स्वामी विवेकानंद ने सभी धर्मों की एकता का जो संदेश दिया, आज वह पूरे विश्व के लिए है बहुत जरूरी

वैसे तो स्वामी विवेकानंद का संदेश हमेशा ही प्रेरणादायक और मार्गदर्शक रहा है, पर आज की स्थितियों में इसका महत्त्व और भी बढ़ गया है। आज जब संकीर्ण सांप्रदायिक सोच और लोगों को संकीर्ण आधार पर बांटने वाली ताकतें बहुत सक्रिय हैं उस समय स्वामी विवेकानंद का संदेश और भी जरूरी हो गया है।

फोटो: सोशल मीडिया 
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भारत डोगरा

वैसे तो स्वामी विवेकानंद का संदेश हमेशा ही प्रेरणादायक और मार्गदर्शक रहा है, पर आज की स्थितियों में इसका महत्त्व और भी बढ़ गया है। आज जब संकीर्ण सांप्रदायिक सोच और लोगों को संकीर्ण आधार पर बांटने वाली ताकतें बहुत सक्रिय हैं उस समय स्वामी विवेकानंद का संदेश और भी जरूरी हो गया है। स्वामी विवेकानंद ने मानवता को ऐसी राह दिखाई जो सभी धर्मों की एकता और परस्पर सम्मान पर आधारित है।

स्वामी जी ने धर्म की बहुत सार्थक व्याख्या करते हुए कहा कि ईश्वर सभी प्राणियों में है और ईश्वर की सेवा करनी है तो दुखी मनुष्यों और सभी संकटग्रस्त जीवन-रूपों की सेवा करनी चाहिए। यही ईश्वर की वास्तविक उपासना है। उन्होंने देशवासियों और युवाओं से आह्नान किया कि वे सबसे कमजोर और अभावग्रस्त और उपेक्षित लोगों की सहायता के लिए अपने को समर्पित करें।

स्वामी जी ने विश्व को अमन और सब धर्मों की एकता के बारे में बहुत स्पष्ट संदेश दिया और हिंदू धर्म की इन भावनाओं के अनुकूल गहरी सोच को नवजीवन दिया। ईश्वर एक है पर इस सच्चाई की ओर कोई वेद-उपनिषद के रास्ते से जाता है, कोई कुरान के रास्ते या बाईबिल या अन्य धर्मग्रन्थ के रास्ते से। सच्ची भावना से इन विभिन्न राहों पर चलने वालों में परस्पर सद्भावना और एक-दूसरे से सीखने की प्रवृत्ति होनी चाहिए।


वर्ष 1893 में शिकागो में विश्व धर्म के सम्मेलन में दिए गए अपने विख्यात भाषण में स्वामी विवेकानंद ने कहा था - ‘जो धर्म पूरी दुनिया को परम सहिष्णुता और सभी मतों की सार्वजनीन स्वीकृति की शिक्षा देता है, मैं उसी धर्म का हूँ; इस पर मुझे गर्व है।’

इस भाषण में स्वामी विवेकानंद ने सांप्रदायिकता और कट्टरवाद की कड़ी निंदा करते हुए कहा कि मानव-सभ्यता की असहनीय क्षति करने वाली इन प्रवृत्तियों की अब मृत्यु हो जानी चाहिए। उनके ही शब्दों में - ‘धर्मांध लोग दुनिया में हिंसक उपद्रव मचाते हैं, बार-बार खून की नदियां बहाते हैं, मानव की सभ्यता को नष्ट करते हैं और एक-एक देश को निराशा में डुबाकर मारते हैं। धर्मांधता का यह भयानक दानव अगर न होता, तो मानव समाज आज जो है, उससे कहीं अधिक उन्नत होता। उस दानव की मृत्यु करीब आ गई है और मैं अंतःकरण से भरोसा करता हूँ कि इस महासमिति के उद्घाटन के समय आज सुबह जो घंटा ध्वनि हुई, वह धर्मोन्यत्तता की मृत्यु की वार्ता दुनिया में घोषित करें। एक ही चरम लक्ष्य की ओर अग्रसर मनुष्य के बीच एक-दूसरे के बारे में संदेह और अविश्वास का भाव समाप्त हो, तथा तलवार या कलम से दूसरे को पीड़ा देने की दुर्बुध्दि का अंत हों।’

इसी सम्मेलन के एक अन्य भाषण में स्वामी जी ने घोषणा की - “जल्द ही हर धर्म की पताका पर लिखा होगा विवाद नहीं, सहायता; विनाश नहीं, संवाद; मतविरोध नहीं, समन्वय और शान्ति।”

इस विश्व धर्म सम्मेलन के निष्कर्ष के तौर पर उन्होंने कहा - “अगर इस धर्म महासमिति ने दुनिया को कुछ दिखाया है तो वह यही, कि अच्छा चरित्र, पवित्रता तथा दया-दाक्षिव्य पृथ्वी के किसी एक ही धर्म की संपत्ति नहीं है। प्रत्येक धर्म में बहुत ऊंचे चरित्र के नर-नारियों ने जन्म लिया है।”

