गोत्र: भारत के इतिहास में समय-समय पर बदलता रहा है इसका अर्थ, प्राचीन ग्रंथों में मौजूद है विस्तृत जानकारी

गोत्र का पहला ज़िक्र सबसे पुराने वेद ॠग्वेद में आता है। पर उसकी कई ॠचाओं में गोत्र का मतलब वह नहीं जो आज है। गोत्र यानी ‘गायों (गो) की रक्षा (त्राण) के लिए बनाया गया एक ‘बाड़ा’। ॠग्वेद में गोत्र शब्द का एक दूसरा मतलब पहाड़ की ऊंची चोटी भी है।

फोटो: सोशल मीडिया
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मृणाल पाण्डे

इन दिनों राजनीति में गोत्र पर बहुत सवाल-जवाब हो रहे हैं। गोत्र की जड़ है मनुष्यों का एक खास समूह। कम लोग जानते हैं कि शब्द अनेकार्थी होते हैं, और समय के अनुसार उनके मूल मायने भी बदलते रहते हैं। उदाहरण के लिए, प्राचीनतम वेद ॠग्वेद में युवा स्त्रियों के समूह को जनि, और पुरुषों के समूह को जन कहा गया है। और इन दोनों के समागम से उत्पन्न जीवों को जात मतलब संतान का नाम दिया गया है। आज जात का सीधा मतलब जाति से जुड़ गया है। इसी तरह संस्कृत के धर्म ग्रंथों में बार-बार आए गोत्र शब्द के मायने भी भारत में लगातार (युग विशेष में समाज के विकास और उसकी ज़रूरतों के अनुसार) बदलते गए हैं। ॠषि पातंजलि के अनुसार, मूल गोत्र सिर्फ 8 हैं। और वे सात ॠषियों (सप्तर्षियों) से उपजे हैं, जिनके साथ मुनि अगस्त्य का नाम भी जोड़ दिया गया। विश्वामित्र, भारद्वाज, जामदग्नि, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप और अगस्त्य, मूल गोत्रों के नाम इनसे ही बने और आगे चलते गए। कालांतर में आबादी बढ़ी, जातियों की उपजातियां बनीं, तो कई नए नकोर गोत्र भी निकल आए। व्याकरणाचार्य पाणिनि ने कहा है कि उनके समय (ई.पू. 5वीं सदी) में गोत्रों की तादाद 3 करोड़ थी।

एक रोचक बात यह भी है कि हरिवंश और महाभारत दोनों में मातृनाम ही बच्चे की पहचान है। प्रजापति की संतानों के जितने नाम हैं, सब माताओं के नाम से बने हैं। इस तरह दैत्यगण अपनी मां दिति के नाम से, मरुत अपनी माता मरुत्मती के नाम से बताए गए हैं। लिहाज़ा मारुतिनंदन हनुमान के गोत्र पर आज के अर्थ में की जा रही सारी की सारी बहस बेबुनियाद है। हम सामान्यजनों के बीच गोत्र को आज का पितृसत्तात्मक समाज मोटे तौर से पति से अपनी पत्नी तथा बच्चों को दिया जाने वाला बताता है। पुत्र का गोत्र आजीवन पिता का ही रहता है, पर बेटी का गोत्र शादी के बाद पति के गोत्र में तब्दील हो जाता है। यह हमेशा ऐसा नहीं था। वजह यह कि मूल 8 गोत्र चलाने वाले सभी ॠषियों के पिता अज्ञात हैं। और वे पिता के नाम से नहीं, अपनी मां के नाम से जाने गए। जैसे गौतमी के पुत्र गौतम, वाशिष्ठी के वशिष्ठ, काश्यपी के कश्यप आदि। गीता तक में कृष्ण भी अर्जुन को बार-बार पांडव नहीं, कौन्तेय यानी कुंती का बेटा ही कहते हैं।

