत्रों के मुताबिक, आज पाकिस्तान परमाणु यंत्रों की संख्या के मामले में हमसे आगे है जो उसने उत्पादित की है। इस बात पर कोई बहस नहीं है कि 1998 के हमारे कार्य ने ही उसे ऐसा करने के लिए उकसाया। ये वे सवाल हैं जिन्हें हमें खुद से 1998 में पूछना चाहिए था, लेकिन हमने पूछा नहीं। किसी भी परिपक्व समाज और खासतौर पर लोकतंत्र को ऐसे किसी काम के पहले उस पर बहस करनी चाहिए थी जिसके इतने दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। हमने इसे पटाखे फोड़ने की तरह देखा। क्या यह सब जानने के बाद भी हम परीक्षण करते? मैं इसका फैसला पाठकों पर छोड़ देता हूं। मुझे कोई एक भी फायदा नहीं दिखता जो परीक्षण के जरिये हमें हुआ हो। मैं एक महत्वपूर्ण नुकसान के बारे में बात करूंगा। 1998-99 पिछले 25 दशक में एकमात्र ऐसा साल है जब भारत में पूर्ण-नकारात्मक विदेश निवेश हुआ।

उस साल विदेशी धन हमारे देश से चला गया क्योंकि पूंजी डरपोक होती है और वह विध्वंसक तकनीक के असावधान इस्तेमाल से पैदा हुई अनिश्चितता को पसंद नहीं करती। इससे भारत और इसकी अर्थव्यवस्था को हुए नुकसान पर कभी चर्चा नहीं की गई। और परीक्षण के 20 साल होने पर उत्सव का अभाव यह दिखाता है कि हम आगे बढ़ चुके हैं जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो।

(यह लेखक के निजी विचार हैं। नवजीवन का उनके विचारों से सहमत होना अनिवार्य नहीं है)

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