उन्होंने अध्यात्म की ऐसी राह दिखाई जिसमें व्यर्थ के अंधविश्वासों के लिए कोई स्थान नहीं था तथा तर्कसंगत ढंग से समाज में व्याप्त दुखों और समस्याओं के कारणों को खोज कर उन्हें दूर करने को अध्यात्म की राह माना गया था। इस दृष्टिकोण के प्रसार से भारतीय समाज में वैज्ञानिक दृष्टि को अपनाने में बहुत सहायता मिली। साथ ही यह कहना जरूरी है कि स्वामी विवेकानंद जैसे प्रेरणादायक व्यक्तित्वों के अथक प्रयास के बावजूद अभी भारत में यह कार्य अधूरा है। इस समय भी अंधविश्वासों और कर्मकांडों का प्रचलन बहुत अधिक है। अतः अंधविश्वासों को दूर करने और अध्यात्म की राह को तर्कसंगत बनाने के प्रयास और सशक्त होने चाहिए।

स्वामी विवेकानंद ने अध्यात्म की ऐसी राह विकसित की, जो सीधी-सरल थी। यह किसी भी कर्मकाण्ड से नहीं जुड़ी थी अपितु इसका मुख्य केंद्रबिंदु तो यह था कि नैतिकता और सदाचार को व्यवहारिक तौर पर दैनिक जीवन में समावेश किया जाए।

इसके साथ उन्होंने शिक्षा को भी तर्कसंगत आधार पर सुधारने का संदेश दिया। उन्होंने कहा कि बच्चों को स्व-शिक्षा के अनुकूल अवसर देना बहुत जरूरी है ताकि वे अपनी रचनात्मकता का सही विकास कर सकें। उनपर ज्ञान लादने का प्रयास नहीं करना चाहिए अपितु उन्हें अपनी रचनात्मकता को विकसित करने का अनुकूल वातावरण देना चाहिए।


युवाओं को उन्होंने संदेश दिया कि किसी लाईब्रेरी की सब पुस्तकों को हजम करने से बेहतर रास्ता यह है कि कुछ अच्छे विचारों का समावेश अपने जीवन में भली-भांति किया जाए जिससे ज्ञान और चरित्र निर्माण का कार्य साथ-साथ चले। किताबी ज्ञान की सीमाओं से बाहर निकलकर कमजोर और निर्धन वर्ग की भलाई और समाज में सार्थक बदलाव की चुनौतियों से जुड़ना जरूरी है। महिलाबों में शिक्षा का प्रसार सबसे जरूरी है और इसके साथ वे क्या राह अपनाना चाहती है, इसका निर्णय उन्होंने स्वयं लेना है।

देश के पिछड़ेपन का एक अन्य बड़ा कारण है महिलाओं को समुचित अवसर न मिलना और उन्हें समाज में पीछे रखना। महिलाओं को शिक्षा के भरपूर अवसर मिलने चाहिए। उन्होंने कहा पहले महिलाओं को शिक्षित करने पर ध्यान दो और फिर वह स्वयं बता देंगी कि समाज में किस तरह के सुधार उनके हित में होने चाहिए। पुरुषवादी सोच को झिड़कते हुए उन्होंने पुरुषों से कहा है, “उनकी प्राथमिकताओं को तय करने वाले आप कौन होते हैं?” हां, इतना उन्होंने जरूर कहा कि हमारा समाज-सुधार हमारी मर्यादाओं के अनुकूल होना चाहिए और पश्चिमी देशों की अंधाधुंध नकल नहीं करनी चाहिए। समाज और परिवार में और आध्यात्मिक स्तर पर भी ‘मां’ के महत्त्व को, मातृशक्ति को उन्होंने बार-बार रेखांकित किया।

विश्व में दुख-दर्द कम करने के लिए एक बड़ा आंदोलन सामाजिक न्याय का आंदोलन रहा है। दूसरी ओर आध्यात्मिक आंदोलनों और अभियानों ने एक अलग राह से दुख-दर्द से त्रस्त मानवता को राहत पहुंचाने का कार्य किया है। एक बड़ा सवाल यह है कि सामाजिक न्याय और अध्यात्म की इन दो धाराओं का आपसी समन्वय कैसे हो?

इस संदर्भ में स्वामी विवेकानंद का योगदान विश्व स्तर पर बहुत महान रहा। उन्होंने जहां ऐक ओर अध्यात्म की ऊंचाईयों को छुआ, वहां दूसरी ओर एक सामाजिक न्याय के लिए भी उनके मन में गहरी तड़प थी।

स्वामी विवेकानंद ने सभी धर्मों की एकता का जो संदेश दिया है, वह पूरे विश्व के लिए आज बहुत जरूरी हो गया है जबकि कई स्तरों पर नई तरह की असहिष्णुता नए संकट उपस्थित कर रही है। अतः विश्व स्तर पर भी स्वामी जी के संदेश को नई स्थितियों से जोड़ते हुए प्रसारित करना आवश्यक है।

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