गोत्र का पहला ज़िक्र सबसे पुराने वेद ॠग्वेद (1500-1000 ई.पू.) में आता है। पर उसकी कई ॠचाओं (मसलन 1-5-1-3, 1.17.1, 10.120.8) में गोत्र का मतलब वह नहीं है जो आज है। गोत्र यानी ‘गायों (गो) की रक्षा (त्राण) के लिए बनाया गया एक ‘बाड़ा’। कृषि प्रधान उस युग में पशु खासकर गायें अनमोल संपत्ति थीं। दूसरी बड़ी नेमत थी बारिश। इसलिए , ॠग्वेद में गोत्र शब्द का एक दूसरा मतलब पहाड़ की ऊंची चोटी भी है, जो वर्षा जल से भरे बादलों को अपने पास रोक कर रखती हो। फिर हम आते हैं ब्राह्मण ग्रंथों के प्रमाण पर, जो वेदों के बाद ई.पू. 800-500 के माने जाते हैं। तब तक परिवारों के समूह एक ही गांव या नगर में बसने लगे थे। सो अब गोत्र का मतलब बन गया था वह एक बड़ा संयुक्त परिवारों वाला कबीला, जो अपनी गायें चोरों से बचाने के लिए एक ही गोशाला में रखता था। एक बिल्डिंग में रहने वाले लोग या पार्किंग स्थल या एक गांव के लोग जो नहर का पानी साझा करते हैं, यह काफी कुछ वैसा ही था। इसके बाद आया उपनिषद् काल, जो कि ई.पू. 660-200 माना जाता है। अब तक देश में कई महत्वाकांक्षी बड़े राजा साम्राज्य बनाने लगे थे। और समृद्धि के बल पर जाति विशेष में दाखिला लेना खास कठिन नहीं रह गया था। लिहाज़ा कई-कई ताकतवर राजा, व्यापारी और भूस्वामी सवर्ण कार्य के संदर्भ में सटीक सवर्ण जातियों में आकर उनकी तादाद (और शोभा) बढ़ाने लगे थे। संस्कृति अब दो तरह की हो चली थी, आरण्यक यानी वन में रह कर चिंतन-मनन, पढ़ाई-लिखाई करने वाली और गार्हस्थिक यानी शहर या गांव में जीवन यापन करने वाली। पहली परंपरा ज्ञान से जुड़ी थी, दूसरी धनोपार्जन से।

क्षत्रियत्व पाकर बड़े राजा लोग अपनी किसी बड़ी जीत के बाद राजसूय यज्ञ करते थे, तो जो ब्राह्मण उसका विधिपूर्वक संचालन कराने को आते थे, उनका गोत्र पढ़े-लिखे ब्राह्मण पुजारियों की एक नई शाखा बनाने लगा। जंगल में ध्यान मनन या पठन-पाठन करने वाले ब्राह्मणों के विपरीत वे शहर या गांव में रहते और यज्ञादि से अपनी रोज़ी-रोटी कमाते और गृहस्थी चलाते थे।

तैत्तिरीय संहिता भार्गवों द्वारा करवाए गए ऐसे ही एक राजसूय यज्ञ का ज़िक्र करती है। इसी ग्रंथ में यह भी ज़िक्र है कि क्षत्रिय राजा ने ब्राह्मण श्वेतकेतु और उद्दालक को शिक्षा दी। यानी ज्ञान का आदान-प्रदान ब्राह्मणों से इतर वर्ग भी करते थे। जाति परंपरा इन दिनों कुछ कम लचीली बनने लगी। पर धार्मिक या पारिवारिक कामों को करने के नियम-कायदे बनाने वाली आश्वलायन गृह्यसूत्र जैसे ग्रंथों में यह उल्लेख है कि किस तरह कोई ब्राह्मण गोत्र अगर कभी अधिक विशिष्ट बन गया, तो दुनियादार ब्राह्मण अपना वाला गोत्र बदलकर बड़े वाले में अपना विलय करवा लेते थे (कुछ भारद्वाज गोत्रवालों ने आंगिरस गोत्र पकड़ लिया था)। जामदग्नि गोत्र भी तब बड़ा रसूखदार था। उसमें हर आयु के इतने लोग शामिल हो गए थे कि तैत्तिरीय संहिता (7.1.91) ने कहा कि इस गोत्र में कई-कई परिवारों के बूढ़े, बच्चे और जवान सब मौजूद हैं। यहीं इस गोत्र के दो बिगड़ैल लड़कों ऐतशेय और अभ्यग्नि की निंदा का भी उल्लेख है, जिनकी हरकतों से परेशान पिता ने उनको शाप देकर गोत्र से निकाल दिया था। कई बार आपदा आने पर लोगबाग कैसे गोत्र का गलत नाम बता देते थे, इसकी एक मिसाल महाभारत में है, जहां ब्राह्मण वेशधारी धर्मराज युधिष्ठिर भी राजा विराट् द्वारा गोत्र पूछने पर खुद को ब्राह्मणों के वैयाघ्रपद्य गोत्र का बताते हैं।

ऐतरेय ब्राह्मण के लिखे जाने तक गोत्र की ब्रांडिंग राजकीय सत्ता से पक्की तरह से जुड़ने लगी थी। सो अब कई अन्य ताकतवर क्षत्रियों ने और व्यापार से खूब संपत्ति कमा चुके वैश्यों ने भी खुद को गोत्र परंपरा में इस या उस गोत्र से जुड़वाने की बात सोची। ताकतवर जिजमान ग्राहक को किसी भी युग में मना करना खतरनाक होता है, लिहाज़ा व्यवहार कुशल पंडितों ने विधान कर दिया कि चूंकि यह दोनों जातियां काम के सिलसिले में लगातार बाहर भ्रमण करती हैं, उनको अपना गोत्र प्रवरादि याद नहीं रहेगा। पर एक तरीका यह है कि कोई धार्मिक काम करना हो तो वे बतौर राइट्स ऑफ एटोर्नी अपनी सेवाएं उनके लिए पेश कर सकते हैं। और उस स्थिति में जिजमान राजा या वणिक का गोत्र ऑटोमैटिक रूप से यज्ञ करनेवाले पुजारी का माना जावेगा। संस्कार प्रकाश ग्रंथ (पृ.550) तो यह भी कहता है कि कोई गोत्रनाम न याद रहे तो पुरोहित महोदय काश्यप गोत्र कह कर काम चला ले जाएं।

सबसे अंत में जाटों के गोत्र पर आते हैं। जाट ताकतवर जुझारू जाति रही है। गोत्र के नाम पर वहां कितने सिर फूटे और कथित ऑनर किलिंग्स हुई हैं। इस जाति का उदय महाभारतकाल के बाद हुआ। और जाटों के गोत्र खापों से निकले बताए जाते हैं। जब 14वीं सदी में तैमूर लंग ने पश्चिम भारत में हमला किया और ज़रूरत हुई कि उनका एकजुट विरोध किया जाए, तो इसलिए पास-पास के 84 गांवों को जोड़कर उनकी अलग-अलग कई खाप बनाई गईं, और यह घोषित हो गया कि मूल खापों के सदस्य भाई और उनके बच्चे भी सगोत्री भाई-बहन माने जाएंगे, लिहाज़ा उनमें शादी-ब्याह नहीं हो सकता।

आज जब कृत्रिम बुद्धि और जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से मानव मन और भ्रूण के आनुवंशिक गुणसूत्र तक हर किसी को वैज्ञानिक मनमाने ढंग से बदलने की तकनीकें ईजाद कर चुके हैं, आने वाले वक्त में गोत्र का यह जटिल सवाल समाज, राजनीति या व्यापार विपणन में बुद्धिमान लोगों के लिए कितना तार्किक महत्व या आकर्षण रखेगा, सोचने का विषय है। ज़रूरी है कि हमें जैसा वह मिला है उस इतिहास से बाहर निकलें और आध्यात्मिकता के चश्मे की बजाय अपने इतिहास के असली उतार-चढ़ावों, भाषा निर्मिति और शक्ति समीकरणों को देखना-परखना शुरू करें।

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